पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१००

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अंधेरी अंबर || अधेरी--संज्ञा जी० दे० 'अँधेरी'। भाजे गीत अब बरसात उल ट्री।--० ९, पृ० ३४३ । 'अंधेरी--संज्ञा स्त्री० [?] दक्षिण भारत वा एक स्थान । ७ जल । उ०--हरिचरन अव अजुलो धन (--१० रा०, अध्यार --सज्ञा पुं० [ स० अन्धकार, प्रा० अधयार ] अंधियारे । १॥३६६। | अंधेरा।। अव --सज्ञा १० [स० लम्च] रक्त । पुन । रधिः । ०-५-रि अव | अध्यारी --मज्ञा० सी० दे० 'अँधियारी' १ ।। अचन अग्गथि करार |--पृ० ०, ६१२२३ ।। अघ---सज्ञा पुं॰ [ म० अन्ध्र ] १ बहेलिया । व्याधा ! शिकारी । २ अवक--सज्ञा पृ० [स० अम्बक] १ श्रख । नेत्र। ४०--नव अनुज वैदिहिक पिता और ते रावर माता से उत्पन्न नीच जाति के अचक छवि नीकी '-- मानस ११४७ । मनुष्य जो गांव के बाहर रहते और शिकार करके अपना यौ०-~-त्यचक = शिव ।। निवहि करते थे । ३ दक्षिण का एक देश जिसे अब लिग ना २ पिता ! ३ तव।। ४ शिवनेने (को०]। हते है । इसके पश्चिम की और पश्चिम घाट पर्वन, उत्तर की अवखास--सझा पुं० दे० 'आमखास' । उ०—सावय नै काहि अवपास ओर गोदावरी और दक्षिण में कृष्णा नदी है। घाघ्र देश । में बुलाया । हाजिर उमराव मार सो तमाम या --शिखर०, '४ अघ्र देश के निवासीजन ५ मगध का एक राजवा जिसे पृ० ६२ । एक शूद्र में अपने मालिक कम्न वा के अतिम राजा को अवजा सझा स्त्री० [सं० अम्बुजा- कमलिनी । उ०---ग्रलीन जुथ्य मारकर स्थापित किया था । अ ध वश व अतिम जि।। अवर । मनो बिग सवर । चुवत पत्त रत जा। उवत जाति पुलम था । अवजा :--पृ० सं० २५।३२४।। अघ्रभृत्य-संज्ञा पुं० [ स० अन्ध्रभृत्य ] मगध देश का एक राजवश । अवडिपस पुं० [सं० अम्बर ] अवर। श्राश । १०----तिस विशेष--अमवश के अतिम राज पुलोम वे गगा में डूब मरने के अवढि कोय न सकई इहू ऊंचा अपरु अपार ।--प्राण ०, पीछे उसका सेनापति रामदेव फिर रामदेव के सेनापति | पृ० २०८ । प्रतापच अरर फिर प्रतापचद्र के पौधे भी अनेक सेनापति राजा प्रवमर- सझा पु० [सं० प्रस्व + मकुर, प्रा० शाब + मउ ] अम्र की बन वैठे। इन सेनापतियो का वश अध्रभृत्य कहलाया। मजरी । वर । ४०-६न उपवन फुल हि अति व ठोर ! रहे अन५-- संज्ञा पुं० [ स०अन्न ] ६० "अन्न' । उ०—- (क) अन का मास जोर मौर रस अमौर --१० रा०, पृ० १८ ।। अन्लि का हाड तत वा भपिवा वाई ---गोरख० पृ० ४१ । अवयो--स' स्त्री० [सं० अम्बया | १ माता (कपी०) । | ( स } पुच दिवस च्या वरन भजत अन अपार ।--पृ० ०, अवर'--संज्ञा पुं० [सं० अम्बर] १ श्रीकामा । असमान । शून्य । उo१४५१२० । अवर कुज कुलियां रजि भरे सब ताल -चबीर ०, यौ~-अनदान = अन्न दान करने की कार्य । उ०--करि सनान पृ० ७। । गगोदकह दिय सू गाइ दस दान। दस तोला तुलि हेम दिय मुहा०---अबर के तारे बिगना = प्रकाश से तारे टूटना। असभव ग्रेनदान अ [ 9 ] मान । --पृ० रा०, ६।१३१ । बात का होना। उ०--प्रवर के तारे डिगे, जुझा लाई वैल । अन्नास--सशा पु० दे० 'अनन्नास' । उ०—–सु अननःस जीस्य । पानी में दीपक वने, चलै तुम्हारी गेल (शब्द॰) । सतूतय जंभीरये ||--पृ० रा०, ५९।६।। यौ०-अवरचर= (१) पक्षी । (२) विद्याधर । अबचारी= ग्रह । अनी--सज्ञा स्त्री० दे० 'अनी' । उ०—दिसा वाइय साद हुस्न अनी । अवरद = कपास । अवरपुप्प= विपासुम । प्रवरशैल = ॐचा पहा । अवरस्थली = पृथ्वी । | --पृ० ० ६ १४० ! २ बादल । मेघ (क्व०) । उ०----आपाढे में सावे परी मब वाव अनेक--वि० दे० 'अनेक' । उ०—अनेक भाव दिपहि सु दिव, दिव देख कामिनी । अवर नवे, विजलो खवै, दुख देत दोनो दामिनी-- दिवान ददभि वजड |--पृ० रा०, १४।७३ ।। (शब्द०)। ३ वस्त्र । कपडा। पट । उ०--नभ पर जा६ विभीअन्य -चि० दे० 'अन्य' । उ०—र बधाई केमरा फरी प्राइ पन तबही । वर िदिए मुनि अवर सबही ।--मानस, ७॥११६। सुरतान। अन्य सवन कोनी पयर पुजिय पीर ठटान।--पृ० ४ स्त्रियों की पहनने की एक प्रकार की एकरगी गिनारेदार रा०, ६२१० ।। धे ती । उ०-- करपत सभा द्रुपद तनय की अवर अछय पियौं । अन्योन्य७ --सर्व दे० 'अन्याय' । उ०--अन्योन्य सह नाम : --सुर० ११११ । ५ कपास । ६ अभ्रक धातु । अवरक । | पृ० रा०, ९८६ ।। ७ राजपूताने का एक पुराना नगर (समवत जयपुर की राजअव --संज्ञा स्त्री० [ स० अम्वा ] अवा। माता । उ०—-कबहुँक अव धानी मेर)। ८ प्राचीन ग्रंथों के अनुसार उत्तरी भारत का अवसर पाइ !-—तुलसी १०, पृ० ४७५ । एक देश। ६ शून्य (को०)। १० गध द्रव्य । कश्मीरी पर । अव (७–सज्ञा पुं॰ [ स० शास्र, प्रा० अम्म, अल ] दे० 'ऋग्न' । आम उ०---पचीस व अवर, असीम मुमती भर ।--१० रा ०। को पेड या फल। ३०---अव सुफल छडि कहाँ से मर को घाऊ । ६६१५८ । ११ परिधि । मद्दत (को०)। १२ पड़ोस । -सूर० ११६६।। सामीप्य । पाप का देर (फो०)। १३ । ठ (को॰) । अव--सज्ञा पु० [सं० अम्ब१ पिता । २ स्वर । ३ स्वर करने वाला है १४ दोष । बुराई (को०) १५ हायियो नी ना वरने वाला ४, अखि । वेद । ५ तवा [को०]। ६. अाफामा । उ०—–श्रीम (६) । बुराई (को (६०)