सक्ष खड'-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० रूख +डे (प्रत्य॰)] दे० 'रूख' । और चिकनी होती हैं । डेढ या डोडे से फूटकर बाहर निकलने रुंगटा-सज्ञा पुं० [हिं० रोगटा ] दे० 'रोगटा'। पर रूई इकट्टी को जातो है । इसके बाद सुख जाने पर लोग इसे प्रोटनी मे श्रोटकर वोजो से अलग कर लेते हैं। प्रोटी हुई रुंगटाली-मज्ञा सी० [हिं॰ रँगटा+वाती (= पाली मेंड। रूई धुनी जाती है जिससे उसमें जो बचे खुचे वीज रहते हैं, गाडर। अलग हो जाते है और उसके रेशे फूट कर खुल जाते हैं। इस रुंगाा-संशा पुं० [ स० रुक (= उदारता) ] घेलुमा । घाल। रूई से पंडरी या पूनी बनाई जाती है, जिससे सूत काता जाता लगा। है । धुनी हुई रूई गद्दे श्रादि मे भरा जाती है, और उमसे सूत लंदना-फ्रि० स० [हिं० रौंदना ] दे० रौदना'। उ०-माटी कातकर कपडे वुनते है। इसका प्रयोग रासायनिक रीति से कहै कुम्हार को तू क्या रूदै मोहि । इक दिन ऐसा होगा बारूद बनाने में भी होता है। ई को शोरे के तेजाब मे गलाते मैं रूंदू गी तोहि । -कविता को०, भा० १, पृ० ३२ । हैं, जिससे यह अत्यत विस्फाटक हो जाता है। इसे गन काटन' स्थना-क्रि० स० [हिं० रौंदना ] दे॰ 'रौंदना' । उ०-जैसे कमल कहते हैं और उत्तम बारुद मे इसका प्रयोग होता है। इस वन को रूथकर मतवाला हाथी आता हो तैसे रणवीर सिंह 'गन काटन' को ईथर या ईयर मिले हुए अलकोहल मे मिलाने इस समय रणभूमि से इस तरफ चले आते है ।-श्रीनिवास से एक प्रकार का लेस बनता है । इस लेस को 'कलाडीन' कहते ग्र०, पृ० १२८ । हैं । यह घाव पर तुरत लगाए जाने पर झिल्ली की तरह रूँघ- वि० [सं० रद्ध रुका हुआ। अवरुद्ध । उ०-बाढत तो उर सूखकर उसे जोड देता है। कलोडीन मे थोडी सी मात्रा ब्रोमाइड और प्रायोडाइड को मिलाकर शीशे पर लगाकर फोटो भर भर तरुनई विकास । बोझनि सौतनि के हिए पाघतु रुच उसास -विहारी ( शब्द०)। के लिये गीला 'प्लेट' बनाया जाता है। हिंदुस्तान मे रूई के कपडे का प्रचार वैदिक काल से चला पाता है। ब्राह्मण और रूँधना-क्रि० स० [ स० रुन्धन ] १ किसी स्थान या वस्तु को वाहर- गृह्य सूत्रो मे तो इसके यज्ञोपवीत और वस्त्र का विधान वर्णभेद वालो के प्राक्रमण से बचाने के लिये उसके चारो ओर फैटीले से स्पष्ट देखा जाता है, पर युरोप मे इसके कपडे का प्रचार कुछ झाड आदि लगाना। कंटीले झाड यादि से घेरना। बाढ़ ही शताब्दियो से हुआ है। मून के लिये उत्तम रूई वही समझो लगाना । उ०-जर तुम्हार चह सवति उखारी। रूंबहु करि जाती है, जिसके रेशे लवे और दृढ होने पर भी पतले और उपाउ वर बारी।-तुलसा (शब्द०)।२ किसी पदार्थ को चारो चमकीले होते है। ओर से इस प्रकार पेरना कि वह बाहर न जा सके। रोकना । छेकना । जैसे,-गाय स्वना। ३ गमनागमन का मार्ग वद क्रि० प्र०-तूमना ।-धुनना ।-घुनकना । करना । जसे,-राह धना, द्वार रूपना आदि । उ०-बबुर पर्या-तूल । पिचु । वहेरे को वबाइ बाँग लाइयत रूधिबे को सोळ सुरतरु काटियतु मुहा०-रूई का गाला = रूई के गाले की तरह कोमल या सफेद । है।-तुलसी (शब्द०)। रूई की तरह तूम डालना = (१) अच्छी तरह नोचना । (२) वेहोल-सज्ञा स्त्री० [हिं० रोयॉ का सी० रोई ] रोम । लोम । बहुत मारना पीटना । (३) गालियां देना, बखानना । (8) रोगां। उ०-वे ब्रह्मा विष्णु महेश प्रल मैं ।जसदी पुस न अच्छी तरह छ,न बीन करना। रूई की तरह धुनना = खूब ही।-सुदर० ग्र०, भा० १, पृ० २७६ । मारना । अच्छा तरह पीटना । रूई सा= रुई की भात नरम । कोमल । जैस,-रूइ से हाथ पांव अपनी रूई रू-सा पुं० [फा०] १. मुह । चेहरा । २. द्वार । सबब । ३ प्राशा । सूत झना या लिपटना = अपन काम काज में फसना। उम्मेद । ४ कारी भाग । सिरा । ५. भागा। सामना । २ इसा प्रकार का कोई राया। विशेषत. बीजो के ऊपर यो०-रुपुश्त = बाहर भीतर। आगे पीछे। दोनो पार । का सेयों। रुरियायत=(१) पक्षपात । (२) मुरोवत । शील सकोच । मुहा०-रू से = अनुमार । जैसे,—-ईमान को रू से तुम्हों वतलाश्रो रूईदार-वि० [हिं० रूई + फा० दार (प्रत्य॰)] जिसम रूई भरी गई हा । जसे, रूईदार अगा, रूईदार बहा । कि क्या बात है। रूई-सज्ञा स्त्री० [सं० रोम, प्रा. रोर्च, हि० रोवा, रोई | १ कपास के रूक'-सञ्चा जी० [सं० रूक्षा ] तलवार । (हिं०) । डोरे या कोश क अदर का घुप्रा । उ०-हार हार कहत पाप रूक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रुक (= उदार) भूगा। घलुग्रा । घाल । पुनि जाई। पवन लागि ज्या रुई उडाई । —सूर (शब्द०)। रूक-सज्ञा पु० [ स० वृक्ष, प्रा० रुक्ख हिं० रूस ] एक प्रकार का पेड जिसका पात्तयां प्रापाघ क रूप म काम आती ह और पचपानडी विशेष—यह डोडा पककर चिटकने पर ऊन के लच्चे की तरह क साथ मिलकर बिकता है। वाहर निकलता है। इसके रेशे कोमल और धुंघराले होते है, जो बीज के ऊपर चारो ओर लगे होते है, और जिनके अंदर रूक्ष'-वि॰ [ स०] [वि० सी० रूक्षा ] जो चिकना या कामल न वीज लिपटे रहते है । मोटी और बारीक के भेद से रूई अनेक हो। रूसा। स्निग्ध का उलटा । द० 'क्ष'। प्रकार की हाती है। कितनो रूइयों तो रेशम को भांति कोमल यौ०-रूदगध, रूखगधक = (१) गुग्गुन । (२) गुग्गुल का वृद। 1 मैंठल-
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४३६
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