लच्छण ४२४४ लच्छण'-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० लक्षण ] स्वभाव । (नि.)। उ.-एक वृष्ट, इक मठ, एक दच्छिन । इक अनुकून सुनहि अब लच्छण-सज्ञा पुं० दे० 'लक्षण' । लच्छिन !-नद० प्र०, पृ० १५६ । लच्छन-सज्ञा पुं० [सं० लक्षण ] दे० 'लक्षण' । उ० --(क) लछिनाथ-सज्ञा पुं० [म० लक्ष्मीनाथ] लक्ष्मीपति, विष्णु । (डि०) । नहिं दारद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन लाछनिवास-सज्ञा पुं० [ म० लक्ष्मीनिवास | विष्णु । नारायण । हीना।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) विनु छल विश्वनाथ पद नेहू । उ०-दुलहिनि लेग लच्छिनिवामा। नृप समाज मत्र भयउ राम भक्त कर लच्छन एहू ।- तुलसी (शब्द॰) । (ग) कछु निरासा ।-तुलमा (शब्द०)। देख के लच्छन छोटो बडो सम बात चलें कहि प्रावतु है। - लच्छी-वि॰ [देश०] एक प्रकार का घोडा । उ०-कोइ कबुली अंबोज रघुनाथ (शब्द०)। कोई कच्छी । बोत मेमना मुजी लच्ची । -विश्राम (शब्द॰) । लच्छन-सञ्ज्ञा पुं० [ स० लक्ष्मण ] दे० 'लक्ष्मण' । लन्छी '-सशा गी० [ म० लक्ष्मी, हिं० लच्छमी, लच्छि, लच्छी ] लच्छना'-सञ्ज्ञा स्त्री० सं० लक्षणा ] २० 'लक्षणा'। दे० 'लक्ष्मी'। लच्छना २ फ्रि० स० [सं० लक्ष्य, हिं० लच्छ+ना (प्रत्य॰)] भली- लन्छी'-सज्ञा स्त्री॰ [ हिं० लच्छा ] मूत, रेशम, ऊन, कलावत्तू इत्यादि भौति देखना। उ०-तिनके लच्छन लच्छ अब, आछे कहे की लपेटी हुई गुच्ची । अट्टी। बखानि । -मतिराम (शब्द॰) । लच्छेदार-वि० [हिं० लच्छा + फ़ा० दार (प्रत्य॰) १ (खाद्य लच्छमण'-वि॰ [ स० लक्ष्मीवान् ] धनवान् । अमीर । (डि०) । पदा4) जिममे लच्छे पडे हो। नच्चोवाला। २ ( बातचीत लच्छमण -सज्ञा पुं॰ [ सं० लक्षमण ] ' 'लक्ष्मण' । या इबारत ) जिसका सिलसिला जल्दी न टूटे और जिमके सुनने लच्छमी-सचा स्त्री० [सं० लक्ष्मी ] दे० 'लक्ष्मी' । मे मन लगता हो । मजेदार या श्रुतिमधुर (वात)। उ०-वसी लच्छेदार इमारत काई लिखी नही सकता।-प्रेमघन०, भा० २, लच्छा-सचा पुं० अनु० ] १ कुछ विशेष प्रकार से लगाए हुए वहुत से तारो या डोरों आदि का ममूह । गुच्छे या अप्पे पृ० ४०६) श्रादि के रूप में लगाए हुए तार । जैसे,-रेशम का लच्छा, लछल-सरा पुं० [ म० नक्ष्य ] दे० 'लक्ष्य' । उ०-कोउ कहैं ये सूत का लच्छा। परम धर्म इत्रीजित पूरे। लछ लाघव मधान धरे प्रायुध के यौ०- लच्छे की साडी वनारसी काम को वह साडी जिमके मूरे ।- नद० ग्र०, पृ० १८१ । किनारे प्रादि के तार ताने के साथ ही तने गए हो। लछन-सज्ञा पुं० [सं० लक्ष्मण ] राम के छोटे भाई, लक्ष्मण । २ किसी चीज के सूत की तरह लवे और पतले कटे हुए टुकडे । उ०-दसरथ मो हपि प्रानि कयो। असुरन सो यज्ञ होन न जमे,-प्याज का लच्छा, आदी का लच्छा। ३ इस प्राकार पावत राम तछन तव सग दयो ।