यौही ४०७६ योग जैसे,- HO इस प्रकार से । इस भांति । ऐसे। जैसे,-वह यो नही मानेगा। योंही-अव्य० [हिं० यो + ही (प्रत्य॰)] १ इसी प्रकार से। ऐसे ही। इसी तरह से। विना काम । व्यर्थ ही। आप तो योही किताबें उलटा करते है। ३ विना विशेष प्रयोजन या उद्देश्य के । केवल मन की प्रवृत्ति से । जैसे,- मैं उधर योही चला गया, उससे मिलने नही गया था। यो-सर्व० [हिं० ] दे॰ 'यह' । योक्तव्य-वि० [ ] १. सयोजित करने के योग्य । जोडने के योग्य । २ नियुक्त करने योग्य [को॰] । योक्ता सझा पुं० [सं० योक्त ] १ जोडनेवाला । सयोजित करने- वाला। बाँधनेवाला। २ गाडीवान | सारथी। कोचवान । ३ उत्तेजित करनेवाला । उभाउनेवाला [को०] । योक्त्र-सक्षा पुं० [सं०] १ डोरी। रस्सी। लगाम । २ पशु को गाडी में बांधने या जोतने का रस्सा। ३ हल के जुए मे लगी डोरी जिससे बैल जोड़ा जाता है। ४ मथानी की डोरी । नेती [को०] 1 योगंधर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० योगन्धर ] १. प्राचीन काल का एक मत्र जो अस्त्र शस्त्र आदि के शोधन के लिये पढ़ा जाता था। २ पीतल । योग-सज्ञा पुं० सं०] १ दो अथवा अधिक पदार्थों का एक मे मिलना । सयोग । मिलान । मेल । २ उपाय । तरकीब । ३. ध्यान । ४. सगति । ५ प्रेम । ६ छल । धोखा । दगावाजी। जैसे, योगविक्रय । ७ प्रयोग । ८ अौषध । दवा । ६ धन । दौलत । १० नैयायिक । ११ लाभ । फायदा। १२ वह जो किसी के साथ विश्वासघात करे । दगावाज। १३ कोई शुभ काल | अच्छा समय या अवसर । १४ चर। दूत । १५ छकडा । बैलगाडी। १६ नाम | १७ कौशल । चतुराई । होशियारी। १८ नाव प्रादि सवारी। १६ परिणाम । नतीजा। २० नियम । कायदा । २१ उपयुक्तता । २२. साम, दाम, दड और भेद ये चारो उपाय । २३ वह उपाय जिसके द्वारा किसी को अपने वश में किया जाय । वशीकरण । २४ सूत्र। २५ सवध । २६ सद्भाव । २७ घन और संपत्ति प्राप्त करना तथा वढ़ाना । २८ मेल मिलाप | २६ तप और ध्यान । वैराग्य । ३० गणित मे दो या अधिक राशियो का जोड । ३१ एक प्रकार का छद जिसके प्रत्येक चरण में १२,८ के विश्राम से २० मात्राएँ और अंत में यगण होता । ३२ ठिकाना । सुभीता। जुगाड । तारघात । उ०-नहिं लग्यो भोजन योग नहीं कहूं मिल्यो निवसन ठौर ।-रघुराज (शब्द०)। ३३ फलित ज्योतिप मे कुछ विशिष्ट काल या अवसर जो सूर्य और चद्रमा के कुछ विशिष्ट स्थानो में आने के कारण होते हैं और जिनकी सख्या २७ है। इनके नाम इस प्रकार हैं-विष्कभ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अति- गड, सुकर्मा, धृति, शूल, गड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज़, मसक, व्यतीपात, वरीयान्, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्र, ब्रह्म, इद्र, और वति । इनमे से कुछ योग ऐसे हैं, जो शुभ कार्यों के लिये वर्जित हैं और कुछ ऐसे है जिनमे शुभ कार्य करने का विधान है। ३४. फलित ज्योतिष के अनुसार कुछ विशिष्ट तिथियो, वारो और नक्षत्रो आदि का एक साथ या किसी निश्चित नियम के अनुसार पडना । जमे, अमृत योग, सिद्धि योग । ३५ वह उपाय जिसके द्वारा जीवात्मा जाकर परमात्मा मे मिल जाता है। मुक्ति या मोक्ष का उपाय । दर्शनकार पतजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियो को चचल होने से रोकना। मन को इधर उधर भटकने न देना, फेवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना। ३७ शत्रु के लिये को जानेवाली यत्र, मंत्र, पूजा, छल, कपट प्रादि की युक्ति । ३८ छह दर्शनो में से एक जिसमें चित्त को एकाग्र करके ईश्वर मे लीन करने का विधान है। विशेष-योग दर्शनकार पतजलि ने भात्मा और जगत् के सवय मे साख्य दर्शन के सिद्धातो का ही प्रतिपादन और समर्थन किया है । उन्होंने भी वही पचीस तत्व माने हैं, जो साख्यकार ने माने हैं । इनमे विशेषता यही है कि इन्होने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवां तस्व 'पुरुपविशेष' या ईश्वर भी माना है, जिससे साख्य के अनीश्वरवाद से ये वच गए हैं। पतजलि का योगदर्शन समाधि, सावन विभूति और कैवल्य इन चार पारदों या भागो मे विभक्त है । समाधिपाद मे यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य भौर लक्षण क्या हैं भौर उसका साधन किस प्रकार होता है। साधनपाद मे क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के प्रग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा भादि सिद्धियो की किस प्रकार प्राप्ति होती है। कैवल्यपाद मे कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है। सक्षेप मे योग दर्शन फा मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वप और अभिनिवेश ये पांच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलो के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पडती है तथा भोग भोगना पडता है। पतजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है, और कहा है कि क्रमश योग के अगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अत मे मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के सबंध मे पतजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनो कालो से अतीत है और देवतामो तथा ऋपियो आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है । योगवाले ससार को दु.खमय और हेय मानते है। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं। पतजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्न ये पांच प्रकार की वृत्तियां मानी हैं, जिनका नाम उन्होंने चित्तभूमि रखा है, और कहा है कि प्रारभ की तीन चित्तभूमियो में योग नही हो सकता, केवल अतिम दो में हो सकता है । इन दो भूमियो में सप्रज्ञात और असप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं। जिस अवस्था मे ध्येय का रूप
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३१७
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