राजसूयिक ४१२६ राजी ऋत्विज् लोग एक ऊंचे मच पर व्याघ्रचर्म विछाकर और उमपर राजहस्ती-मजा पुं० [सं० राजतिन्] ' राजा मी मागे या हायो । सिंहासन रखकर राजा को अभिषेक कराकर बैठाते हैं और २ गुदर और श्रेष्ठ हाथी कि । चारो ओर से उमे घेरकर प्रशस्ति सुनाते हैं । फिर राजा उन्हे गजहार मग पुं० [स०] वह एप का बना में गोमा ताना है। दक्षिणा देकर दिग्विजय के लिये प्रस्थान करता है, और उसके राजहासक-पु. [-०] - err' । लौटने पर फिर उसे मच पर बैठाकर प्रशस्निगान होता है। गजहा-क- राशा पु० मं० राजदाना प्रभारी मदली जिसे तदनतर सभा मे द्यूतक्रोडा हाती है, और अंत यो मौतमणी कतना रिते। याग के बाद कृत्य समाप्त होता है। प्राचीन काल में केवल बडे राजागण--मझ jo [मर राजाप १ गनीय न्यायालय । २ बडे राजा ही यह यज्ञ करते हैं। २ एक प्रकार का कमल (को०) । ३. एक पहाड (को॰) । राजप्रासाद का नाम [यो । राजसूयक-वि० [स०] राजगूय यज्ञ सबंधी । राजा-गा पुं० [म० गजन्] [ी रानी, • गनी] १. किसी देश, जाति या जन्येका प्रधान माना जा देग, नाति या जत्य राजसूयी-सज्ञा पुं० [म० राजनयिन्] राजसूय यज्ञ करनवाला । को नियम से चलाना, उनी शाति गा तथा उगकी पौर पुराहित । उसके स्वत्दा को, पूमो के प्रारमण मे, रक्षा परता है। राजसूयेष्टिक-सश सो० [सं०] गजसूय यज्ञ । वारगाह । अधिगज । प्रभु। राजस्कध-सहा पु० [सं० राजस्कन्ध घोग । विशेप-महाभारत में पता चमार ति पह। मनुप्या में न तो राजस्तव-सज्ञा पु० [सं० राजस्तम्प, [वि० राजराचायन, राजस्तवि] लाई शाक या पोर न दायर TT धर्मपूर्वर निल एक ऋपि का नाम । जुलार रने थे और प्रापग मे ॥ दूसपी रक्षा करते थे। राजस्थलक-मचा पु० [म०] एक प्राचीन स्था7 का नाम । राप्रा उन्ह न ता की नन नी पावसाता होती राजस्थली-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम । यो पोर न शानक की। पर या गुन्यान्मा यात दिना तान राजस्थान-सज्ञा पु० [सं०] राजपूताना । विशेप २० 'राजपूताना' । रह सकी। लोगो कृति में विकार उन्न हो गया, जिम व पर्तव्यान में पिपिन होगा। उनम महानुभूति न रही राजस्थानिक-संशा पुं० [सं०] १ एक उच्च राजकीय पद । २. उस पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति । वाइमराय । हाकिम । और लोन, मोह आदि गुजारनामा ने उन्ह घेर लिया । नय नाग विषय पारना में प्रस्त हो गए और वैदिक कमरा विशेप--गुप्तो के समय में इस शब्द का पिशप प्रचार था। यह का लोप हो गया । इससे स्वाम देवता परराए और दोठे हुए पद बहुत ही उच्च हाता था। इसका स्थान राजा के बाद और ब्रह्मा जी के पास पहुगे। गाजा ने उन्ट पाश्वासन दिया और प्रधान अमात्य के ऊपर था। प्राय इन पद पर युवराज या मनुष्या की गायनन्या के लिये एक लास अध्याया का राजवश के लोग ही नियुक्त होते थे । एरु वृहर ग र बनाया। देवता लोग जम ग्रघ को लेकर विगु राजस्थानीय–स पुं० [सं० राजस्थानिक] ८० 'राजस्पानिक' । के पान पहुचे और उनसे प्रार्थना की कि पाप किनी ते राजस्व-सज्ञा पु० [स०] १ भूमि आदि का यह कर जो राजा को पुरप को पारा दीजिए, जो गनुप्यो फो इस शातानुसार दिया जाय । राजधन । २ मिमी राजा या राज्य को वापिक नलावे । विप्णु भगवान ने उस शारा के अनुसार गागन करने प्राय जो मालगुजारी, श्रावकारी, इनकम टैक्स, कस्टम्म ड्य टी के लिये राजा की ताट को। किमी किती पुराण आदि करो से होती हो । प्रामदेमुल्क । मालगुजारी । के अनुसार वैवस्वत गनु पार किमी के पनुतार फर्दम- यौ०-राजस्वमत्री = भूमि आदि के करो से सबध रखनेवाले जी के पुत्र अग मनु यो के पहले राजा हुए। पूर्व काल में विभाग का मत्री। मनुप्यो की इतनी अधिकता न थी और न उकी इसनी राजस्वर्ण- -सञ्ज्ञा पु० [सं०] राजधुस्तूरक । राजधतूरा । घनी वस्तिया थी। एक कुल मे उत्तन लोगो को सत्या बन्ने राजस्वामी-सञ्ज्ञा पुं० [स० राजस्वामिन् ] विप्रा । वढते बहुत से जत्ये बन गए , जो अपने गुरु के सवत्ते धेष्ठ या वृद्ध के शासन मे रहते थे। वह शासक प्रजापति कहलाता राजहस-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री॰ राजहसो] १ एक प्रकार का हस था और शेप लोग प्रजा अर्थात् पुन । वेदो मे भरन, जमदग्नि, जिसे सोना पक्षी भी कहते है। कुशिक श्रादि जातिया के नाम पाए हैं, जिनके पृथक् पृथक् विशेप-यह प्राय मुड गांधकर उडता है और झीलों के किनारे प्रजापति थे। इनमेन अनेक जातियां पजाब आदि प्रातो मे रहता है । इसके अनेक भेद हैं। इसके रग श्वेत तथा पैर और वस गई और पापि कर्म करने लगी। पहले तो उनमे चोच लाल रंग की होती है। यह अगह्न पूस मे उत्तरीय पृथक् पृथक् प्रजापति थे, पर धीरे धीर जनमरया बढती गई भारत मे उत्तर के ठढे प्रदेशो से पाता है। और अनफ देश उनसे भर गए। ऐसे प्रायों को शालीन कहा २ एक सकर राग का नाम जो मालव, श्रीराग और मनोहर राग है। फिर उनमे प्रजापतियो से काम न चला और भिन्न भिन्न के मेल से बनता है। देशो में शाति स्थापित करने और दूसरे देशो के आक्रमण राजर्म्य-सजा_पुं० [स०] राजप्रासाद । से अपनी रक्षा करने के लिये प्रजापति से अधिक शक्तिमाव
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३९७
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