लोशभिलनित ४३२२ लोचनगोचर तण लोकाभिलक्षित-वि० [सं० ] सर्वप्रिय किो०] । आदमी । 30-(क) देख रतन हीरामन गेवा । गजा जिव लोकाभ्युदय-सग पुं० [ स० ] लोक का अभ्युदय । सबका कल्याण । लोगन हठ खोवा । —जायसी (शब्द॰) । (ख) अमृत वस्तु जानै मक्का उदय (को०] | नही, मगन भए कित लोग । कहहि कबीर कामो नही जीवहि लोकायत-मज्ञा पु० [ स०] १. वह मनुष्य जो इस लोक के अतिरिक्त मरन न जोग ।-कवीर (शब्द॰) । (ग) जिन वीथिन विहरहिं दूसरे लाक का न मानता हो। २ चार्वाक दर्शन, जिसमे सब भाई । थकित हाहिं सब लोग लुगाई । —तुलसी (शब्द०)। परलाक या पोक्षनाद का खडन है। ३ किसी किमी के मत विशेष-हिंदो मे इस शब्द का प्रयोग सदा बहु चन मे और ने दुमिल नामक छद का एक नाम । मनुप्यो के समूह के लिये ही होता है। जैसे,—लोग चले श्रा लोकायतिक-सन्ना पुं० [सं०] नास्तिक । भौतिकवादी ।को०] । लागायन-सा पु० यो०-लोगवाग - जनसमाज । सर्वसाधारण जन ।
- ० । नारायण का एक नाम [को०] ।
लोकालोध-सज्ञा पु० [ स०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम । लोगचिरकी-सज्ञा स्त्री॰ [दश० ] एक प्रकार का फूल । चक्रवाल। लोगाई-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० लोग+ आई (प्रत्य॰)] स्त्री। औरत । विशप-कहत है, यह सातो समुद्रो और द्वीपो का चारो ओर उ०—(क) वृद वृ द मिल चली लोगाई। सहज सिंगार किए स यावे.ठत किए हुए है, जिसके वाहर सूय या चद्र का प्रकाश उठि धाई । —तुलसी (शब्द०)। (ख) पु ने ज्वर दी दीनी पुर नहीं पहुंचता । बौद्ध अथो मे इसे चक्रवाल कहा है। लाई । जरन लगे पुर लोग लुगाई । - सूर (शब्द॰) । लोक्ति-वि० स०] अवलोकित । देखा हुया (को०] | विशेप- इस शब्द का शुद्ध रूप प्राय 'लुगाई' ही माना जाता है। लोका-वि० [सं० लोकिन ] १ लाक मे रहनेवाला । २ लोक का लोच'- '-सज्ञा पुं० [हिं० लचक ] १ लचलचाहट । लचक । २ अधिपता कोमलता। उ०-चलो चले छुटि जायगो हठ रावरे संकोच । लोकेश-सज्ञा ० [सं० } १ विश्व का स्वामी । ईश्वर । २. गजा । खरे चढाए देत अब, आए लोचन लोच । -विहारी (शब्द॰) । ३ अच्या ढग। ३ ब्राह्मण । ४ पारा [को०)। लोच- लोकेश्वर-सञ्ज्ञा पु० [ ] १ बुद्ध । २ भुवन और जनो का प्रभु । '-सशा पुं० [सं० हच] अभिलाषा । उ.-मोको पर्यो ३ दे० 'लोकपाल' को०)। सोच यज्ञ पूरण को लोच, हिये लिए वाको नाम जिनि गाम तजि जाइए। प्रियादास (शब्द०)। कोकेश्वरात्मजा-मज्ञा स्त्री० [स०] बुद्ध की एक शक्ति का नाम [को०] । लोच-सज्ञा पुं० [ स० लुञ्चन ] जैन साधुगों का अपने सिर के बालों को उखाडना । लु चन। लोकैपणा-संशा स्त्री॰ [सं०] १ सासारिक अभ्युदय की कामना । २ स्वर्ग के सुख की कामना । लोच-सचा पु० [सं० पासू (को०] । यौ०-लोचमर्कट = दे० 'लोचमस्तक । लोकोक्ति-सशा स्री० [स०] १ कहावत । मसल । २ काव्य मे वह अलकार जिसमे किसी लोकोक्ति का प्रयोग करके कुछ लोचक'-सज्ञा पुं० [सं०] १ मूर्वजन | २ अाँख की पुनलो । ३ रोचकता या चमत्वार लाया जाय । काजल । ४ कान का एक गहना । ५ काला या नीला कपडा । ६ प्रत्यचा। धनुप की डोरी। ७ माथे पर पह का एक लोकोत्तर-वि० [सं० ] जो इस लोक मे होनेवाले पदार्थों आदि से गहना। बंदी। मास का लोथडा। मांप की केंचुल। श्रेष्ठ हो । वहुत ही अद्भुत और विलक्षण । अलौकिक । जैसे,- १०. झुरों पड़ी खाल। ११ तनी हुई भौंह। १२ केले का (क) वहाँ एक योगी ने कई लोकोत्तर चमत्कार दिखलाए वृक्ष (को०)। ये। (ख) यह कौन सी लोकोत्तर वस्तु है जिसके लिये तुम लोचक-वि० १ मूर्ख । प्रज्ञ । बुद्धिहीन । २ दूध का आहार करने- इतना अभिमान करते हो। वाला। पयहारी। लोकोपकार--सज्ञा पुं० सं० ] ससार के उपकार का काम । लोचन - सञ्चा पुं० [सं०] १ आँख । नेत्र । नयन । लोकोपकारक-वि० [ '] लोक का उपकार करनेवाला । मुहा०-लोचन भर पाना = मांखों में आंसू डबहवा माना। लोसडी।-सज्ञा स्त्री॰ [ म० लोमश ) दे० 'लोमडो' । आँखें भर माना। 30-यह सुनिकै हलधर तहं घाए । देखि लोखर-नज्ञा पुं० [हिं० लोहा + सह ] १ नाई के प्रौजार । श्याम ऊखल सो बांधे, तवही दोउ लोचन भरि पाए। -सूर जैसे,—छुरा, कची, नहरनी प्रादि । २ लोहारो या वढइया ( शब्द०)। आदि के लाह के मौजार । ३ इन औजारो को रखने का वक्स २ देखना अवलोकने या देखने की क्रिया (फो०) । या पटो। लोचनगोचर'-सक्षा पुं० [ ] दृष्टि में पानवाला दायरा । लोसरिया, लोखरी-सहा सी० [हिं० लोखडी ] दे॰ 'लोखडी' । दृष्टिपथ। लोग-मशा पु० [ स० लोक ] [ सी• लुगाई, लोगाई | जन ! मनुष्य । लोचनगोचर-वि० माखो द्वारा देखने योग्य । उ०-मम लोचनगोचर HO 90