पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/६७

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३८२६ मसकला मसना जाना। रा० कॉद न देइ मसकरी करई। कहु हुइ भाति कसे निस्तरई । मससरी-मजा म्ी० [फा० मसखरा + हिं० ई (प्रत्य॰)] दिल्लगी। --कवीर बी० ( णिशु० ), पृ० २०६ । हंमी। मजाक । उ०—जो कह झूठ ममखरी मसकला- सज्ञा पुं० [अ० मसकलह ] १ सिकलीगरो का एक औजार कलियुग सोइ गुनवत बसाना । —तुलसी (शब्द०)। जो हैसिया के प्राकार का होता है और जिसमे काठ का एक मसखवा-मज्ञा पुं० [हिं० मास + खाना ) वह जो माम खाता दस्ता लगा रहता है। इससे रगडने से धातुओ पर चमक आ हो । मामाहारी। उ०—बू डाह हस्ति घोर मानवा । चहु दिम जाती है। प्राय तलवारें यादि भी इसी से साफ की जाती प्राय जुरै ममखवा ।--जायमी (शब्द॰) । है। उ०—(क) गुरु मिकलीगर कीजिए, ज्ञान मसकला देइ । मसजिद-समा श्री० [ का० मस्जिद ) मिजदा करन का म्यान । मन की मैल छुडाइ के, सुचि दर्पण कर लेइ । —कबीर (शब्द॰) । मुसलमानो के एकत्र होकर नमाज पढन तथा इश्वरवदना ( ख ) शिष्य खाँट गुरु ममकला, चढ़ शब्द खरमान । शब्द करने के लिये विशिष्ट रूप में बना हुआ स्थान । सहे मन्मुख रहे, निपजे शिप्य सुजान |--कवीर (शब्द०)। २ विशेप-ममजिद माधारणत चौकार बनाई जाती है और उममे सकल या मिकली करने की क्रिया । श्रागे की ओर कुछ खुला हुआ स्थान तथा हाथ मुंह धोन क मसकली-सञ्ज्ञा स्मी० [हिं० ] 'मसकना'। लिये पानी का हौज होता है । पीन्द्र की पार नमाज पढन के मसका'-मज्ञा पुं० [फा० मस्कह ] १ नवनीत । मक्खन । नैनू लिये दालान होता है जिसके ऊपर प्राय एक से चार तक २ ताजा निकाला हुअा घो। ऊंची मीनारें भी हाती है, जिनमें से किना एक पर चढ़कर मसका-सञ्ज्ञा पु० दश०] १. दही का पानी। २, रासायनिक अजान या नमाज के समय की मूचना दी जाती है । परिभाषा मे, बाँधा हुआ पारा । ३ चूने को बरी का वह चूर्ण जो उमपर पानी छिडकने से हो जाता है। ४. कायस्थ । मसडी'-सहा ग्री० [अ० मिसरी ] कद । (हिं० )। ( सुनार)। मसडी-मशा ली. ] एक प्रकार का पक्षो। मसकार-सज्ञा पुं० [ सं० मशक | द. 'मसक"। उ०-मसका मसतक - सज्ञा पुं० [सं० मस्तक ] 10 'मस्तक' | उ० --मा धण कहत मेरी सरभरि कीन उडे। मेरे भागे गण्ड की कतीयक जर इणि परि राखिजई, जिम सिव मसतक गग। दोला, है।-मुदर० प्र०, भा॰ २, पृ० ४६६ । दू०४५३ । मसकाना--क्रि० स०, अ० [अनु॰] दे० 'मसकना' । मसती-मज्ञा पुं० [हिं० मस्त ] हाथी । ( हि० )। मसकाना:-क्रि० अ० [अनु० ] खाना । भक्षण करना। उ० मसनद-सज्ञा स्त्री० [अ० मसनद ] 70 'मसनद' । उ०-नर घर आफू पाय भाँगि मसकार्य । ता मैं अकलि कहा ते पावै । वर मसनद सीम उस्मीस धराइन ।-मुजान०, पृ० २३ । चढ़ता पित्त उतरतों बाई। तातै गोरख भाँगि न खाई। मसन-सज्ञा पुं॰ [देश० ] एक प्रकार का टकुमा जिसकी महायता -गोरख०, पृ० ६६ । से ऊन के कई तागे एक माथ मिलाकर बटे जाते हैं। मसकाला+-सज्ञा पुं० [अ० मसकलह, ] दे० 'मसकला' । उ० मसन-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ तोलना । मापना । २. एक प्रकार को कहाँ ग्यान कहाँ ग्यान का म्यॉन कहाँ म्यान का मसकाला । जडी। ३ चोट । आघात । (को०] । -रामानद०, पृ०१३। मसनद -सन्ना सी० [अ०] १ वडा तकिया। गाव तकिया। २ मसकीन+-वि० [अ० मिसकीन ] १ गरीब । दीन । बेचारा । तकिया लगाने की जगह । ३ अमीरो को बैठने की गद्दी । उ०-ह मसकीन कुलीन कहावो तुम योगी सन्यासी । ज्ञानी उ० - क्या ममनद तकिये मुल्क मका, क्या चौकी कुरमी तख्त गुणी शूर कवि दाता ई मति काहु न नासी ।—कबीर (शब्द॰) । छतर -नजीर ( शब्द०)। २ साधु । सत । उ०-क्या मूडी भूमिहि शिर नाए क्या जल देह नहाए। खून कर मसकीन कहावै गुण को रहै छिपाए । मसनदनशीन-सज्ञा पुं० [अ० ममनद+फा० नशीन ] मसनद पर बैठनेवाला । बडा आदमी। अमीर । —कबीर (शन्द०)। ३ दरिद्र । कगाल । ४ भोला भाला । ५ सुशील । मसनवी-सझा स्त्री० [अ० मस्नवी ] उर्दू काव्य का एक प्रकार मसखरा-सज्ञा पुं० [अ० मसखरह ) १. बहुत हँसी मजाक करने- जिसमे कोई कहानी या उपदेश एक ही वृत्ति मे होता है और वाला । हँसोद । ठट्टेबाज । उ०—कबिरा यह मन मसखरा जिसमे हर शेर के दोनो मिसरे सानुप्रास होते हैं पर हर शेर कहूं तो माने रोम । जा मारग साहब मिल तहाँ न चाल का तुक भिन्न होता है। उ०—जहि के ममनवी जगत महं, कोस ।-कबीर (शब्द॰) । २ विदूषक । नक्काल । अगम निगम अवगाह-हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २३२ । मसखरापन--सज्ञा पुं० [अ० मसखरा + हिं० पन (प्रत्य० )] मसना-क्रि० स० [हिं० मसलना ] १ मसलना । उ०-(क) दिल्लगी। ठठोली। हंसी। ठट्ठा । उ०-मुझको तो आपके स्वास को चारु प्रकाम बया'न मद सुगध हियो ममती है ।- मुमाहयो मे मिवाय मसखरापन के और कोई लियाकत नहीं रघुनाथ ( शब्द०)। (ख) प्राजु परघो जानि जब आपने मैं मानूम होती । -श्रीनिवामदास (शब्द॰) । सुने कान वाको सवाधन मोसो को ही मसतु है।-रघुनाथ