पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४३८

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रूठ ४१६७ रूदाद-सज्ञा स्त्री० रूठ-सज्ञा सी० [ स० रुष्टि, प्रा० ट्ठि ] १ रूठने की क्रिया या जो प्रचलित चली पाती हो और जिसका व्यवहार प्रसिद्ध से भाव । २ क्रोध । कोप। भिन्न अभिप्रायव्यजना के लिये न हो। प्रयोजनवती लक्षणा रूठडा वि० [हिं० रूठ+डा (प्रत्य॰)] रुष्ट । नाराज । अप्रसन्न । का उलटा। उ.- कबीर हरि का भांवता, दूरै थे दीसत । तन गण मन रूढ़ि सज्ञा सी० [सं० रूढि ] १. चढाई । चढाव । २ वृद्धि । बढ़ती । उनमनों जग रूठडां फिरत ।-कबीर ग्र०, पृ० ५१ । ३ उभार। उठान । ४ उत्पत्ति । जन्म । प्रादुर्भाव । ५ रूठन- सज्ञा स्त्री० [हिं० रूठना] रूठने की क्रिया या भाव । नाराजगी। ख्याति । प्रसिद्धि । ६ प्रथा । चाल । रीति । ७ विचार । रूठना-क्रि०अ० [सं० रुष्ट, प्रा० रुट्ठ+ हिं० ना (प्रत्य॰)] किसी निश्चय । उ०-प्रौढ रूहि के सो मूढ गूढ गेह मे गयो। सूक्त से अप्रसन्न होकर कुछ समय के लिये सवध छोडना । नाराज मत्र सोचि सोधि होम को जही भयो। - केशव (शब्द०)। ८ होना । स्सना । उ०—(क) कवीर ते नर अध हैं गुरु को कहते रूढ शब्द की शक्ति जिससे वह यौगिक न होने पर भी अपने अर्थ का बोध कराता है। और । हरि के रठे ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर ।-कबीर (शब्द०)। (ख, उनटि दृष्टि माया मो रूठी। पलट न फेरि जान के रूढिवादी-वि० [ स० रूढि + वादिन् ] पुराने रीति रिवाज या परंपरा झूठी-जायसी (शब्द०)। (ग) जेहि कृत कपट कनक मृग प्रादि को ज्यो का त्यो स्वीकार करनेवाला। झूठा । अजहुँ सो देव मोहि पर रूठा ।—तुलसी (शब्द॰) । रूत्त-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ऋतु ] दे० 'ऋतु'। उ०—विना नीर जहं (घ) ठिचे को तूब्बेि को मृदु मुसुकाइ के बिलोकिवे को भेद कळू कमल है बिन बरषा वरमाल । बिना मास बिन रुत्त है मात कह्यो न परतु है ।-केशव (शब्द॰) । पिता विन वाल ।-राम० धर्म०, पृ० ६१ । संयो॰ क्रि०-जाना ।-पडना ।—बैठना । रूदना-क्रि० स० [हिं० रौंदना ] रोद देना या तहस नहस रूठनिपुर-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'ल्ठन' । उ०-भजनि, मिलनि, करना । ध्वस्त करना । उ०--सुदन समथ्थ अरि रुदन की पथ्थ रूठनि, तूठनि, किलकनि अवलोकनि, बोलनि बरनि न जाई ।- सम कीरति अकथ्य रत्नाकर लो भू जाकी ।-सुजान० तुलसी (शब्द०)। पृ० २४॥ रूड-सञ्ज्ञा पुं० [अ० ] लबाई या विस्तार नापने का एक मान जो फा० रूएदाद ] १ समाचार । वृत्तात | हाल । ५ गज का होता है। २ दशा । अवस्था। हालत । ३ विवरण। कैफियत । ४. रूड़, रूड़ो-वि० [हिं० रूरा, (डि.)] [वि॰ स्त्री० रूडी ] श्रेष्ठ । व्यवस्था। ४ अदालत को काररवाई। कार्यक्रम । ६ मुकदमे का रग ढग । जैसे,—इस मुकदमे की रूदाद अच्छी नही जान उत्तम । उ०-~भाइरे तेन्ही रूडो थाए। जे गुरु मुख मारगि पडती। जाए।-दादू (शब्द०)। रूप-सञ्ज्ञा पुं० [म. ] १ किसी पदार्थ का वह गुण जिसका बोध रूढ़-वि० सं० रूढ ] [ वि० स्त्री० रूढा ] १ चढा हुा । प्रारूढ़ । द्रष्टा को चक्षुरिदिय द्वारा होता है। पदार्थ के वर्णों और २ उत्पन्न । जात । ३ प्रसिद्ध । ख्यात । प्रचलित | जैसे- आकृति का योग जिसका ज्ञान आँखो को होता है। शकल । इसका रूढ़ अर्थ यही है। ५ गवार । उजड्ड । उ०-और सूरत । श्राकार। गूढ कहा कहीं मूढ हो जू जान जाहु प्रौढ रूढ केशवदास नीके विशेप-पदार्थों में एक शक्ति रहती है, जिससे उनका तेज इस करि जाने हो।-केशव (शब्द०) । ५ कठोर । कठिन । उ०- प्रकार विकृत होता है कि जब वह प्रांखो पर लगता है, तब चाकी चली गोपाल की सब जग पीसा झारि । रूढा शब्द कबीर द्रष्टा को उस पदार्थ की आकृति, वर्णादि का ज्ञान होता है। का डारा चाक उखारि ।- कबीर (शब्द०)। ६ अकेला । इस शक्ति को भी रूप ही कहते हैं। दर्शन शास्त्रो मे रूप को अविभाज्य । जैसे,-रूढ़ सस्या। ७ फल, तरकारी आदि का चक्षुरिंद्रिय का विषय माना है। वैशेषिक दर्शन मे यह गुण कहा हो जाना। माना गया है। साख्य ने इसे पचतन्मात्रामो मे एक तन्मात्रा रूढ-सञ्ज्ञा पुं० अनुसार शब्द का वह भेद जो दो शब्दो या शब्द माना है। बौद्ध दर्शन मे इमे पान स्कधो मे पहला स्कध कहा और प्रत्यय के योग से बना हो तथा जिसके खंड सार्थ न है । महाभारत मे सोलह प्रकार के गुण ( ह्रस्व, दीर्घ, स्थूल, हों। यह यौगिक का उलटा है। रुढि । जैसे,—कुब्जा, घोडा चतुरन, वृत्त, शुक्ल, कृष्ण, नीलारुण, रक्त, पीत, कठिन, इत्यादि। विष्ण, पलक्ष्ण, पिच्छल, मृदु और दारुण ) रूप के भेद या रूढता-सशा स्त्री॰ [ स० समता या रूढ +ता (प्रत्य॰)] कठोरता। प्रकार माने गए है। वेदात दर्शन ने इसको एक प्रकार की उ० सोचने लगा, ऐसी स्थिति मे क्या किया जाय ? इन्कार उपाधि माना है और अविद्याजनित लिखा है। करने से रूढता सिद्ध होगी, यह भी जानता था। इसके पहले यौ०-रूपरेखा=आकार । शकल । यथेष्ट अशिष्टता हो चुकी थी।- सन्यासी, पृ० ११ । २ स्वभाव । प्रकृति । ३ सौंदर्य । सुदरता। उ०-मुनि मन रूढयौवना-मज्ञा स्त्री० [सं० रूढयौवना ] दे० 'पारूढयौवना' । हरप रूप अति मोरे । मोहिं तजि आनहिं चरहि न भोरे । रूढ़ा-सज्ञा स्त्री॰ [स० रूढा ] एक प्रकार की लक्षणा। वह लक्षणा -तुलसी (शब्द॰) । 1