कुत्ता। 1 रसधेनु ४१३२ रसबंधकर रसधेनु- -सज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार गुड आदि की बनाई हुई रसनापद-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] नितंब । चूतड । वह गौ जो दान की जाती है । रसनाभ-सज्ञा पुं० [म०] रसाजन । रसौत । रसन-सचा पु० [सं०] १ स्वाद लेना। चखना। २ ध्वनि । रसनायक-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] १ शिव का एक नाम । २ पारद । पारा। ३ जीभ । जवान । ४ कफ का एक नाम | रसनारव-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] पक्षो, जिन्हे वोलने के लिये केवल जीभ रसन-वि० पसीना लानेवाला ( औषध आदि ) । ही होती है, दांत नहीं होते। रसन-सज्ञा पु० [स० रशना या प्र० लासन ] रस्सा । (लश०) । रसनि-सधा स्त्री॰ [स० रसन] स्वाद । चाट । उ०—जवनि रसनि रसना'-सज्ञा स्त्री० [सं०] १. जिह्वा । जीभ । जबान । लागी तुमही का तोनिउ रसनि मिटावहु । - जग० वानी, यौ०-रसनामल = जीभ की मैल । रसनामूल = जीभ का मूल पृ० २३ । भाग। रसनारद = दे० 'रसनारव'। रसनालिह = श्वान । रसनिर्यास-सञ्ज्ञा पुं० [स०] शाल का वृक्ष । रसनीय- वि० [स०] १. स्वाद लेने योग्य । चखने लायक । २ स्वा- मुहा०—रसना खोलना = बोलना प्रारंभ करना। उ०-हीरामन दिष्ठ । मजेदार। रसना रस खोला । दै मसीस करि प्रस्तुति बोला ।—जायसी रसनेद्रिय-सज्ञा स्त्री॰ [सं० रसनेन्द्रिय] रसना, जिससे स्वाद या रस (शब्द०)। रसना तालू (तारू) से लगाना = बोलना बद लिया जाता है। जीभ । करना । चुप होना । उ०--रसना तारू सो नहिं लावत पीवं रसनेत्रिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] मैनसिल । पीव पुकारत ।-सूर (शब्द॰) । रसनेष्ट-सञ्ज्ञा पु० [स०] ऊख । गन्ना । २ न्याय के अनुसार रस या स्वाद, जिसका अनुभव रसना या जीभ से किया जाता है। ३ रास्ना या नागदौनी नाम की रसनोपमा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] एक प्रकार की उपमा जिसमे उपमानो प्रोपधि । ४. गवभद्रा नाम की लता । ५ करधनी। मेखला । की एक शृखला बंधी होती है और पहले कहा हुआ उपमेय ६ रस्सी। रज्जु । ७ लगाम। ८ चद्रहार । आगे चलकर उपमान होता जाता है। यह 'उपमा' भोर 'एकावली' को मिलाकर बनाया गया है। इसे गमनोपमा भी रसना-क्रि० अ० [हिं० रस+ना (प्रत्य॰)] १ धीरे धीरे वहना कहते हैं। जैसे,-वस सम बखत, वखत सम ऊंचो मन, मन या टपकना । जैसे,—छत मे से पानी रसना। २. गीला होकर या पानी से भरकर धीरे धीरे जल या और कोई द्रव पदार्थ सम कर, कर सम करी दान के। छोडना या टपकाना । जैसे,—चद्रकात मणि चद्रमा को देखकर रसपति-सज्ञा पुं० [स०] १ चद्रमा । उ.-राजपति रामापति रसने लगती है। रमापति राधापति रसपति रासपति रसापति रामपति ।-केशव (शब्द०) । २ पृथ्वीपति । राजा। ३ पारा । ४ रसराज । मुहा०-रस रस या रसे रसे = धीरे धीरे । आहिस्ते आहिस्ते । शृगार रस । ५ धरती । पृथ्वी । शन. शनै । उ०—(क) रस रस सूख सरित सर पानी। ममता ज्ञान कहि जिमि ज्ञानी ।- तुलसी (शब्द॰) । (ख) रस परित्याग-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] जैनो के अनुसार दूध, दही, चीनी चचलता अपनी तजिकै रस ही रस सो रस सु दर पीजियो।- नमक या इसी प्रकार का और कोई पदार्थ विल्कुल छोड देना और कभी ग्रहण न करना । परताप ( शब्द०)। ३ रस मे मग्न होना। रस से पूर्ण होना । प्रफुल्लित होना। रसपर्पटी-सचा स्त्री॰ [स०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे को उ०—सूर प्रभु नागरी हंसति मन मन रसति बसत मन श्याम शोधकर बनाया जाता है और जिसका व्यवहार सग्रहणी, वडे भागे । —सूर (शब्द०)। ४ तन्मय होना । परिपूर्ण होना। ववासीर, ज्वर, गुल्म, जलोदर भादि मे होता है । उ०-(क) चपकली दल हूं ते भली पद अंगुलि वाल की रूप रसपाकज-सञ्चा पुं० [सं०] १ गुड । २. चीनी । रसे हैं। केशव (शब्द॰) । (ख) बांक विभूषण प्रेम ते जहां रसपाचक-सचा पु० [सं०] भोजन बनानेवाला । रसोइया । होहिं विपरीत । दर्शन रस तन मन रसत गनि विभ्रम के रसपुष्प-सक्षा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार की दवा जो गधक, पारे गीत ।-केराव (शब्द०)। ५ रसपान करना । रस लेना। और नमक से बनाई जाती। उ०—शिवपूजन हित कनक के कुसुम रसत अलिजाल । मयन नृपति जग जीत की वजी मनो करनाल । -गुमान (शब्द॰) । रसपूर्तिका 1-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ मालकंगनी । २. शतावर । ६. प्रम मे अनुरक्त होना । मुहब्बत में पडना । उ०—(क) रसप्रबध-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रसप्रबन्ध ] १ नाटक । २ वह कविता या किन संग रसलू किन रांग बसलू किन संग रचलू घमार- काव्य जिसमे एक ही विषय बहुत से परस्पर सबद्ध पद्यों में कहा कबीर (शब्द०)। (ख) तव गोपी रस रसीं राम किरपा द्विज- गया हो। प्रबव काव्य । राजो।-सुधाकर (शब्द०)। रसकल-सहा पु० [सं०] १ नारियल का वृक्ष । २ प्रावला । रसनाथ-सज्ञा पुं॰ [स०] पारा । रसबधकर-सज्ञा पुं० [सं० रसवन्धफर ] सोम लता।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३७३
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