रचना ४१०५ स० ७ उद्यम । कार्य । ८. वह गद्य या पद्य जिसमे कोई विशेष पिय के रग।-सूर (शब्द॰) । २. रंग चढना। रंगा जाना । चमत्कार हो। उ०-वचननि की रचनानि सो जो साध निज रजित होना । जैसे,—(क) तुम्हारे मुह मे पान खूब रचता है । काज । -पद्माकर (शब्द०)। ६. पुराणानुमार विश्वकर्मा की 1) उसके हाथ मे मेहदी खूब रचती है। उ०—(क) गान सरस स्त्री का नाम । अलि करत परस मद मोद रग रचि ।-गुमान (शब्द॰) । (ख) रचना-क्रि० स० [ स० रचन ] १ हायो से बनाकर तैयार करना । जावक रचित गुरियन मृदुल मुढारी हो । - तुलसी (शब्द०)। बनाना । सिरजना । निमाण करना । उ०—(क) तपवल रचइ रचनात्मक-वि० [स० रचना + प्रात्मक ] वह कार्य जो निर्माण मे प्रपच विधाता । तप बल विप्रसु सकल जग त्राता।-तुलसा सहायक हो। जैसे-रचनात्मक साहित्य, रचनात्मक शिक्षा (शब्द॰) । (ख) उहाँ हिमालय रचेउ विताना । अति विचित्र आदि। नहिं जाइ दखाना ।—तुलसी (शब्द०)। २ विधान करना । रचयिता - सज्ञा पुं० [स० रचयित ] रचनेवाला। बनानेवाला । निश्चित करना। 30-अम विचारि मोचह मात माता । सो जैसे,-पापही इस ग्रथ के रचयिता है। न टर जो रचइ विधाता |-तुलसी (शब्द०)। ३. अथ प्रादि रचवाना-क्रि० स० [हिं० रचना का प्रेर० रूप ] १ रचना के लिखना । उ०-गुनी और रिझबार ये दाउ प्रसिद्ध ह जात | काम मे दूसरे को प्रवृत्त कराना। रचना कराना। तैयार एक ग्रथ के रचन सो दोगुन जस सरसात ।-(शब्द०)। ४. कराना । बनवाना । २ मेहंदी या महावर लगवाना। उत्पन्न करना । पैदा करना । ५. अनुष्ठान करना । ठानना । रचाना 'क्रि० स० [म० रचन J१ प्रायोजन करना । अनुष्ठान उ०-(क) रति विपरीत रचा दपात गुपुत अति मेरे जान करना या कराना। बनाना जैसे,—व्याह रचाना। उ०-- मनि भय मनमय नजे तें।-पद्माकर (शब्द॰) । (ख) तव एक इत पाडव मिलि यज्ञ रचायो ।- लल्लूलाल (शब्द०)। २ विशति बार मैं बिन क्षत्र की पृथ्वी रचा। केशव (शब्द०)। दे० 'रचवाना। (ग) माब पान खवावत ही कहि कारन कोप पिया पर नारि रचाना-क्रि० अ० [स० रञ्जन ] मेहंदी, महावर प्रादि से हाय रच्यो । शव (शब्द०)। ६ प्राडवर सडा करना। युक्ति पर रंगाना। या तदवार लगाना । प्रायोजन करना। जैने, प्राडवर रचना, रचित-वि० [ ] १ बनाया हुआ। रचा हुआ । २ सुघटित उपाय रचना, जाल रचना । उ०—(क) रचि प्रपच भूपहि (को०) । ३ विभूपित । सज्जित (को०) । ४. ग्रथित (को०) । अपनाई । राम तिलक हित लगन बगई -तुलसी (शब्द॰) । रची-वि० [हिं० रच ] थोडा । अल्प । ७. काल्पनिक सृष्टि करना । कल्पना करना । उ०-कबहुँ धनु रच्छ--नज्ञा पुं० [ स० रक्ष ] दे० 'रक्ष' । राच पसरु चरावै । कबहुँ भूर बनि नीति सिसाव । -रघुनाथ रन्छक-सवा पु० [ R० रक्षक ] दे० 'रक्षक' । (शब्द०)। ५.