ग्राम स० स० मूंबातीत ६३ भूरुख, मूरुष या धूप सहने से पित्त कुपित होकर वस्तिदेश मे वायु से आवृत काहे चद घटत है काहे सूरज पूर । काहे होई अमावस काहे हो जाता है। इसमे दाह होता है और मूत्र हलदी की तरह लागे मूर ।-जायसी (शब्द०)। ४ अफ्रीका मे रहनेवाली पीला और कभी कभी रक्त मिला आता है। इसे 'कडक' कहते एक जाति । हैं । (११) पित्तज मूत्रौकमाद, जिममे पेशाब कुछ जलन के साथ सरख-वि० [ स० मूर्ख ] दे० 'मूर्ख' । उ०-इतनी जउ जानत गाढा गाढा हाकर निकलता है और सूखने पर गोराचन के मन मूरख मानत या ही धाम ।-पूर०, ११७६ । चूर्ण की तरह हो जाता है, और (१२) कफज मूत्रीकमाद, मरखताई-गज्ञा स्त्री॰ [ स० मूखता, दि० मूखता + ई (प्रत्य॰)] जिसमे सफेद और लुमावदार पशाब फष्ट से निकलता है । मूर्खता । अज्ञता । नासमझी । नादानी । उ०—(क) यो पछितात मूत्रातीत-सज्ञा पुं० [ म० ] एक प्रकार का मूत्ररोग। उ०-मूतते कछू पदमाकर कासो कहो निज मूरखताई। —पद्माकर (शब्द०)। समय धीरे धीर मूत्र उतरे इस रोग को मूत्रातीत कहते है । (ख) त्या वे सब बेदना रोद पीडा दुखदाई। जिन बखसीसति -मावा०, पृ० १७५ । सदा घमडहिं मूरखताई।-श्रीधर पाठक (शब्द॰) । मूत्रातीसार-सज्ञा पुं० [ स० ] मधुमेह । प्रमेह [को०] । मरचा-सञ्ज्ञा पु० [हिं० मोरचा ] दे० 'मोरचा'। मूत्राशय-सज्ञा पुं॰ [ स० ] नाभि के नीचे का वह रथान जिसमे मूत्र मरछना@-सज्ञा स्त्री० [सं० मूर्च्छना ] ८० 'मूच्छना' । उ०- सचित रहता है । मसाना । फुकना। ( क ) पचम नाद निखादहि मे सुर मूरछना गन मूत्रासाद-सा पु० [ स० ] मूत्रोकमाद नामक मूनाघात रोग । सुभावनि । -देव (शब्द०)। (ख) मूरछना उघटे उत वे इत मूत्रका-सश स्त्री॰ [ ] सल्लकी वृक्ष । सलई का पड । मो हिय मूरघना सरसाना ।-गुमान (शब्द॰) । मत्रोत्सग-सचा पु० [ म० भूगोत्सग ] दे० 'मूनमग' । उ०-विगुण मरछना'--सञ्चा स्त्री० ८० 'मूर्या' । वायु से उत्पन्न हुइ इस व्यावि का मूनोत्सग कहते ह । -माधव०, मूग्छना--क्रि० अ० पूछित होना । वहोश होना । पृ०१७६। मरछा-सशा स्त्री॰ [ स० मूळ ] दे० 'मूछी' । उ०—दिन दिन मनित-वि० [ ] १. मूत्रसपर्क के कारण अशुचि या गदा । तनु तनुता गहा लही मूरछा तापु। पिक द्विज ये वोलत न २ मून के रूप मे निकता हत्रा (को०। जनु बिरहिनि देत सरापु । -गुमान (शब्द॰) । मदरी-सा स्त्री० [ स० मुद्रिका ] दे० 'सुदरी' । उ०—यह तोप कसी वनी परी मूदरी हाय । उन कोमल अगुरीन ताज - मरत-राशा सी० [म० मूति दे० 'मूर्ति' । उ०--निसि दिन व्यावत वा मूरत का आनदधन सो मीत ।