पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३७४

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HO HO रसभस्म रसबंधन रसवंत रसबंधन-सज्ञा ॰ [ स० रसबन्धन ] शरीर के अतर्गत नाडी के रसमाणिक्य-सज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक मे एक प्रकार की प्रौषध एक अश का नाम । (वैद्यक)। जो हरताल से बनाई जाती है और जो कुष्ठ श्रादि रोगो मे उपकारी मानी जाती है। रसवत्ती-मज्ञा स्त्री॰ [सं० रस+हिं० वत्ती ] एक प्रकार का पलीता जिसका व्यवहार पुराने ढग की तोपें और वदूकें चलाने मे रसमाता-समा स्त्री॰ [ म. रसमातृका] जीभ । रसना । जवान । होता था। (fo रसबरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे॰ 'रसभरी' । रसमाता-वि० [स० रसमत ] आनद वा मद के कारण मत्त । रसबेद-सा पुं० [ स० रस+वेद] कामशास्त्र । उ०-मदनाकुम रसमातृका-सा स्रो० [ ] जीभ । जवान । रसवेद मत, पट अंगुल परिमान । इह परकीरति जो पुरुप, सोई रसमारण-सज्ञा पु० [ स० ] वैद्यक मे वह क्रिया जिममे पारा मारा ससा बखान -चित्रा०, पृ. २१३ । या शुद्ध किया जाता है। रसभरी-सञ्चा स्त्री॰ [अं० रैस्पबेरी ] एक प्रकार का स्वादिष्ठ फल । रसमाला-सञ्ज्ञा स्त्री० [ ] शिलारस नामक सुगधित द्रव्य । विशेप प-पकने पर इसका रग पीलापन लिए लाल हो जाता है। रसमि-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० रश्मि ] १ किरण । उ०-तो जू मान यह जाडे के अत मे प्राय बाजारो मे मिलता है। तजहुगी भामिनि रवि की रसमि काम फल फीको। कीजे कहा समय विनु सुदरि भोजन पीछे अंचवन घो को ।-सूर रसभव-सज्ञा पुं० [ स० ] रक्त । खून । लहू । (शब्द०) । २. भाभा । प्रकाश । चमक । उ०-बमन सपेद -सज्ञा पुं॰ [ स० ] भस्म किया हुआ पारा । पारे का भस्म । स्वच्छ पेन्हे प्राभूपरण सव होरन को मोतिन को रसमि अछेन रसभीना-वि० [हिं० रस + भीनना ] [वि॰ स्त्री० रसभीनी] १ को।-रघुनाथ (शब्द०)। आनद मे मग्न । २ आर्द्र । तर । गीला । उ०-शोभा सर रसमुडी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० रस + मु दी ? ] एक प्रकार की बंगला लीन कुवलय रसभीन नलिन नवीन किधौ नैन बहु रग हैं।- मिठाई। केशव (शब्द॰) । ३. मादकता से पूर्ण । मस्ती देनेवाला । मस्त रसमैत्री-सच्चा स्त्री० [सं०] १ दो ऐसे रसो का मिलना जिनके करनेवाला । रस से सराबोर करनेवाला। मिलने से स्वाद मे वृद्धि हो। दो रसो का उपयुक्त मेल । रसभेदः -सज्ञा पुं० [सं०] १ वैद्यक मे एक प्रकार की प्रौपध जो जैसे,-कडुआ और तीता, तीता और नमकीन, नमकीन पारे से तैयार की जाती है। , २ साहित्य शास्त्र मे रसो का और खट्टा आदि । २ साहित्य मे रसो का उपयुक्त मेल । भेदोपभेद । उ०-भावभेद रसभेद अपारा। कवित दोष गुन रसयोग-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] वैद्यक मे एक प्रकार का प्रोपय । विविध प्रकारा।-मानस, १६ । रसरस-क्रि० वि० [हिं० रसना ] धीरे धीरे । शन शन. । उ०-- रसभेदी-सञ्ज्ञा पुं० [स० रसभेदिन् ] वह पका हुआ फल जो रस रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहि जिमि आदि की अधिकता से फट जाय और जिसमे से रस बहने लगे। ज्ञानी ।-मानम, ४।१६। रसमंडूर-सहा पुं० [सं० रसमण्डूर ] वैद्यक मे एक प्रकार की रसरा-सशा पुं० [हिं० ] [ मी०, अल्पा० रसरी ] दे० 'रस्मा' । रसौषध जो हह के योग से गवक और मडूर से बनाई जाती रसराज-सज्ञा पुं० [सं०] १ पारद । पारा। उ०--रावन सो है और जिसका व्यवहार शूल रोग में होता है । रसराज सुभट रस रहित लक खल दलतो।-तुलसी (शब्द०)। रसम-समा स्त्री० [अ० रस्म ] दे० 'रस्म' । २ रमो का राजा, शृगार रस । उ०-जनु वियुमुख छवि यौ०-रसमरिवाज । अमिय को रछक रख्यो रमराज ।—तुलसी (शब्द०)। ३. रसमर्दन-सज्ञा पुं॰ [ स० ] वैद्यक में पारे को भस्म करने या मारने वैद्यक मे एक प्रकार की औषधि जो तवे के भन्म, गवक और पारे को मिलाकर बनाई जाती है और जिनका व्यवहार तिल्ली रसमल-सधा पुं० [सं० ] शरीर से निकलनेवाला किसी प्रकार का और बरवट आदि में होता है। ४ रसाजन । रमौत । मल । जैसे-विष्ठा, मूत्र, पसीना, थूक प्रादि । रसराय-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रसराज ] शृंगार रम । दे० 'रसगज'। रसमसा-वि० [हिं० रस - मस (अनु० )] [ वि० सी० रसमसी] १. रग से मस्त । प्रानदमग्न । अनुरक्त । उ०- रसरी-मग त्री० [सं० रसना, प्रा० रसणा ] रस्मी । डोरी । खेलत अति रसमसे लाल रंग भीने हो । अतिरस केलि विशाल रसल-वि॰ [ सं० रस + ल (प्रत्य॰)] जिनमे रस हो। सवाला उ.-विमल रमल रसखानि मिलि भई मकल रनमानि । लाल रंगभीने हो । - सूर (शब्द०)। २. तर । गीला । उ०-दलदल जो हो रही है हरेक जा पं रसमसी। सर मर सोई नव रमखानि को चित चातक रमखानि :-रमसान। मिटा है मर्द तो औरत कही फंनी ।-नजीर (शब्द॰) । ३. (शन्द०)। पसीने से भरा। धात । रसलह-सज्ञा पुं० [सं० ] पारा । रसमसाना-क्रि० अ० [हि० रसमस ] रग वा मानद मे मग्न रसवत--राक्षा पुं० [ मं० रमवत् ] रनिया । प्रेमी। रमश । उ०- होना । रस बरसना । (क) रसवत कावत्तन को रस या इसरान फे पर है की क्रिया।