to ! मूर्धाभिषेक ३६६६ भूलथ मूर्धाभिषेक-सज्ञा पु० [सं० ] सिर पर अभिषेक या जलसिंचन अधोमुख नक्षत्र है। फलित के अनुमार इन नक्षन ने जन्म लेने- होना । (जमा कि राजाओं के गद्दी पर बैठन के समय होता वाला वृद्धावस्था मे दरिद्र, शरीर मे पीडित, कलानुरागी, है।) मातृपितृहता और प्रात्मीय लोगा का उपकार करनवाला मूर्ध, मूर्धा-सञ्ज्ञा पुं० [ स० मूर्वन् ] दे० 'मूर्द्ध', 'मूर्धा' । (मस्कृत होता है। व्याकरण के अनुसार 'मूर्द्ध और 'भूर्व' दोनो रूप होते है ।) १० निपुज । ११ पास । समीप । १२ मूरन । जिमीयाद । मूर्वा - सज्ञा स्त्री॰ [ ] मरोडफली नाम की लता जो हिमालय १३ पिप्पलीमूल। १४ पुष्कर मूल । १५ किमी पस्तु के के उत्तराखड को छोड भारतवर्ष मे और सब जगह होती है । नीचे का भाग या तल । पादप्रदेश । जंगे, पर्वतमून गिरिमूल | विशेष-इसमे सात आठ डठल निकलकर इधर उधर लता की १६ दुग । राष्ट्र । १७ किमी देवता का ग्रादिमा या वीज । तरह फैलते हैं । फूल छोटे छोटे, हरापन लिए सफेद रंग के मूल '-वि० [सं० ] मुख्य । प्रधान । खास । उ० -- ल्याउ मूल बल होते हैं। इसके रेशे बहुत मजबूत होते है जिससे प्राचीन काल वोलि हमारो नोई सैन्य हजूरी । पर चर दो,र बोलि ल्याए द्रुत मे उन्ह बटकर धनुप की डारी बनात थे। उपनयन मे क्षत्रिय सैन्य भयकर भूरी।-घुराज (गन्द०)। लोग मूर्वा की मेखला धारण करते थे। एक मन पत्तियो से मूल- यज्ञा पुं० [ मं० मूल्य, प्रा० गुल्न ] ६० 'मूल्य' । उ०- आधा सेर के लगभग सुखा रेशा निकलता है, जिससे कही काहीं पाज क मए माना क टका, चदन क मूत्र इवन विका /- जाल बुने जाते है। त्रिचिनापल्ली मे मूर्वा के रेशो से बहुत कीर्ति० पृ० ६८ । अच्छा कागज बनता है। ये रेशे रेशन की तरह चमकोले मूलक' '-शा पुं० [२०] १ मूनी। उ०—(क) कांचे घट जिमि और सफेद होते हैं। मूर्वा को जड प्रोपध के काम मे भो श्राती डारउ फोगे । सकउँ मेरु मूलक इव तोरी । -तुनमी (शब्द०)। है। वैद्य लोग इसे यक्ष्मा और खासी मे देते है। आयुर्वेद मे (स) जिनके दमन करालक फूटे । उर लागत मूलक इव टूटे । - यह अति तिक्त, कसली, उष्ण तथा हृद्रोग, कफ, वात, प्रमेह, तुलसी (गन्द०)। २ चौतान प्रकार के म्यावर विपा में से कुष्ठ और विषमज्वर को दूर करनवाला मानी जाती है। एक प्रकार का विप । ३ मूल म्वत्य । पर्या०-देवी । मधुरसा । मोरटा । तेजनी | नवा । मधुलिका। मूलक' - १ उत्तान्न करनेवाला । जनक | जमे, अनर्थमूलक, धनुश्रेणी । गोकणी । पीलुपी । नुवा । मूवी । मधुश्रेणी। भ्रातिमूलक । २ मूल नक्षा मे उत्पन्न । सुसगिका । पृथक्त्वचा । दिव्यलता । गोपवल्ली । ज्वलिनी। मूलकपर्णी-नशा पी० [ स० ] शोभाजन । सहिंगन का पेड । मूर्विका, मूर्वी-सज्ञा स्त्री॰ [स० ] मूर्वा । मूलकपोतिका -सा सी० [सं०] मूली [को०] । मूल'-सज्ञा पु० [ ] पेडो का वह भाग जो पृथ्वी के नीचे रहता मूलकम --मज्ञा पु० [ सं० मूलकर्मन् ] १ ग्रासन, उच्चाटन, स्तभन, है । जड । उ०-ए।