रस रशनागुण ४१२६ रशनागुण-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'रशनाकलाप' । रशनोपमा-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० ] रसनोपमा नामक अलकार । विशेप दे० 'रसनोपमा । रश्क-सञ्ज्ञा पुं० [फा० १ किसी दूसरे को अच्छी दशा मे देखकर होनेवाली जलन या कुढन । ईर्ष्या । डाह । २ लजा। शारम । (क्व०)। रश्मि-सज्ञा पुं० [सं०] १ किरण । २ पलक के रोएँ । बरौनी। ३ घोडे की लगाम । बाग । ४ रज्जु । रस्सी (को०)। ५. चावुक । अंकुश (को०) । ६ नापने की रस्सी (को॰) । रश्मिकलाप-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] मोतियो का वह हार जिसमे ६४ या ५४ लड़ियां हो। रश्मिकेतु-सज्ञा पुं० [सं०] १ एक राक्षस का नाम । २ वह केतु या पुच्छल तारा जो कृत्तिका नक्षत्र मे स्थित होकर उदित हो । कहते हैं, इसकी चोटी मे धूआँ रहता है और इसका फल सातवें केतु के समान होता है। रश्मिक्रीड़-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० रश्मिक्रीड ] रामायण के अनुसार एक राक्षस का नाम। रश्मिग्राह- सज्ञा पुं० [ स०] सारथी [को०] 1 रश्मिपति 1- सञ्चा पुं० [सं० एक क्षुप । प्रादित्यपत्र (को०) । रश्मिप्रभास-सज्ञा पु० [ ] एक बुद्ध का नाम । रश्मिमाली-सञ्ज्ञा पुं० [ स० रश्मिमालिन् ] सूर्य [को०] । रश्मिमुच-सञ्ज्ञा पु० [स० रश्मिमुच् ] सूर्य [को०] । रस-सहा पु० [ स० ] १. वह अनुभव जो मुंह मे डाले हुए पदाथो का रसना या जीभ के द्वारा होता है । खाने की चीज का स्वाद । रसनेंद्रिय का सवेदन या ज्ञान । विशेप- हमारे यहाँ वैद्यक मे मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कपाय ये छह रस माने गए हैं और इनकी उत्पत्ति भूमि, आकाश, वायु और अग्नि आदि के सयोग से जल मे मानी गई है । जैसे—पृथ्वी और जल के गुण की अधिकता से मधुर रस, पृथ्वी और अग्नि के गुण की अधिकता से अम्ल रस, जल और अग्नि के गुण की अधिकता से तिक्त रस और पृथ्वी तथा वायु की अधिकता से कपाय रस उत्पन्न होता है। इन छहो रसो के मिश्रण से और छत्तीस प्रकार के रस उत्पन्न होते हैं। जैसे,—मघुराम्ल, मधुरतिक्त, अम्ललवण, अम्लकटु, लवणकटु, लवणतिक्त, कटुतिक्त, तिक्तकपाय आदि । भिन्न भिन्न रसो के भिन्न भिन्न गुण कहे गए हैं। जैसे,-मधुर रस के सेवन से रक्त, मास, मेद, अस्थि और शुक्र आदि की वृद्धि होती हैं, अम्ल रस जारक और पाचक माना गया है, लवण रस पाचक और सशोधक माना गया है, कटु रस पाचक, रेचक, अग्नि- दीपक और सशोषक माना गया है; तिक्त रस रुचिकर और दीप्तिवर्धक माना गया है, और कषाय रस सग्राहक और मल, मूत्र तथा श्लेष्मा आदि को रोकनेवाला माना गया है। न्याय दर्शन के अनुसार रस नित्य और अनित्य दो प्रकार का HO होता है। परमाणु रूप रस नित्य और रसना द्वारा गृहीत होनेवाला रस अनित्य कहा गया है । २ छह की सख्या। ३ वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर की सात धातुओ मे से पहली धातु । विशेष-सुश्रु त के अनुसार मनुष्य जो पदार्थ खाता है, उससे पहले द्रव स्वरूप एक सूक्ष्म सार बनता है, जो रस कहलाता है। इसका स्थान हृदय कहा गया है, जहां से यह धमनियो द्वारा सारे शरीर में फैलता है । यही रस तेज के साथ मिलकर पहले रक्त का रूप धारण करता है और तब उससे मास, मेद, अस्थि, शुक्र प्रादि शेष धातुएं बनती हैं। यदि यह रस किसी प्रकार अम्ल या कटु हो जाता है, तो शरीर मे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। इसके दूषित होने से अरुचि, ज्वर, शरीर का भारीपन, कृशता, शिथिलता, दृष्टिहीनता आदि अनेक विकार उत्पन्न होते हैं। पर्या०-रसिका । स्वेदमाता । चम्लि । चर्मसार । रक्तसार । ४ किसी पदार्थ का सार । तत्व । ५ साहित्य में वह भानदात्मक चित्तवृत्ति या अनुभव जो विभाव, अनुभाव और सचारी से युक्त किसी स्थायी भाव के व्यजित होने से उत्पन्न होता है। मन में उत्पन्न होनेवाला वह भाव या पानद जो काव्य पढने अथवा अभिनय देखने से उत्पन्न होता है । विशेष-हमारे यहां प्राचार्या में इस विषय मे वहुत मतभेद है कि रस किसमे तथा कैसे अभिव्यक्त होता है। कुछ लोगों का मत है कि स्थायी भावो की वास्तविक अभिव्यक्ति मुख्य रूप से उन लोगो मे होती है, जिनके कार्यों का अभिनय किया जाता है (जैसे,-राम, कृष्ण, हरिश्चद्र प्रादि ), और गौरण रूप से अभिनय करनेवाले नटो मे होती है। अतः इन्ही में ये लोग रस की स्थिति मानते हैं। ऐसे प्राचार्या का मत है कि अभिनय देखनेवालो या काव्य पढनेवालो के साथ रस का कोई संबध नही है । इसके विपरीत अधिक लोगो का यह मत है कि अभिनय देखनेवालो तथा काव्य पढ़नेवालो मे ही रस की अभिव्यक्ति होती है। ऐसे लोगो का कथन है कि मनुष्य के अंतःकरण मे भाव पहले से ही विद्यमान रहते है, और काव्य पढने अथवा नाटक देखने के समय वही भाव उद्दीप्त होकर रस का रूप धारण कर लेते हैं। और यही मत ठीक माना जाता है। तात्पर्य यह कि पाठको या दर्शको को काव्यो अथवा अभिनयो से जो अनिर्वचनीय और लोकोत्तर आनद प्राप्त होता है, साहित्य शास्त्र के अनुसार वही रस कहलाता है हमारे यहाँ रति, हास, शोक, उत्साह, भय, जुगुप्सा, पाश्चर्य और निर्वेद इन नौ स्थायी भावो के अनुसार नौ रस माने गए है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-शृगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शात । दृश्य काव्य के प्राचार्य शात को रस नहीं मानते। वे कहते हैं कि यह तो मन की स्वाभाविक भावशून्य अवस्था है। निर्वेद मन का कोई विकार नहीं है। प्रत. वे रसो को सख्या पाठ ही मानते है। और
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