—सूर (शब्द॰) । की किसी तरह बनाई हुई कोई चीज । जैसे,—रवडी का लच्छा। लछन-मज्ञा पु० [सं० लक्षण ] दे॰ 'लक्षण' । ५ मैदे की एक प्रकार की मिठाई जो प्राय पतले लवे सूत की लछना-क्रि० प्र० [ स० नक्ष, प्रा० लख लच्छ ] दे० 'लखना' । तरह और देखने मे उलझी हुई डोर के समान होती है । ५ लछमन - सा पुं० [ स० लक्ष्मण ] दे० 'लक्ष्मण' । एक प्रकार का गहना जो तारो की जजीरो का बना होता है। यह हाथो मे पहनने का भी होता है और पैरो में पहनने का लछमन-मशा स्त्री॰ [ स० लक्ष्मणा ] दे० 'लक्ष्मणा'-४ । भी। ६ एक प्रकार का घटिया केसर जो नीवल या निकृष्ट लछमन मूला-रशा पुं० [हिं० लछमन + झूला ] १ बदरीनारायण श्रेणी के केसर मे थोदा सा बढ़िया केसर मिलाकर बनाया के मार्ग मे एक स्थान । जता है। विशेप---यहाँ पहले पुरानी चाल का रस्मो का एक लटकींवा पुल लच्छा साख-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की मकर रागिनी। था, जिसे भूना कहते थे। लच्छि'-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सं० लक्ष्मी, प्रा० लच्छमी ] लक्ष्मी । उ० -- २ रस्सो या तारो प्रादि से बना हुप्रा वह पुल जो बीच मे झूले (क) एहि बिधि उपजइ लच्छि जव सुदरता सुस मूल ।-तुलसी की तरह नीचे लटकता हो। ३ एक प्रकार की लता या वेल । (शब्द०)। (ख) वसइ नगर जेहि लच्छि करि कपट नारि वर -० लछमना ] दे० 'लक्ष्मणा' । उ.-बहुरि वेप ।—तुलसी (शब्द०)। (ग) माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लछमना सुमिरन कीन्हो। ताहि स्वयंवर मे हरि लीन्हो ।- लच्छि मलाच्छ रक अवनीसा ।—तुलसी (शब्द॰) । सूर (शब्द०)। लच्छि-सच्चा पुं० [ सं० लक्ष ] लाख की संख्या । लछमी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० लक्ष्मी ] दे० 'लक्ष्मी' ।। लच्छित-वि० [ स० लक्षित ] १ पालोचित । देखा हुआ । २ लछारा-वि० [ 'अनु० लच्छा+रा (प्रत्य॰)] लच्छा । शृंखला । निशान किया हुआ । अकित । चिह्नित । ३ लक्षणयुक्त । गुच्छा । उ०--कैसे छबिदार काकपच्छ मे संवारे कहिए जैसे लक्षणवाला । उ०-शुभ लच्छन लच्छित हय सोई । तुरंग साल यह राजत सुगध के लछारे हैं।-पजनेस०, पृ० ४१ । देखिय जो होई । -मधुसूदन (शब्द०)। लछिमी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० लक्ष्मी | दे० 'लक्ष्मी' । लच्छिन-सञ्ज्ञा पुं० [सं० लक्षण, हि० लच्छन ] दे॰ 'लक्षण'। लज-सच्चा सी० [सं० लजा ] शर्म । ह्या । लाज । उ०-सुघर लछमना-सशा स्त्री॰ [
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४८३
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