पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३७५

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रसवंत ४१३४ रससिंदूर झलकै ।--मन्नालाल (शब्द०)। (ख ) सुजा के दिवान दीजे न दीजै हमैं दुख योंही कहा रमवाद बढायो। मतिराम भगवत रसवत भए वृदावनवासिनि की सेवा ऐसी करी है। (शब्द०)। -नाभादास (शब्द०)। रसवान्-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] वह पदार्थ जिसमे ऐमा गुण या शक्ति रसवत-वि• जिसमे रम हो। रसभरा । रसोला । हो कि जब उस पदार्थ के कण रसना से सयुक्त हो, उस समय किसी प्रतिववक हेतु के न रहने से विशेष प्रकार का रसवती--मचा सी० [स० रसवती ] रसौत । रसाजन | उ०-- अनुभव हो। रूमी रतनजोति रसवती। रारे रंगमाटी रुदवती -सूदन (शब्द०)। रसवास-सशा पुं० [ स० ] ढगण के पहले भेद (15) की नशा । रसवट-सञ्ज्ञा पु० [हिं० रसना (= पानी पाना ) ] वह मसाला रसवाहिनी- सवा स्त्री॰ [ स०] वैद्यक के अनुसार खाए हुए भोजन से बने सार पदार्थ का फैलानेवाली नाटी। जो नाव के छेदो मे इसलिये भरा जाता है कि उनमे से पानी अदर न आवे । रसवर। रसविक्रयो-सज्ञा पुं० [सं० रसविक्रयिन् ] वह जो मदिरा वेचना हो । शराब बेचनेवाला। रसवत्'- वि० [सं० ] [ वि० सी० रसवती ] १ जिसमें रस हो । रसवाला। २ स्वादिष्ट (को०)। ३ क्लिन्न (को०)। ४ रसविरोध-सज्ञा पुं० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार कुछ रसो का प्राकर्षक । मोहक । (को०)। ५ प्रेमभाव पूर्ण। प्रेमपूर्ण ठीक मेल न होना। जमे,-तीने और मीठे मे, नमकीन और (को०) । ६ रसिक । परिहासक (को॰) । मीठे मे, कडुए और मीठे मे रसविरोव है। २ साहित्य मे एक ही पद्य मे दो प्रतिकूल रसो की स्थिति । जैसे,—र गार और रसवत्-सज्ञा पुं॰ वह काव्यालकार जिसमे एक रस किसी दूसरे रौद्र की, हास्य और मयानक की, शृगार और वीभत्स की । रस अथवा भाव का अग होकर पावे। जैसे,—युद्ध मे पडे हुए वीर पति के लिये इस विलाप मे–'हां, यह वही हाथ रसवेधक-संशा पुं० [सं० ] सोना । है जो प्रम से प्रालिगन करता था ।' यहाँ शृगार केवल रसशार्दूल-मज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक मे एक प्रकार का रम । करुण रस का अंग है। विशेप-यह अभ्रक, तांबे, लोहे, मैनसिल, पारे, गधक, सोहागे, रसवत-सज्ञा स्त्री॰ [हिं०] १ दे० 'रसौत' । २ दे० 'दारुहल्दी' । जवाखार, हड, और वहेडे आदि के योग से बनता है और उपदश आदि रोगो के लिये उपकारी माना जाता है। रसवती- सज्ञा स्त्री० [सं०] १ सपूर्ण जाति की एक रागिनी रसशास्त्र-सज्ञा पुं० [ म०] १ रसायन शास्त्र । २ साहित्य मे जिसमें मव शुद्ध स्वर लगते हैं। २ रसोईघर । ३ प्रशन । शृगार, वीर अादि नव रसो पर विवेचनात्मक ग्रथ । पाहार (को०)। रसशेखर-सञ्ज्ञा पुं० [स०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रस रसवती- वि० रसीली । रसपूर्ण । रसभरी। जो पारे और अफीम के योग से बनता है और जो उपदंश रसवत्ता सञ्चा स्त्री० [ ] १ रमयुक्त होने का भाव या धर्म । आदि रोगो के लिये उपकारी माना जाता है। रसीलापन । २ मिठास । माधुर्य । ३ सुदरता । खूबसूरती । रसशोधन-सज्ञा स० [सं०] १ पारे को शुद्ध करने की क्रिया । रसवर-सशा पु० [हिं० रसना (= चूना, टपकना)] दे० 'रसवट' । २ सुहागा। रसवर्णक-सज्ञा पुं० [सं० ] वंद्यक के अनुसार अनार का फूल, रसस भव-सज्ञा पुं० [ स० रससम्भव ] रक्त । लहू । खून । ढाक का फूल, कुसुम का फूल, लाख, हलदो, मजीठ आदि रससरक्षण-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] पारे को शुद्ध करना, मूछित करना, कुछ विशिष्ट द्रव्य जिनसे रग निकलता है। बांधना और भस्म करना ये चारो क्रियाएं। रसवली-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० रस+वली ] एक प्रकार का गन्ना, रससस्कार-सहा पुं० [सं०] गरे के मूर्च्छन, वधन, मारण आदि जिसे रसडली भी कहते हैं। दे० 'रसडली'। अठारह प्रकार के सस्कार । (वैट क) । रसवाई-सज्ञा स्त्री० [हिं० रस + वाई (प्रत्य॰)] पहले पहल रससागर-संज्ञा पुं० [सं० ] पुराणानुसार सात समुद्रो मे से एक । ऊन पेरने के समय होनेवाली कुछ विशिष्ट रीतियां या विशेष-कहते हैं कि यह प्लक्ष द्वीप मे है और ऊख के रस से व्यवहार। भरा है। रसवाद-सज्ञा पुं० [सं०] १ रस की वात। प्रेम या पानद को रससाम्य-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं०] वैद्यक मे रोगी की चिकित्मा करने के बातचीत । रसिकता की बातचीत । उ०-क) करति हो पहले यह देखना कि शरीर मे कौन सा रस अधिक और कौन परिहास हमसो तजो यह रसवाद । —सूर (शब्द॰) । (ख) केशव सा कम है। औरनि सार सरासरि सो रसवाद सवै हमसो।-केशव रससार-सज्ञा पुं० [सं०] १ मधु । शहद । २ जहर । (डिं०) । (शब्द०)। २ मनोरजन के लिये कहासुनी। छेडछाड। रससिंदूर-सशा पुं० [ सं० रससिन्दूर ] वैद्यक मे एक प्रकार का रस झगडा । उ०- तुमही मिलि रसवाद वढ़ायो। उरहन दै दै जो पारे और धक के योग से बनता है। इसे 'हरगौरी रस' मूड पिरायो।-सूर (शब्द०)। ३ वकवाद । उ०—सोवन भी कहते हैं। HO