रूपकार ४१६६ रूपवती' HO BO रूपकार-सज्ञा पुं० [सं०1 दे० 'रूपकर्ता'। रूपकृत्-सज्ञा पुं० [ ] १ देवतायो के स्थपति । त्वष्टा । विश्व- कर्मा । २ मूर्तिकार | शिल्पी (को॰) । रूपक्राता-सज्ञा स्त्री० [सं० रूपक्रान्ता ] सत्रह अक्षरो की एक वर्ण वृत्ति का नाम जिसके प्रत्येक चरण मे जगण, रगण, जगण, रगण, जगण और अत मे एक गुरु और एक लघु मात्रा होती है। उ०-अशेप पुण्य पाप के कलाप आपने बहाइ । विदेह राज ज्यो सदेह भक्त राम के कहाइ । लहै सुभुक्त लोक लोक अत मुक्त होहि ताहि । कहै सुनै पढे गुन जो रामचंद्र चद्रि- काहि । -केशव (शब्द०)। रूपगरविता-सज्ञ) सी० [ स० रूपगर्विता] दे० 'रूपगविता' । उ०-जाके अपने रूप को, अतिही होय गुमान । रूपगरबिता कहत हैं, तासी परम मुजान ।मति० य०, पृ० २६३ । रूपगविता- सज्ञा स्त्री॰ [म०] गर्विता नायिका का एक भेद । वह नायिका जिसे अपने रूप या सुदरता का अभिमान हो । उ०-ये अग दीपित पुज भरे निनकी उपमा छनजोन्ह सो दीजत । पारसी की छवि त्यो द्विजदेव सुगोल कपोल समान कहीजत । च तुर स्याम कहाय कहो, उर अतर लाज कळूक तो लीजत । रागमयी अघराघर की सगता कसे के प्रवाल सो कीजत ।-द्विजदेव (शब्द०)। रूपग्रह-सज्ञा पुं० [सं०] चक्षु । नेत्र (को॰] । रूपमाही-सज्ञा पुं० [सं० रुपग्राहिन् ] अाँख । नेत्र । रूघनाक्षरी-सज्ञा स्त्री० [ स० ] एक प्रकार का दडक छद । विशेप- इसके प्रत्येक चरण मे बत्तीस वर्ण होते है। इसके अत मे लघु तथा पाठ पाठ व पर विश्राम होना श्रावाया है। रूपघात-सञ्ज्ञा पु० [स०] को,टल्य के अनुसार सूरत बिगाडना । कुरूप करने का अपराध । रूपचतुर्दशी -सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी । विशप-यह दीपमालिका के एक दिन पहले होती है। इसे नरक चतुर्दशी भी कहते हैं। इस दिन लोग शरीर मे उबटन आदि लगाते हैं। रूपजीविनी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] वेश्या । रही। रूपजीवी-सज्ञा पुं० [सं० रूपजीविन् ] नट । बहुरूपिया । रूपण-सज्ञा पुं० [सं०] १ अारोपण । प्रारोप करना । २ प्रमाण । ३ परराक्षा। रूपता-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ रूप का भाव या धर्म । २ सौंदर्य । खूबसूरती। रूपदर्शक-सज्ञा पुं० [०] १ प्राचीन काल का सिक्को का निरी- क्षण करनेवाला राज कर्मचारी । २ सराफ । (को०)। रूपधर'-वि० [सं० ] सुदर । खूबसूरत । रूपचर - सशा पु० किसी का रूप धारण करनेवाला । अभिनेता [को०। रूपधारा-वि०, मचा . [ म० रूपधारिन् । दे० 'रूपधर' [को०] । ८-५४ रूपनाशक रूपनाशन-सज्ञा पु० [ स० ] उल्लू। रूपपति-सज्ञा पुं० [ ] त्वष्टा । विश्वकर्मा। रूपपरिकल्पना--सज्ञा स्त्री॰ [ स० ) किसी रूप का अनुकरण करना । वेश वदलना । कोई अन्य रूप धारण करना (को०] । रूपमजरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० रूपमञ्जरी] १ एक प्रकार का फूल । उ० - सोनजरद बहु फुती सेवतो । रूपमजरी और मालती।- जायसी (शब्द॰) । २. एक प्रकार का धान । उ०-राजहस और हसी भोगे। रूपमजरी ो गुनगौरी ।-जायसी ( शब्द०)। रूपमनी@-वि० [हिं० रूपमान ] रूपवती । उ०-तेहि गोहन सिंहल पद्मिनी। इक सो एक चाहि रूपमनी । - जायसी ( शब्द०)। रूपमय-वि० [हिं० रूप+ मय] [वि॰ स्त्री० रूपमयो] अति सुदर । वहुत खूबसूरत । उ०—(क) नील निचाल छाल भइ फनि मनि भूपन रोम रोम पट उदित रूपमय ।-पूर (शब्द॰) । (ख) मो मन मोहन को सवही मिलिक मुसकानि दिखाय दई । वह मोहनी मूरति रूपमयी सबही चितई तब ही चितई । उनतो अपन अपने घर की रसखानि भली विधि राह लई। कछु माहिं को पाप पर्यो पल मे पग पावत पौ रे पहार भई ।-रसखानि (शब्द०)। रूपमान-वि० [स० रूपवान्] [लो० रूपमनी] सुदर । मनोहर । रूपमाला-सज्ञा स्त्री० [हिं० रूप+माला] एक मात्रिक छद का नाम जिसके प्रत्येक चरण मे १४ और १० के विश्राम से २४ मात्राएं और एक गुरु एक लघु हाता है। इसको मदन भी कहते हैं। उ.-रावर मुख के बिलोकत ही भए दुख दूरि । सुप्रलाप नहो रहे उर मध्य प्रानंद पूरि । देह पावन हो गयो पदपद्म को पय पाइ। पूजत भयो वश पूजित प्राशु हा मनुराइ ।-कशव (शब्द०)। रूपमाली-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक छद का नाम जिमके प्रत्येक चरण में तीन मगरण या नौ दीघ वर्ण होते हैं। उ०-प्रग वगा कालिगा काशा । गगा सिंधू सगामा वासी । -(शब्द॰) । रूपया-सचा पु० 1 स० दे० 'रुपया'। रूपरूपक-सञ्ज्ञा पुं० [ स० रूप+ रूप ] रूपक अलकार का एक भेद । केशन के अनुसार रूपकालकार के 'सावयव रूपक' भेद का एक नाम। रूपवत-वि॰ [ मं० रूपवत् या रूपवान् का बहु व०] [वि॰ स्त्री० रूपवती ] जिसमे सौदर्य हा। खूबसूरत । रूपवान । सुदर । उ०—(क) तापसी को वेष किए राम रूपवत किधों मुक्ति फल दोऊ टूटे पुण्य फल डारि ते ।-हनुमन्नाटक (शब्द॰) । (ख) साइ सुआ विचित्र प्रति बानी बदत विचित्र । रूपत्रत गुण आगरे राम नाम सो चित्र |--गिरधर (शब्द॰) । रूपवती' -सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] १. केशव के अनुसार एक छद का नाम । इमे छदप्रभाकर मे गौरी लिखा है। उ०-कीज न विडवन सतत सीते। भावी न मिट मुकहू जग गीते । तू पति देवनि की
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४४०
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