पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१०१

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प्रवर अवक अवर--संज्ञा पुं० १ एक मुगवित वन्तु । कहलाता है। पर्या०—चित्रा । दारूहल्द। बाहरदी बिशेप--सह हैन मन को तया कुछ और समुद्री मछलियों की अहिदी ) । अँटिया में जमी हुई चीज है जो भारतवर्प, अफ्रीका श्रीर अवरबेल--सज्ञा स्त्री० [सं० अम्मरवल्ली ] ३० अम्बरबेलि' । ब्राजील के समुद्री किनारों पर बहती हुई पाई जाती है । ह्वेल अवरबेलि--सच्चा स्त्री॰ [ भ* अम्मरवल्ली प्रा०, अमरवल्ली ] प्रकाश का शिकार भी इसके लिये होता है। अवर बहुत हल्का और वेल । अाकाश वार । अमवैन । शीघ्र जनैदाना होता है तथा अांच दिखने रहने से बिलकुल विशेप--हक मी नुसखो मे इमे इफ्तीमून के हते हैं। सूत के समान भाप होकर उड जाता है। इनका व्यवहार पवियो में होने के पीली एक वेल जो प्रायः पेडो पर लिपटी मिलती है जिसकी बार यह नकोदर (कालानी का एक द्वीप) तथा भारत जट पृथ्वी में नहीं होती और इसमे पत्ते और कनखे भी नही ममुद्र के श्रौर और टापुझो से आता है। प्राचीन काल में अरव, निकलते। जिस वे पर यह पड़ जाती है उसे न्नपेटकर सुखा यूनानी अोर रोमन लोग इसे भारतवर्ष से ले जाते थे। जहाँगीर डालती है। यह बाल बढाने की एक अौषधि है। हकीम ने इस राजसिंह मन को सुगघिन किया जाना लिखा है। लोग इसे वायुरोगो में देते हैं। उ०--जिनन पाम अवर है इस शहर वीव । खरीद करनहार अवरमणि-संक्षा पुं० [सं० अम्बरमणि] प्रकाश के मणि अर्थात सृर्य । हैं मवे वही व ।- -दक्विनं ०, पृ० ७९ । २ एक इत्र । अवरमाला--सा स्त्री० [सं० अम्बरमाला ] मोतियो की विगैप उ०--तेन फुनेल मुगध उवदनो अवर अतर लगावै रे |-- प्रकार की माला । उ०- अवरमाल इक्क मक पहिराइ कह्यौ भक्ति०, पृ० ३६० । इह 12-पृ० रा०, ७॥२६ । अवर'G'–संसद्मा पुं० [सं० अमृत, प्रा० अमरित, अमरिअ, अप० अबरयुग--सञ्ज्ञा पुं० [सं० अन्वरयुग ] स्त्रियो का ऊपर और नीचे | (ग्रवरि] अमृत । सुच्ची |--अनेकार्य०, पृ० ११४।। पहनने का वस्त्र [को०)। अवर’gl-.-संक्षा पु० [अ० अमारी, हिं० प्रवारी ] हाथी की पीठ अवरलेखी--वि० [सं० अम्बर लेखिन् ] प्रकाशल्पर्शी । गगन पर का होदा जिमपर छज्जेदार मडप होता है। अवारी । चुवी [ को०] । उ०--चढी चौटोल प्रदर। मनो कि मेघ घुम्मर --१० अवरशैल-- सझा पुं० [ स० अम्बरशैल ] अति उच्च पर्वत । वहुत ऊँचा रा०, ६६॥