-घनानद, पृ० ५८३ । जाय।-शकुतला, १० ११६ । मना'-सञ्ज्ञा पुं० [ देग० ] १ पीनल वा लोहे की अंकुसी जो टेकुए मूरति सच्चा स्त्रो० [स० मूति ] ३० मूत' । उ०-बार बार मृदु मूरात जाही। लागाह तात्त बयार न मोही ।- के सिर पर जड़ा रहती है और जिसमे रस्सी या बारा फसा मानस, २०६७। रहता है। २ एका झाडी जिसके फल बेर के समान सुदर होते हैं । मूरतिवता-वि० स० मूर्ति + वत् (प्रत्य॰)] मूर्तिमान् । देहवारी। सशरीर । उ०-२.पन गारे दाख तह कमा । मना-क्रि० अ० [स० मृत, प्रा० मुन्न + हि० ना (प्रत्य॰)] मूरतिवत तपस्या जैमी ।—तुलसी (शब्द०)। मरना । दे० 'मुचना'। मनिस-सगा पुं० [ प्र० ] मित्र । सहायक । मददगार । उ०—मुझको मूरध-सशा पु० [ म० मूर्दा ] द० ‘मूद्धा' । उ०—(क) कौन्हे बाहु मारा ये मेरे हाल तगयुर न कि है। कुछ गुमां और ही धडक ऊरव को मूरथ के खाल ग, लेश ना दया का ताको कोपाहे को भारा है।-रघुराज (शब्द०) । (ख) मूरध ऊरवपुड़ दिए से दिले मूनिस के । - श्रीनिवास ग्र०, पृ० ८५ । अघ झुड छीनकर ।गापाल (शब्द०)। मनी -सशा पु० [ स० मानी ] चुप । मौन । उ०-खरो मे जू खूनी । रहे क्यो न मूनी ।-ह० रामो, पृ० १३६ । 2- सशा स्त्री॰ [ स० मूर्धा ] द० 'मूद्धा'। मरधा- मवाफ-सञ्ज्ञा पुं० [ फा मूबाफ ] चोटा गूथन बावन का डोरा या मरा सञ्चा पु० [ सं० मूलिका ] मूली । फीता । उ०—मूठे पट्ट की है मूवाफ पटी चोटी मे । देखत ही मुरि-सञ्चा सी० [ स० मूल ] १ मूल । जड। २ जडो । बूटी। जिसे आँखा मे तरा पाती है। भारतेंदु प्र०, भा० २, वनस्पति | जमे, जीवनमूरि । उ०-पूरदास प्रभु विन क्याँ जीवो जात सजीवन मार-सूर (शब्द॰) । पृ० ७६०। मर-सक्षा पु० [सं० मूल ] १ मूल । जड । २ जडी। ३ मूरिस-वि० [अ०] १ पूर्वज । वारिस करनवाला । २ वरा प्रवर्तक । ३ पैदा करनवाला । उत्पन्न करनेवाला। मूलधन । असल । उ०—(क) दरम मूर देतो नही जी ला मीत चुकाय । बिरह व्याज वाको अरे नितहू वाढत जाय ।- -सच्चा स्त्री॰ [स० मून, हिं० मूर+ई (प्रत्य॰)] दे० 'मूनी' । रसनिधि ( शब्द०)। ( ख ) कोई चले लाभ सो कोई मूर मूरुख, मूरुषल-वि० [ स० मूख, हिं० मूरख ] ३० 'मूख' । उ०- गॅवाय । —जायसी (शब्द०)। (ग) चल्यो वनिक जिमि मूर (क) ता सन प्राइ कोन छन मूल्ख अवगुन गेह । —मानस, गंवाई। —तुलसी (शब्द॰) । ४. मूल नामक नक्षत्र । उ० ३।११ (ख) दीठिवत कह नोयरे, अध मूरुखहि द्वारे । जायसी 1 मरी-
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२३४
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