मरुद् ३८०५ । मरेठी 10 स० सर, सरित, क्षार निस्मीम जलध का जल है । ज्ञानघूणि पर कहते हैं । २ मरुया । नागदौना। ३ तिल का पौधा । ४ चढा मनुज को मार रहा मरुथल है। -नील०, पृ० ८४ । व्याघ्र । बाघ । ५ राहु । मरुद्-मज्ञा पुं॰ [ स० ] 'मरुत्' का समासगत रूप को॰] । मरुवट-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'मरवट' । उ०—मोर बध्यो मरुदादोल-सज्ञा पुं० [ स० | १ धौकनी। २ प्राचीन काल की सिर कानन कुडल मरुवट मुखहि मुभाएं ।-नद० ग्र०, एक प्रकार की धौंकनी जो हरिन या भैस के चमडे से पृ० ३४६ । बनती थी। मरुवा-सज्ञा पुं॰ [ स० मरुवक ] दे० 'मरुग्रा'। उ०—सुभग सेज मरुदिष्ट-सञ्ज्ञा पु० [ स० नद० ग्र०, ] गुग्गुल । गूगुल । पटुली मुख बाढयो मरुवा वेलिन प्राची कोरै । पृ० ३७६ । मरुदेव-सञ्ज्ञा पुं० [ म० ] ऋषभदेव के पिता का नाम । मरुसभव-सज्ञा पु० [ स० मरुसम्भव ] एक प्रकार की छोटी मूली। मरुद्गण-सज्ञा पुं० [ म० ] देवगण जो पुराणो मे ४६ माने जाते हैं। विशेप दे० 'मरुत्-१' । मरुसभवा- सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ म० मरुसम्भवा ] १ महेद्रवारुणी। २ एक प्रकार का खैर जिसका पेड बहुत छोटा होता है। ३. मरुद्रथ-सज्ञा पु० [ स० ] १ घोडा । २ वह यान जिसमे दव छोटा चमास । क्षुद्र जवास । ४ एक प्रकार का कनेर । मूर्तियां रखकर घुमाई जाती हैं । देवयान [को०) । मरुसा-मञ्चा पु० [हिं० ] दे० 'मरसा'। मरुद्वम- -~सज्ञा पुं॰ [ ] आकाश। मरुस्थल - सझा पुं० [ म० ] बालू का मैदान जिसमे निर्जल होने के मरुद्वधा-सज्ञा स्त्री॰ [ म० ] पजाब की एक नदी का वैदिक नाम । कारण कोई वृक्ष या वनस्पति न उगती हो। मरुभूमि । मरुद्वाह-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ धूंगा । २. आग । रेगिस्तान । उ०-नवकोटि मरुस्थल वीर बर । दश अठ्ठ मरुद्विप-सबा पुं० [ स० ] ऊँट । सुअर्बुद राज धर ।—पृ० रा०, १२।४३। मरुद्वीप-सबा पुं० [सं० ] वर उपजाऊ और सजल हरा भरा मरुस्था-सञ्ज्ञा सी० [ स० ] छोटा नमास । स्थान चो मरुस्थल में हो । प्रोसिस । मरू-वि० [ स० मेस या हिं० मरना ] कठिन । दुरूह । मरुद्वेग-सन्ना पु० [ ] एक दैत्य का नाम । मुहा०-मरू करि के या मरू करि = कठिनाई से। ज्यो त्यो करके। बहुत मुश्किल से। उ०—(क) ता कहें तो अब लो मरुधन्वा-महा पु० [ स० मरुधन्वन् ] १ मरुस्थल । निर्जल प्रदेश । २ इदीवर नामक विद्याभर के पुत्र का नाम । बहराइ कै राखी वसाई मरू करि मै है। - केशव (मन्द०) । (ख) देह में नेक संभार रह्यो न यहाँ लगि भाजि मरू करि मरुधर-सन्ना पुं० [सं०] १ मारवाठ देश । उ०—प्यासे दुपहर भाई। -मति० ग्र०, पृ० २८ । (ग) अंसुश्रा ठहरात गरौ जेठ के थके सबै बल सोधि । मरुवर पाय मतीरहू मारू कहत घहरात मरू करि प्राधिक बात कही।-देव (अन्द०)। (घ) पयोधि । -विहारी (शब्द०)। २ मरुभूमि । मरुस्थल । द्यौस तो बीत्यो मरु करिके एब पाई है राति मो कसे घौ मरुन्माला-सबा पु० [ ] पृक्का नाम की लता । असवर्ग । बीतिहै। -(शब्द०)। मरुभूमि'- ] बालू का निर्जल मैदान जहाँ कोई वृक्ष मरूक-सा पु० [ म०] १ एक प्रकार का मृग । २ मयूर । या वनस्पति मादि न उगती हो। रेगिस्तान । मोर । ३ मेढक (को०)। मरुभूमि-सझा पुं० [ स० ] करील का पेड । मरूद्भवा- सज्ञा स्त्री० [सं०] १. जवास । २ कपास। मरुमरीचिका-सज्ञा स्त्री० [सं० मरु+मरीचिका ] दे० 'मृगतृष्णा' । प्रकार का खैर। उ०—भारी मरुमरीचिका की सी ताक रही उदास आकाश । मरूर-सञ्ज्ञा पु० [सं० ] गोरचकरा। -अपरा, पृ० १०८ । मरूर-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मरोड़ ] पीडा । उ० - भरति मरूरनि मरुर-मज्ञा पु० [ स० मूर्वा ] गोरचकरा । विमूरनि उदेग बढि चित चरपटी मति चिंता पागिए रहै।- मरुरना-क्रि० अ० [हिं० मरोरना ] 'मरोरना' का अकर्मक रूप । घनानद, पृ० ५८७ । २ दे० 'मस्रा' । ऐंठना। बल खाना। उ० - (क) तीखी दीठ तूख सी पतूख मरूर'-वि० ऐंठवाला। वली। उ० – जुरे रजपुत्त मरद्द मरूर । सी अहरि अग अख सी मरुरि मुख लागति महूरब सी।-देव -प० रासो, पृ०४१ । (शब्द०)। (ख) मरुरत अगन अमर रतरग केश मरुरत नाथ मरूरापु-सज्ञा पुं० [हिं० मरोद ] ऐंठन । वल । मरोड । देव जीति के जगत है। -देव (शब्द०)। मुहा०-मरूरा देना= बल देना। मरोडना। उमेठना। उ०—मुख मरुल-सञ्ज्ञा पु० [स० ] जगली बत्तक की एक जाति का नाम । के पवन परस्पर मुखवत गहे पानि पिय जूरो। बूझति जानि कारडव । मन्मथ चिनगी फिर मानो दिया मरूरो।-सूर (शब्द०)। मरुव-सज्ञा पु० [ ] १ मरुमा। २ राहु (को०)। मरूल- सज्ञा पु० [ म० मूर्वा ] गोरचकरा । मरूर । मरुवक---सज्ञा पुं॰ [ स० ] १ एक कंटीले पेड का नाम जिसे मैनी मरेठी'-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मलना + ऐंठना ] वह रस्मी जिमसे हेगा स HO -सज्ञा स्त्री॰ [ ३ एक
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