रगंड ४१०३ रगर गंड-सञ्ज्ञा पुं० [डिं०] हाथी का कपोल । रगडा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० रगहना] १. रगडने की क्रिया या भाव । ग-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा०] १ शरीर मे की नस या नाडी। उ०---जीए घर्पण । रगड । २ निरतर अथवा अत्यत परिश्रम । बहुत रूह रूहान मे, जीए रूह रगन्न । जीए जो रउ सूरमा, ठढउ अधिक उद्योग । ३ वह झगडा जो वरावर होता रहे और चद्र बमन्न ।--दादू (शब्द०)। जिसका जन्दी प्रत न हो। जैसे यह झगडा नही, रगडा है। क्रि० प्र०-खाना-देना। मुहा०--रग उतरना=(१) क्रोध उतरना । (२) हठ दूर होना । (३) प्रांत उतरना। रग खडी होना = शरीर की किसी रग यौ० रगडा झगडा = लडाई झगडा । बखेडा। का फूल जाना । रग चढ़ना = (१) क्रोध पाना । गुस्सा आना । रगडान-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० रगःना + आन (प्रत्य॰)] रगडने की क्रिया (२) हठ के वश होना। रग दबना = दवाव मानना । किसी के या भाव । रगडा। प्रभाव या अधिकार मे होना । जैसे, - तुम्हारी रग उन्ही से मुहा०-रगड़ान देना = रगडना । घिसना । दबती है। रग पहिचानना या पाना- रहस्य जानना। असल रगड़ी -वि० [हिं० रगडा+ ई (प्रत्य॰)] रगडा करनेवाला । लडाई बात जान लेना। रग फडकना=किसी आनेवाली यापत्ति की झगडा करनेवाला । झगडालू । जैसे,-मोरी एक न माने, पहले से ही प्राशका होना । माथा ठनकना । रग रग फडकना = कान्हा बडो रगडी । ( गीत )। शरीर मे बहुत अधिक उत्साह या आवेश के लक्षण प्रकट होना । रग रग में = सारे शरीर मे , जैसे,—पाजीपन तो रगण-सञ्ज्ञा पुं० [स०] छद शास्त्र मे एक गण या तीन वर्णों का तुम्हारी रग रग मे भरा है। समूह जिसका पहला वर्ण गुरु, दूसरा लघु और तीसरा फिर यौ०-रग पट्टा । रग रेशा। गुरु होता है (sis )। यह साधारणत 'र' से सूचित किया २ पत्तो मे दिखाई पडनेवाली नसें । जाता है। इसके देवता अग्नि माने गए हैं। जमे, कामना । मामला । राम को। गड़-सशा स्त्री० [हिं० रगडना] १ रगडने की क्रिया या भाव । घर्षण । २ वह हलका चित जो माधारण घर्षण से उत्पन्न रगत-सञ्ज्ञा पुं० [स० रक्त] । रु घिर । लहू । (डिं०) । हो जाय। रगत्र-सज्ञा पुं० [सं० रक्त] दे० 'रक्त' । उ०—यालुले विदल क्रि० प्र०-खाना |-लगना। कदल ससत्र। रंग सेल खगे न मिट रगत्र 1-रा० रू०, पृ० ७३ । ३ (कहारो की परिभाषा मे ) धक्का । ४ हुज्जत । झगडा । तकरार । ५ भारी श्रम । गहरी मेहनत । रगद-स० पु० [सं० रक्त] रक्त । रुधिर । मुहा०-रगड डालना = अधिक मेहनत लेना । भारी श्रम कराना। रगदना-क्रि० स० [हिं० रगेदना] दे० 'रगेदना' । रगड पड़ना : अधिक परिश्रम उठाना या पडना। जैसे,—उसे रगदल - वि० [डिं०] कुबडा । वहुत रगड पडी, इससे थक गया। रगपट्ठा- सज्ञा पुं० [फा० रग+ पढा] १ शरीर के भीतरी भिन्न भिन्न गडना-क्रि० स० [स० घर्पण या अनु०] १ किसी पदार्थ को दूसरे अग । पदार्थ पर रखकर दबाते हुए वार बार इधर उवर चलाना। मुहा० रग प8 से परिचित या वाकिफ होना = स्वभाव और घर्पण करना । घिसना । जैसे,-चरन रगडना । व्यवहार आदि से परिचित होना। अच्छी तरह जानना । विशेप-यह क्रिया प्राय किसी पदार्थ का कुछ अश घिसने, उसे खूब पहचानना। पीसने अथवा उमका तल बराबर करने के लिये होती है । २ किसी विषय की भीतरी और सूक्ष्म वातें। २ पीसना । जैसे, मसाला रगडना, भाँग रगडना । ३ अभ्यास रगवत-सञ्ज्ञा मी० [अ० रगत्रत] १ चाह । इच्छा ।२ प्रवृत्ति । रुचि । आदि के लिये वार बार कोई काम करना। ४ किसी काम मुहा०-रगनत थाना = चाह होना। मन चलना। गवत को जल्दी जल्दी और बहुत परिश्रमपूर्वक करना । जैसे-इस दिलाना = प्रवृत्त होने के लिये प्रेरित करना । बढ़ावा देना। काम को तो हम चार दिन मे रगड डालेंगे। ५. तग करना । रगवत को धोखों से देखना = पसद करना। दिक करना । परेशान करना। ६ स्त्री के साथ सभोग करना। रगमगना-क्रि० अ० [हिं०] १ भिनना । घुलना। २ अनु- (बाजारू)। रजित होना । उ०—-तीर्थ सबै देखे गुने, कोऊ नहिं या तूल । सयो० कि०-डालना ।—देना । यजयवनी रगमगि रही, कृष्न चरन अनुकूल । -वज , एगडना-क्रि० प्र० बहुत मेहनत करना । अत्यत श्रम करना । जैसे,- पृ० १४२ । अभी यही पडे रगड रहे हैं। रगरज-सज्ञा स्त्री० [हिं० रगड] १ दे० 'रगड' । २ हठ । जिद । गड़वाना-क्रि० स० [हिं० रगड़ना का प्रे० रूप] रगडने का काम अड । टेक । उ-जनम कोटि लगि रगर हमारी। वरी मभु दूसरे से कराना । दूसरे को रगड़ने मे प्रवृत्त करना । न तु हउँ कुमारी। - मानस, ११८१ । ८-४२
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३४४
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