पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२४

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पत्रक मनरसि ३७८१ मनसा मनरति-वि० [हिं० मन+म० -ति ] मन मे रमण करनेवाली । बाँध अपसरहिं अकामा। मनसहिं जहाँ जाहि तह वामा। मन को अच्छी लगनेवाली। उ०-देवराज रावत सुता -जायसी (शब्द॰) । (ग) याही ते शूल रही शिशुपालहि । देवत्तनि जद्दीन । गौरि नाम सारग वर मनरति मूरति सुमिरि सुमिरि पछिताति सदा वह मान भ ग के कालहि । जौन ।-पृ० रा०, ११३६२ । दुलहिनि कहति दौरि दीजहु द्विज पाती नंद के नालहि । वर मनरोचन-वि० स० मन+रोचन ] मन को मुग्ध करनेवाला या मुबरात बुलाइ बडे हित मनसि मनोहर वालहि ।-सूर रुचनेवाला सुंदर । उ०-तापर भौंर भलो मनरोचन लोक (शब्द०)। २ मकल्प करना । दृढ निश्चय या विचार करना । विलोचन को सथिरी है। -के शव (शब्द०)। उ०-जोई चाहै सोई लेइ मने नहिं को यह शिव के चढाइवे को मनस्यो कमल मनरौन-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मन+स० रमण>हिं० रौन ] मन- ।-रघुनाथ (शब्द०)। ३ हाथ मे जल लेकर संकल्प का मत्र पढकर कोई चीज दान करना । रमण । प्रियतम । उ०-सहज सुभावनि सौं भौहानि के भावनि मी, हरति है मन 'मतिराम' मनरोन को।-मति० ० मनसफg+-सज्ञा पु० [अ० मनसय] दे० 'मनसव-३' । उ०-मनोदास कह बकमी कोन्हा । मनसफ है कागद लिाख दीन्हाँ ।-संत. पृ० ३४५। मनमोदक। दरिया, पृ० ५। मनलाडू-सज्ञा पु० [हिं० म+लर डू ] दे० उ.-धर्म अर्थ कामना सुनाव त सब मुख मुक्ति समेत । काकी मनसव-सज्ञा पु० [ ] १ पद । स्थान । उ०-पक्का मतो करि मलिच्छ मनसव छोड मक्का के मिसि उतरत दरियाव हैं। भूख गई मनलाडू पो देखहु चित चेत ।-सूर (शब्द॰) । -भूषण (शब्द०)। मनवछित-वि० [ स० मनोवाञ्छित ] दे० 'मनोवा.छत' । उ०- मेल्ही चांवर वइसणई, मनवछित भोजन पर चीर ।-वी० यौ०-मनसबदार । रामो, पृ० ६२ । २ कर्म । काम । ३ अधिकार | ४ वृत्ति । मनवाँ'-सज्ञा पुं॰ [देश॰] नरमा। देवकपास । रामकपास । उ०- मनसबदार-सज्ञा पु० [फा०] वह जो किसी मनसब पर हो । चहुँ कित चितवं चित चकित सजल किए चल नैन । लखि उच्चपदस्थ पुरुष । श्रोहदेदार । उ०-मसन की कहा है मतगनि सनवा मनवां पर मन वाके नहि चैन ।-स० सप्तक, के माँगिवे को मनसबदारनि के मन ललकत है। मतिराम पृ० २६२। (शब्द०)। मनवाँg:--सज्ञा पुं० [हिं० ] द० 'मनु' । उ०-मोरा मनवाँ मनसा'-संज्ञा स्त्री॰ [ स० ] एक देवी का नाम । है तुमी मन लागीलो ।-घनानद, पृ० ३६२ । विशेप-पुराणानुसार यह जरत्कारु मुनि की पत्नी और प्रास्तीक की माता थी तथा कश्यप की पुत्री और वासुकि नाग की मनवाना'-क्रि० स० [हिं० मानना का प्रे० रूप ] मानने का बहिन थी। प्रेरणार्थक रूप। मानन के लिये प्रेरणा करना। किमी को मनसा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० मानम या अ० मनशाहू ] १ कामना । मानने मे प्रवृत्त करना। उ०-भावत ही की सखी मो भटू इच्छा । उ०—(क) तन मराय मन पाहरू मनसा उतरी प्राय । मनभावते भावती को मनवायो ।- रघुनाथ (शब्द०)। कोउ काहू को है नहीं मव देसे ठोक बजाय । —कबीर मनवाना-क्रि० स० [हिं० मनाना ] मनाने का काम दूसरे से (शब्द॰) । (ख) छिन न रहै नंदलाल इहाँ विनु जो कोउ कोटि कराना । दूसरे को मनाने में प्रवृत्त करना। सिखावै । सूरदास ज्यो मन ते मनमा अनत कहूं नहिं जावै ।- मनवार-सशा पु० [हिं० मन या मनुहार ] निहोरा। खातिरी। मूर (शब्द०)। २ सकल्प । अध्यवमाय । इरादा। उ०- उ०-गाल लुगायाँ गावही, नर मुख उचत म गाल । अमल (क) देव नदी कह जोजन जानि किए मनसा कुल कोटि गाल मनवार कर, का सुभ वचन उगाल |-बाँकी ग्र०, भा० उवारे । —तुलसी (शब्द॰) । (ख) मानहुं मदन दुदुभी दोन्ही । ३, पृ० ७८ । मनसा विश्व विजय कहं कीन्ही ।—तुलसी (शब्द०)। ३. मनशा-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० मन्शह ] १ इच्छा । विचार | इरादा। अभिलापा । मनोरथ । उ०—(क) मनमा को दाता कहै श्रुति २ तात्पर्य। मतलब । अर्थ। ३ उद्देश्य । कारण। मवव प्रभु प्रवीन को। —तुलसी (शब्द०)। (ख) कहा कमी जाको (को०)। ४ मनोकामना । मनोरथ (को०) । राम धनी । मनसा नाथ मनोरथ पूरण सुखनिधान जाको मनश्चक्षु-सञ्ज्ञा पुं० [ सं० ] मन की मांख । अतश्चक्षु । अतर्दृष्टि । मौज धनी ।—तुलसी (शब्द०)। ४ मन । उ०—विफल होहिं उ०-देख रहे मानव भविष्य तुम मनश्चक्षु वन अपलक, सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनमा के।-तुनमी घन्य, तुम्हारे श्री चरणो से घरा आज चिर पावन ।-ग्राम्या, (शब्द०)। ५ बुद्धि । उ०-युगल कमल सो मिलन कमल पृ० ५३ । युग युगल कमल ले मग । पाँच कमल मघि युगल कमल लखि मनसना-कि० स० [हिं० मानस, स० मनस्यन् ] १ इच्छा मनसा भई अपग । —सूर (शन्द०)। ६ अभिप्राय । तात्पर्य । प्रयोजन । उ०-प्रभु मनगहि लवलीन मनु चलत बाजि कवि करना। विचार करना । इरादा करना । उ०-(क) भंवर जो मनसा मानसर लीन्ह कमल रस आय। घन हियाव ना पाव । भूपित उड़गन तडित धन जनु वर वरहिं नचाव ।- के सका झूर काठ तस खाय । -जायसी (शब्द॰) । (ख) पवन तुलसी (शब्द०)।