ह ासा अटक्या रहै अलि गुलाब के मूल ।-बिहारा (शब्द०)। २. खान योग्य माटो मीठी वशीकरण, आदि का वह प्रयोग जो श्रोपचियो के मूल (जडी) द्वारा किया जाता है । मूठ । टोना । टोटका । जड । कद । उ०-सवत नहस मूल फल खाए । साक साइ सत वर्ष गवाए । —तुलसी (शन्द०)। विशप-मनु ने इसे उपपातका में गिना है । यो०-कदमू।। २ प्रवान कम। ३ श्रादि । प्रारभ । शुरू । उ०—(क) उमा सभु सीतारमन जो विशप पूजा आदि म कुछ कर्म प्रधान होते है और कुछ अग। मा पर अनुकूल । ती वरना सा होइ फुर प्रत मध्य अरु मूलकार सञ्चा पुं० [ म० ] मूल ग्रंथकर्ता [को०] । मूल । —विश्राम ( शब्द०)। (ख) नेतु मूल सिव सोभिज मूलकारण-सञ्ज्ञा पु० [सं० पादिकारण। प्रवान हेतु । उ०- केसव परम प्रकाश । -केशव ( शन्द०)। आदि कारण । समस्त शब्दा का मूलकारण ध्वनिमय ओकार है। -गीतिका उत्पात्त का हेतु । उ०-करम को मूल तन, तन मूल जीव जग (भू०), पृ० १ । जीवन को मूल प्रति मानद ही परियो ।-पद्माकर (शब्द०)। मूलकारिका-तशा की० [ 1१ मूल न 4 के पद्य । २ मूलधन ५ असल जमा या धन जो किसी व्यवहार या व्यवसाय मे की एक विशेष प्रकार की वृद्धि | ३ चडी । ४ भट्ठो। लगाया जाय । असल । पूंजी। उ०-ौर बनिज मे नाही मूलकृच्छ-सज्ञा पुं० [सं०] मिताक्षरा आदि स्मृतियो मे वणित लाहा, होत मूल मे हानि । —सूर (शब्द०)। ६ किसी वस्तु ग्यारह प्रकार के पर्णरच्छ व्रतो मे से एक व्रत जिसमे मूली प्रादि के प्रारभ का भाग। शुरू का हिस्सा । जैसे, मुजमूल । ७ विशेप जडो क क्वाथ या रस को पीकर एक मात व्यतात करना नीतू । बुनियाद। ८ न यकार का निज का वाक्य या लेस पडता था। जिसपर टीका आदि की जाय । जैसे,—इस सग्रह मे रामायण मूलकेशर -सज्ञा पुं० [सं० ] नीबू । मूल और टीका दोनो है। ६ सत्ताइस नक्षत्रों में से मूलखानक-सञ्ज्ञा पु० [ स० ] एक प्राचीन वरणसकर जाति जो पेडो उन्नीसवाँ नक्षत्र । को जड खोदकर जीविका निर्वाह करती थी। विशेष—इस नक्षत्र के अधिपति निऋते हैं। इसमे नौ तारे हैं मूलप्रथ-तज्ञा पुं॰ [ स० ] असल न य जिसका भापातर, टीका आदि जिनकी प्राकृति मिलकर सिंह की पूंछ के समान होती है। यह की गई हो। स० स०
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२३७
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