पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२७६

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स - बाला। मोर ४०१५ मोरध्वज यह माप को खा जाता है। मादा का रग फोका होता से सेना, गढ या नगर आदि की रक्षा की जाती है। वह स्थान है और वह देखने में वैसी सु दर नही होती । जहाँ खडे होकर शत्रुमेना से लडाई की जाती है। पर्या०-नीलकठ । केकी । वरही। शिखी शिखडी। कलापी। मुहा०-मोरचाबदी करना गढ के चारो ओर गड्ढा खोदकर शिवपुतवाहन । भुजगभुम् । अहिभक्षी । या टीले बनाकर यथास्थान सेना नियुक्त करना। मोरचा २ नीलम की आभा, जो मोर के पर के समान होती है। उ जीतना- शत्रु के मोरचे पर अधिकार कर लेना। मोरचा बांधना= दे० 'मोरचावदी करना। उ.-बढि बढि बांधे मोर, विष्णु, नभ, कमल, अलि, कोकिल, कलरव, मेह । फूल मिरस, अरसी, अवनि ग्यारह छाया एह । -रत्नपरीक्षा । मोरचे, लाग देखि नियराइ । —हम्मीर०, पृ० २७ । मोरचा (शब्द०) मारना = दे० 'मोरचा जीतना' । मोरचा लेना-युद्ध करना । मोर-मर्व० स० मम ] [ स्त्री० मोरी ] दे० 'मेरा' । उ० मोरछड -सना पुं० दे० [हिं० मोर+छह ] दे० 'मोरछल' । (क) मोर हृदय सत कुलिम समाना ।--मानस, २।१६६ । मोरछल-सज्ञा पु० [हिं० मोर + छड़ ] मोर को पूंछ के परो को (ख) खुले सुभाग्य मोरय, लझी दरस्स तोरय । -ह. रासो, इकट्ठा बांधकर बनाया हुप्रा लबा चंवर जो प्राय देवताग्रो और पृ० १३ । राजायो आदि के मस्तक के पास डुलाया जाता है। उ.- मोर-सज्ञा स्त्री० [हिं० ] सेना की अगली पक्ति । (क) अगल बगल बहु मनुज मोरछन चंवर डोलावत ।—गोपाल मोरक-सञ्ज्ञा पुं० [ १ एक प्रकार का लोहा । २ गाय का (शब्द॰) । (ख ) चारु चोर चहुँ ओर चलावै मोरछलान व्याने के सात दिन बाद का दूध (को०] । डोलाई ।-रघुराज (शब्द०)। मोरचग-सज्ञा पुं० [हिं० मुहचग ] दे॰ 'मुरचग' । मोरछला-मज्ञा पु० [हिं० मौखिश्री ] 'मौलसिरी' । उ०-छड, खिरैटी, आँवले कुट और मोरछली की छाल, इनको जल के साथ मोरचदा-सा पु० [ मयूरचन्द्रक ] दे० 'मोरचद्रिका' । उ०- महीन पीसकर लेप करो तो वाल बढेंगे। -प्रतापसिंह गावत गोपाल लाल नीके राग नट हैं। मोरचंदा चारु सिर (शब्द०)। मजु गुजापुन घरे, बनि बनघातु तन प्रोढे पीत पट मोरछली --सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मोरछल+ ई (प्रत्य॰)] मोरछल हिलाने- —तुलसी (शब्द०)। मोरचद्रिका-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मोर + चन्द्रिका ] मोर पख के छोर की वह वूटो जो चद्राकार होती है। उ०-मोरचद्रिका श्याम मोरछाँह-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मोरछक्ष ] दे० 'मोर छल' । उ०—का वरनउं अस ऊच तुषारा । दुइ बेर पहुंचे असवारा। बांधे मोर- सिर चढि कत करत गुमान ।-विहारी (शब्द॰) । छाँह मिर मारहि । भाजहि पूछ चंवर जनु ढार हिं । - जायसी मोरचा-सञ्ज्ञा पुं० [फा० मोरचह ] १. लोहे की ऊपरी सतह पर (शब्द०)। चढ पानेवाली लाल या पीली रग की बुकनी की सी तह। मोरजुटना-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मोर + जुटना ] एक प्रकार का प्राभूषण । जग। विशेष - यह आभूपण सोने का बनता और रत्नजटित होता है। विशेष-लोहे पर जमनेवाली यह तह वायु और नमी के योग इसके बीच का भाग गोल वेदे के समान होता है और दोनो से रामायनिक विकार होने से उत्पन्न होती है। यह लाल पार मोर बने रहते हैं । यह वेंदे के स्थान पर माो पर पहना बुकनी वास्तव मे विकारप्राप्त लोहा ही है। जाता है। २. दर्पण पर जमी हुई मैल । उ०—(क) जब लग ह्यि दरपन मोरट-सज्ञा पुं० [सं०] १. ऊख की जड । २. अकोल वा अकोट का रहै कपट मोरचा छाइ। तब लग सु दर मीत मुख कैसे हगन फूल । ३. प्रसव से सातवी रात के बाद का दूध । ४. एक दिखाइ। रसनिधि (शब्द॰) । (ख) पहिर न भूपन कनक के प्रकार की लता जिसे कर्णपुष्प भी कहते है। कहि पावत एहि हेत । दरपन के से मोरचा देह दिखाई देत । विशेष-वैद्यक मे इसे मधुर कपाय, वृष्य, वलवर्धक और पित्त, -बिहारी (शब्द०)। दाह तथा ज्वर के लिये नाशक माना है। विशेष-प्राचीन काल मे दर्पण लोहे को मांजते मांजते चमकदार बनाए जाते थे, इसी से दर्पण के साथ 'मोरचा' शब्द का मोरटक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ दे० 'मोरटक' । २ सफेद खैर । प्रयोग चला आ रहा । 'दर्पण' के लिये फारसी का 'आईना' मारटा-मज्ञा सी० ] सं०] १ दूर्वा । दूव । २ मूवा (को०)। शब्द वास्तव मे 'बाहना' का अपभ्र श है, जिसका अर्थ 'लोहे मोठ-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] खट्टा मट्टा किो०] । का' होता है। मारता-सञ्ज्ञा पु० [हिं० महूरत ] दे० 'मुहर्त' । उ०-पोडस प्रकार क्रि० प्र०-जमना । लगना। के दान वेदोक्त करवाए। पचाग सुध सोव मोरत बतलाए ।- मुहा०-मोरचा खाना = मोरचा लगाने से खराब होना। रघु० रू०, पृ०२३६ । मोरचा-सञ्ज्ञा पुं० [फा० मोरचाल ] १ वह गड्ढा जो गढ के मोरध्वज-सचा पु० [सं० मयूरध्वज ] एक पौराणिक राजा का चारो ओर रक्षा के लिये खोद दिया जाता है। २. वह सेना नाम जो बहुत प्रसिद्ध भक्त था । जो गढ़ के प्रदर रहकर शत्रु से लडती है। ३. वह स्थान जहाँ विशेष—इसकी परीक्षा के लिये श्रीकृष्ण और अर्जुन इसके यहां गए