५७ ।। पहाड [को० ।।। अवरग--१० ( म० अम्बरग ] अाफ'शमी [को० ]। अवरसारी--संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का कर वा टैक्स जो पहले अदरचर --वि० [ म० अम्वरचर ] श्र। यशामी [को० ]।। घरो के ऊपर लगता था । अवरचर’ --संझा पुं० १ पक्षी । खग। २ विद्य'घर [को० ]। अवरस्थली-सच्चा स्त्री० [सं० अम्बरस्थली ] पृथ्वी [को॰] । अवरचारी--वि० [सं० अम्बरचारी ] ग्रह [को॰] । अवरात- सच्ची पु० [सं० अम्बरान्त ] १ कपडे का छोर। २ वह अवरडवर--संज्ञा पुं० [ म० अम्बर + हिं० इबर | वह लाली जो सूर्य रथान जहाँ आवाश पृथ्वी से मिला हुआ दिखाई देता है । के अम्न होने के समय पश्चिम दिशा में दिखाई देता है। स० - विनमत धार न ल ।गई ॥ छे जन की प्रीति । अवर डवर साँझ अबराधिकारी--सी पुं० [ सं ० अम्बर।धिकारी ] अबर या परिधान के यो वार की र्भ ति ।--स० सप्" क, पृ० ३१२ । | का अध्यक्ष [ क’० ]।। अवरद-सशः पुं० [ में० अम्दरद ] पास [ को०]। अवरीक -सज्ञा पुं० [म० अम्बरीप, देश ० अवरोख> अबरीक] ३० अवरपुर--(५ सः पुं० [म० अम्बरपुर ] श्रावण । उ०-- आरोपि 'अवरीप' । उ०--माफ करे अबरीक बचोगे तव दुर्वासा - प्रथ्यि अबरपुर हे सन माइ सस परिय । कहि चद दद कर देत पलटू०, १।१६। । सो घनिबार अद्धर धरिय ।--पृ० रा०, २५१५३ । अबरीष–स पुं० [सं० अम्बरीष] १ भाड। २ वह मिट्टी का बरतने अवरपप-सः पुं० [सं० अम्वरपुष्प ] प्रकाशाकुसुम । असभव जिस में भडभुजे ल ग गरम बालू डलवर दाना भूनते हैं । बात । उपप । अन्तित्वहीन पदार्थ । [को॰] । ३ विष्णू ।४ शिव। ५, सूर्य । ६ वि शार अथति ११ वर्ष से अवरवानी--सद्मा पुं० [स० अम्बर ( = मैघ) +वानी] मेघगर्जन ।३ दलो छोटा वालक । ७ एक नरक । ८ अयोध्या के एक चा गर्जन। उ०—-अर्थ रवानी मई मजल दादर दल छ ए ।-- सूर्यवंशी राजा । नूर (राधा०), ४=c६ । विशेष-ये प्रशुश्रक के पुत्र थे और इक्ष्वाकु से २८वी पीढी में हुए । अयरवारी--- सा श्री० [सं० अमरबल्लरी, प्रा० अम्मर वाली ] थे । पुराणों में ये परम वै एवं प्रसिद्ध है जिनके कारण दुर्वासा ए झट। ऋषि का विप्ण के चचे ने पीछा किया था। महाभारत, विशप-पह हिम लय और नीलगिरि पर होती है। इसकी जड 'नागवत और हविश में अवपि को नाभाग का पृढ़ लिखा है। पौर छ,न में बहुत ही अच्छा पीना र ग निकलता है जिससे जो रामायण के मत के विरुद्ध हैं। भी थर्भ' चम। भी रंगते है । इसके धज में तेल निकलता ६ मामढे व फल और पेड ! १० अनुताप । पश्चात्ताप । ३। इसकी नमी, जिसे दामदुल्द वा दाहल्दी कहते है, ११ समर । लडाई । १२ छटा जानवर । वडा [को॰] । पधियों में पाम आती है तथा इसकी जड़ और लकडी से अबरीसक--सा पुं० [सं० अम्बरीष ] भाइ । भरमायें (दि०)। एक प्रपार का रस निकालते हैं जो रसबत या रसौत अवरोक-सवा पुं० [स० अम्बरीक ] देवता। क्षितिज ।