४३५८ लोहा' 1 लोहमुक्तिका लोहमुक्तिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] लाल मोती [को०] | लोहरज–समा स्त्री॰ [ स० लोहरजस् ] मोरचा । जंग (को॰] । लोहराज:-मज्ञा पुं॰ [स० ] चाँदी [को०] । लोहलगर-सज्ञा पुं० [हिं० लोहा + लगर ] १. जहाज का लगर । २ बहुत भारी वस्तु। लोहल'—वि० [सं०] १ लौहनिर्मित । लोहे का बना हुआ । २. अस्पष्ट बोलनेवाला [को०] । लोइल' -सञ्ज्ञा पुं० शृखला का मुख्य छल्ला [को०] । लोहलिंग-सञ्ज्ञा पुं० [सं० लोहलिङ्ग । खून से भरा फोडा [को०] । लोहवर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] सुवर्ण । सोना को०] । लोहवर्म-सज्ञा पुं० [ लोहवर्मन् ] लोहे का कवच [को०] । लोहशकु-सज्ञा पु० [ सं० लोहशद्ध ] १. पुराणानुसार इकोस नरको मे से एक नरक का नाम । २ लोहे का भाला (को॰) । लोहशुद्धिकर-सज्ञा पुं० [ स० ] सुहागा [को॰] । लोहश्लेपण, लोहश्लेष्मक-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स०] मुहागा । लोहसकर-सज्ञा पुं० [सं० लोहसङ्गर ] १ घातुनो का मिश्रण । २ वर्तलोह । नीला इस्पात (को॰] । लोहसश्लेपक -शा पुं० [सं०] मुहागा (को०] । लोहसार-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ फौलाद । २ फौलाद को बनी जजीर । उ०-लोहसार हस्ती पहिराए । मेघ साम जनु गरजत पाए । —जायसी (शब्द॰) । लोहहारक-सज्ञा पु० [ स० ] मनु के अनुसार एक नरक का नाम । लोहागारक-सक्षा पुं० [ स० लाहाझारक | दे० 'लाहहारक' । लोहागी, लोहॉगी-तक्षा श्री० [हिं० लोह + अग+ इ ] वह छड़ी या हडा जसक एक किनार पर लाहा लगा हाता है । लोहा -सब पुं० [सं० लोह] १ एक प्रसिद्ध धातु जो ससार के सभी भागा मे अनक धातुया क साथ मिली हुई पाई जाती है। तिशेप-इसका रग प्राय काला होता है । वायु या जल के ससर्ग से इसमे मार्चा लग जाता है। भारतवर्ष में इस धातु का ज्ञान वैदिक काल से चला भाता है। वेदा मे लोहे को साफ करने की विवि पाइ जाती है और उसक बन कठिन और तीक्ष्ण हथियारो का उल्लेख मिलता है । लोहे का ज्ञान पहले पहल ससार मे किस, कब, कहां और किस प्रकार हुआ, इसका उल्लेख नही मिलता । वैद्यक शास्त्र क अनुसार लाहा पांच प्रकार का होता है-काचो, पाडि, कात, कालिग और वजक। इनम काची, पाद और कालिग क्रमश दाक्षण का काचापुरी, पडा पोर कलिंग देश के लाहे क नाम हैं, जा वहाँ का खाना से निकलते थ। जान पड़ता है, प्रज्जक उस लाहे का कहत थे, जा पाकाश से उल्का के रूप म गरता था, क्योकि बहुत दिना से ससार मे यह बात चलो आता है कि विजली स या उल्कापात में लोहा गिरता है। कात हर एक स्थान के शुद्ध किए लोहे का कहते हैं। इन्ही पाच प्रकार के लाहो का प्रयाग वैद्यक मे सर्वश्रेष्ठ मानकर लिखा गया है । यह बलप्रद, शोथ, शूल, मर्श, फुट, पांड्ड, प्रमेह मेद और वायु का नाशक, श्रोयो गी ज्योति और