पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५३२

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लिंगक ४२६३ लिंगवेदी - 1 फाम] डा के वशीभूत होकर हमारा अपमान किया, इसमे लिगधारी-वि० [स० लिजयारिन्] चित धारण करनेवाला । तुम्हारी मूर्ति योनि लिंग रूप होगी और तुम्हारा नैवेद्य काई लिगन-सा पु० [मं०] प्रालिंगन । छानी से लगाना (को०] । गहण न करेगा'। पर इस कथा के भवंध में यह ध्यान रखना लिगनाश-मज्ञा पुं० [म० लिङ्गनाण] १ अंरा, जिनमे वस्तु की चाहिए कि पद्मपुराण वैष्णवो का पुराण है। पहचान न हो सके। तिमिर | अपार । २ पापा का एक किमी रामय जगत्कारण के रूप मे देवता या ईश्वर की उपासना जिममे पाँसो के मामने कभी अवेग, कभी लाल पीला प्राधि के लिये लिंग का ग्रहण प्राचीन मिस्र, अरप, यहूद, यूनान और दिखाई पडता है । नीलका नामक रोग । रोम प्रादि देशो मे भी था। प्राचीन यूनानी लिंग को 'फेनस' विशप-सुश्रुत के अनुसार आँस के चौथे पटल मे विनगर होने में कहते थे। यहूदियो मे 'वाल' देवता की प्रतिष्ठा लिंग रूप मे यह रोग होता है । वात, पित्त और कफ के भेद ने यह रोग ही थी। वावुल के सडहरो मे मदिरो के अदर बहुत से लिंग' तीन प्रकार का कहा गया है। निकलते है, जो भारतीयो के शिवलिंग से बिल्कुल मिलते हैं । ३. शिश्न का नाश (को०)। ४ उप चिह्न का न रहना जिसने पर प्राचीन पार्यो मे इस प्रकार की उपासना का पता नहीं कोई वस्तु जानी जाय । परिचायक निशान, लक्षण आदि फा लगता। वैदिक समय मे कुछ अनार्य जातियो मे लिंगपूजा' नाश (को॰) । प्रचलित थी, इसका कुछ अभास वेद के एक मत्र मे मिलता है । उसमे शिश्नदेवा' के प्रति उपेक्षा का भाव प्रकट किया गया लिंगपरिवर्तनमा पुं० [सं० लिङ्गपरिवर्तन] दे० लिंगविपर्यय' । है । पर कब से वह शिव की प्रतिमा के रूप में गृहीत हुआ, लिंगपीठ--मज्ञा पुं० [स० लिङ्गमी०] वह प्राधार जिमपर शिवलिंग इमका ठीक पता नहीं। इसके अतिरिक्त 'मोहनजोदडो' पोर स्थापित होता है । जलहरी । अरघा [को०] । 'हरप्पा' को खोदाई से प्राप्त अवशेपो मे लिंग या उससे मिला लिंगपुराण-सक्षा पु० [म० लिङ्गपुगण] अठारह पुगणो मे मे एक जुलते प्राकार की उपास्य मूर्तियाँ मिली हैं । जिसमे शिव का माहात्म्य और लिंग की पूजा की महिमा ६ व्याकरण मे वह भेद जिममे पुरुष और स्त्री का पता लगता है । वरिणत है। जो-गुल्लिग, स्त्रीलिंग। ७ मीमासा मे छह लक्षण जिनके विशेप-इमको श्लोकसन्या ११,००० है। ब्रह्म हमके मुम्ध अनुसार लिंग का निर्णय होता है । यथा-उपक्रप, उपसहार वक्ता है। इसमे शिव ही ब्रह्मा और विष्णु दोनो के अधिष्ठान अभ्याग, अपूर्वता, अर्थवाद और उपपत्ति । ८ अठारह पुराणो कहे गए हैं । शिव जी ने प्राने मुख मे २८ अवतारी का वर्णन मे पे एक । विणेप दे० 'लिंगपुराण' । ६ जाति । यह दो प्रकार किया है । यह एक साप्रदायिक पुराण है। जिस प्रकार विगु फा होती है-पुरुष तथा स्त्री (को०)। १० वेद'त दर्शन ने अपने उपासक अबरीप राजा की रक्षा की थी, उगी ढंग पर के अनुसार सूक्ष्म शरीर । विशेष दे० लिंगदेह' (को०)। इसमें शिव द्वारा परम शैव दधीचि की रक्षा को कथा लिखी ११ धब्बा । निशान । दाग (को०) । १२ सज्ञा का मूल रूप । गई है। पहले पद्मकल्प की सृष्टि की उत्पत्ति की कथा देकर प्रातिपदेक (को०)। १३ कार्य । विपाक । परिणाम । फल फिर वैवस्वत मन्वतर के राजानो को वशाली श्रीकृष्ण के (को०)। १४ उपाधि (को०)। १५ एक प्रकार का मकेत या समय तक कही गई है । योग और अध्यात्म्य को दृष्टि मे सबब (मयोग, वियोग, माहचर्य प्रादि) जो किमो शब्द के किमी लिंगपूजा का गुह्यार्थ भी बताया गया है । विशिष्ट अर्थ का द्योतन करने मे महायक होता । अर्थद्योतक लिंगप्रतिष्ठा-ज्ञा पी० [म० लिङ्गप्रतिष्ठा] शिवलिंग की स्थापना को०। शक्ति (को०)। १६. प्रमाण। सबूत (को०)। १७ छम चिह्न लिगवर्धन'-वि० [स० लिट गवर्षन) पुरुपेंद्रिय यो उत्तेजित करने. निशान या वेप (को०)। १८ रोग का निदान (को०)। १६ वाला (को०)। ईश्वर का प्रतीक चिह । देवमूर्ति (को॰) । लिंगवर्धन-सज्ञा पुं० कपित्थ । कंथ (को०] | लिगक-सज्ञा स० [ स० लिङ्गक ] कपित्थ वृक्ष । कंथ । लिगवर्विनी-सदा स्त्री॰ [सं० विमपिशी प्रामार्ग । चिचा। लिंगजात्री। -सज्ञा पु० [ म० लिङ्गज्योति ] एक विशेष प्रकार से गढा हुप्रा शिवलिंग । ज्योतिलिंग। लिगव:-वि० [मं० लिट गर्थिन् । • लिंगवर्धन' foto) | लिंगदेह-ससा पुं० [ स० लिङ्गदेह ] वह सूक्ष्म शरीर जो इस स्थून लिगवरितरोग-सहा पुं० [३० लिट गस्ति रोग] निगार्श नामक रोग। गरीर के न होने पर भी मस्कार के कारण कर्मा का फल लिगवान'-सरा पुं० सं० लिड गरत्१ विकासाला । नक्षणपाता। भोगने के लिये जीवात्मा को साय लगा रहता है । (अध्यात्म)। २ जिसमे शन्द के कई लिंग हो। ३ गिवतिग धारण विशप-इगमे ज्ञानेंद्रियो और कमेंद्रियो की सब वृत्तियों रहती है, करनेवाला । जैसे, जगम प्रादि । व वन उगा स्पूल रूप नहीं रहते । इस देह मे सत्रह ताव माने लिगवान् सश पुं० शवो का लिंगायत नामय सप्रदाय । गा है-१० इद्रियां, गन, ५ तन्मान और बुद्धि । उ-लिंग- लिगविपर्यय-मास पुं० [सं० सिट गविपर्वय] १ पान में लिंग देह न को निज गेह। दम द्रिय दासी सो नेह । -सुर पा परिवर्तन । २ मा पापुत्री या सी पुरुष हो (श-द०)। लिगधर-३ [४० लिजधर] जो ग्यल चित धारण किए हो। तिगवेदी 1- मी० [सं० निगः वेदी पिना पाचार । उन- हरी । अरपा (पो जाना। दोगी को।