शृगार करना । संवारना । मजाना । कारीगरी करना । उ०-भूपरण बप्सन प्रादि सब रचि रचि माता लाड रन्छनसग पु० [ म० रक्षण ] दे० 'रक्षण' । लडा ।-मूर (श-द०, । ६. तरतीव या नाम से रसना । रन्छदार-वि० [ स० रक्षपाल ] रक्षा और पालन करनेवाला। रक्षक । पालक । उ०- गिरेि के धरमहार, गंवर के रच्छ पार उ०-चहूंघा वेदो के विधिवत रचा है गिनि ये। विधो दर्भा गर न लाइए।-गग० ग्र०, पृ०६ । नेरे अरु प्रजुल माह समाद ले । -लक्ष्मणसिंह (शब्द॰) । रच्छस-सरा पुं० [ स० राक्षस ] दे० 'राक्षस' । मुहा०-रचि पचि = परिश्रमपूर्वक । दक्षतापूर्ण ढग ते । रच्छा-सा ली. [ म० रक्षा | दे० 'रक्षा'। उ०—(क) रचिपाच काटिक गुटलपन कीन्ह से कपट रच्छाकर-वि० [सं० रक्षा+हिं० करना ] रक्षा करनेवाला। प्रवोध ।--तुलसी (शब्द॰) । (ख) राच पचि कीया ऐ सिंगार, रक्षक । उ०--सुरजन सुत नृप भोज भूमि मुर जन रच्छाकर । पाटी ती पारी चाखे माम का।-पोद्दार अभि० ग्र०, -मति० ग्र०, पृ० ४१४ । पृ० ६३२ । रचि रच = बहुत हाशियारी और कारीगरी के रच्छित-वि० [ स० रक्षिन ] दे० 'रक्षित' । साय (काई काम करना)। बहुत कौशलपूर्वक । रछपाल-वि० [ स० रक्षपाल ] रक्षा और पालन करनेवाला । रचना-क्रि० स० [सं० रञ्जन ] रंगना। राजत करना । उ०- रक्षपाल । उ०-अविनासा दुलहा कब मिालही, भक्तन के (क) मार्ग को झरोखे तक लाख के रग मे रच दिया । रछपाल ।-कबीर श०, पृ० ६१ । लक्ष्मणसिह (शब्द०)। (ख) राचन रारी रची मेहदी नृप समु रछस-सज्ञा पुं० [सं० २क्षस = राक्षस दे० 'राक्षस' । उ०- कह मुकता सम पोत है ।--शभु (शब्द०)। जबरदूत मेले समुझावो रछस अजू समजे तो रावण ।-रघु० रचना-क्रि० अ० [ स० रञ्जन ] १ अनुक्त होना । उ०—(क) रु०, पृ० १७८ । पर नारि से रचे हैं पिय । -पद्माकर (शब्द॰) । (ख) जो रजयुत्त-सशा पुं० [हिं० राजपूत ] दे० 'राजपूत' । उ०-रजपुत्त अपने पिय रूप रची फवि राम तिन्हें रवि की छवि पचास मुझे अमोर । वजं जीत के नद्द नीसान घार ।-पृ० थोरी। हृदयराम (शब्द॰) । (ग) मोहि तोहि मेहँदी कहूं कसे रा०, २०,६६। वन बनाइ । जिन चरनन सो मैं रचा तहाँ रची तू जाइ। रज-सञ्चा पुं० [ स० रजम् ] १. वह रक्त जो स्त्रियो और स्तनपायी रसनिधि (शब्द०)। (घ) चिता न चित फाको भयो रचो जू जाति के मादा प्राणियो के योनिमार्ग से प्रतिमास निकलता
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३४६
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