आयु को बढ़ानेवाला, गुरु तथा पारक माना जाता है। कुछ लोगो का तो यह भी मत है कि नोहा सब रोगा का नाश कर सकता है, और मृत्यु तक को हटा दता है । वैद्यक मे लोहे के भस्म का प्रयाग होता है। भारतवप का लोहा प्राचीन काल में गसार भर में प्रर यात या। यहा के लोगो का ऐसे उपाय मालूम थे जिनमे तोहे पर संमती वा तक तु का प्रभाव नहीं पडता था, और वर्षा तथा वायु के मन से तथा मिट्टी मे गडे रहने से उसमें मोर्चा नहीं लगता था। मिली का प्रसिद्ध स्तम इसका उदाहरण है, जिसे पद्र मो वर्ष में अधिक बीत चुके हैं। उमपर अभी तक कही मार्चा नाम तक नहीं है। आज कल लोहे को जिम प्रणाली से माफ र रते हैं, वह यह है,-खान से निकले हुए लाहे का पहने माग में दाल- फर जला देते हैं, जिससे पानी भर गधक प्रादि क प्रग उनमे मे निकल जाते हैं । फिर उम लाह को कायले या पत्थर के चूने के साथ मिलाकर वढी मे डालकर गलाते है। इससे पाक्सिजन का अश, जो पहली बार जलाने से नहीं निकल सकता है, निकल जाता है। इतना साफ करने पर भी लाहे में प्रात संकडा दो से पांच अश तक गघक, कार्बन, मिलिका, फागफा- रस, अलुमीनम मादि रह जात हैं। उन्हें अलग करने के लिये उसे फिर भट्टी तैयार करक लगाते हैं, और तब धन न पीटत हैं। पहले का देगचून मोर दूसरे का लोहा या कमाया हुया लोहा कहते हैं। इस कच्चे लोहे मे भी संकटा पोचे. १५ से ०५ तक फार्बन मिला रहता है। उसी कार्वन का निकालना प्रधान फाम है। इस्पात मे सैफडे पीछ ०६ स ०२ तक कार्वन होता है। उत्तम लोहा वही माना जाता है, जिनपर अम्ल या एसिड मादि का कुछ भी प्रभाव न पडे । विशुद्ध लाई का रंग चांदी की तरह सफेद होता है और जिला करने पर यह चमकन लगता है। बाद लोहे को धिमा जाय, ता उसस एक प्रकार की गध सी निकलती है। पुराणो म लखा है कि प्राचीन काल मे जब देवतायो न लामिल दत्य का वध किया, तव उसी के शरीर से लोहा उत्पन्न हुआ। तीक्ष्ण, मुड और कांत लोहो के पर्याय भी मलग अलग ह । तीक्ष्ण के पयाय शस्त्रा- यस, शास्त्र्य, पिंड, शठ, मायस, निशित, तीव्र, सग, चित्रायस, मुडज इत्यादि। मुड के पर्याय-दृपत्सार, शिलात्मज, अश्मज, कृषिलौह इत्यादि । कुछ लागो का कथन है कि आदि म 'लाहा' तांबे को कहते थे । कारण यह है कि 'लोह' शब्द का प्रधान या यौगिक अर्थ है-लाल । पीछे इसका प्रयोग लाहे के लये करने लगे। पर यह कथन कई कारणो से ठीक नही जान पडता । एक कारण यह है कि वेदो मे लौह और अयस् शन्दो का प्रयोग प्राय सब धातुमो के लिये मिलता है। दूसरे यह कि अब लोहे को माधुनिक विद्वान् लाल रग का कारण मानने लगे हैं। उनकी धारणा है कि रक्त मे लोहे के प्रश हो के कारण ललाई है, और मिट्टी मे लोहे का प्रश मिला रहने से ही मिट्टी के बर्तन मौर , मादि पकाने पर लाल हो जाती है।
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