मनमत्थ ३७६० मनरंजन मनमत्थ-मज्ञा पुं॰ [ म० मन्मथ ] २० मन्मथ' । उ०-उपामग तूनीर पुनि इषधी तून निपग | भाथ मनो मनमत्थ की पिंडुरी भरी सुरग 1-अनेकार्थ०, पृ० ३६ । मनमथ-सज्ञा पुं॰ [ म० मन्मथ ] ० 'मन्मथ' । यौ०--मनमथपिता = हृदय । उ०—स्वातहृदय मनमपिता प्रातम मानस नाँउ ।-नद० प्र०, पृ० ३० । मनमथन-मज्ञा पुं॰ [ मं० ] कामदेव [को०) । मनमथी-वि० [हिं० मन्मथ + ई ( प्रत्य० )] मन्मथ सबधी। उ०—करि रस अनग क्रीडा बढिय मुबे न मुमन मनमथी।- पृ० रा०,२४।४६० । मनमानता- वि० [ हि० मन + मानना [ वि० सी० मनमानती ] मनमाना। मनचाहा । मनावाछित । उ०-मब ग्वाना न प्रमन्न हो निधडक फूल तोड मनमानती झेनिया भर ली। - लल्लू (शब्द०)। मनमाना-वि० [हि० मन + मानना ] [वि॰ स्त्री० मनमानो ] १ जिसे मन चाहे । जो मन को अच्छा लगे । उ०–तुलमी विदेह की मनेह की दमा सुमिरि, मेरे मनमाने राउ निपट मयाने हैं । -तुलसी (शब्द०)। २ मन के अनुकूल । मनोनीत । पसद । उ०-पालने आन्यो, मवहि अति मनमान्यो नीको सो दिन धराइ, मखिन मगल गवाइ, रगमहल मे पढ्यो : कन्हैया । —सूर (शब्द०)। ३ यथेच्छ । इच्छानुकूल | मनचाहा । जैसे,—आप किसी की बात तो मानते ही नही । हमेशा मनमाना करते है। मनमानिबg -वि० [हिं० मन +-मानना ] मनमाना। यथेष्ट । अत्यधिक । प्रचुर । उ०—जिते यज्ञ के योग्य तिते द्रव सब मनमानिब ।-ह० रामो, पृ० १० । मनमानी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० मनमाना ] इच्छानुकूल काम करने की प्रवृत्ति । स्वेच्छाचारिता। मनमुख-वि. [ हिं० मन X मुखी ] २० 'मनमुखी' । उ०-इन चारो प्रकार के लागो मे कोई गुरुमुख नही है सब मनमुख है। -कवीर म०, पृ० ३६२ । मनमुखी-वि० [हिं० मन + म० मुख्य ] मनमाना काम करने- वाला । स्वेच्छाचारी। उ०—गुरु द्रोही श्री मनमुखो नारी पुरुप विचार । ते नर चौरामी भ्रमहि जब लगि शशि दिनकार | - कबीर (शब्द०)। मनम टाव-सक्षा सी० [हिं० मन + मोटा ] मन म भेद पडना । मन मोटा होना । वैमनस्य होना । क्रि० प्र० पहना ।—होना । मनमेलू-वि० [ हिं० मन + मिलाना ] मन मिलानेवाला । हितू । उ० - मो मी मनमेलू मो रूखी परति ग्रचगरी निपट पुढाई ही की।-घनानद, पृ० ५४१ । मनमोदी-मजा पु० [?] एक प्रकार का टिंगल गीत । इसमें पहले दोहा और फिर कडखा रहता है। उ०-गुण दोहै सी भाल गत, ऊपर कडपो आण। हुवै गीत मनमोद हद वद रघुपत वाखाण | -रघु० २०, पृ० १७३ । मनमोदक-सञ्ज्ञा पुं० [हि० मन + मोदक ] अपनी प्रसन्नता के लिये बनाई हुई अमभव या करिपत वात । मन का नइ । उ०- वृथा मरहु जनि गान बजाई । मन मोदकन्हि कि भूम्ब बुताई।-तुनमी (शब्द॰) । मनमोहन' - वि० [हिं० मन + मोहन ] [वि० सी० मनमोहनी ] ? मन को मोट्नेवाला। मन को लुभानेवाला । चित्ताकर्षक । मुग्धकारक । उ०—(क) रूप जगत मनमोहन जेहि पद्मावति न.उं । कोटि दरव तुहि देहौं मानि कोनि इक ठाई। जायगी (शब्द०)। (ब) पटुली कनक की निहीं बानक को बनी मन- मोहनी । -नद० ग्र०, पृ. ३७५ । २ प्रिय । प्यारा । मनमोहन २.-मज्ञा पु० १ श्रीकृष्णचद्र का एक नाम । उ०-मनमोहन खेलत चौगान । द्वारावती कोट कचन मे रज्यो रुचिर मैदान । -मूर (शब्द॰) । २ एक मात्रिक छद का नाम जिनके प्रत्येक चरण मे चौदह मानाएं होती है, जिनमे मे अतिम मात्रानो का लघु हाना यावश्यक है। जैसे-तुमहि निहोरे खुले करम तुमही भजे पावही परम । ३ एक प्रकार का मदावहार वृक्ष। विशेष—यह वृक्ष वरमा, जावा प्रादि देशो मे हाता है। यह मोचा और ऊंचा होता है। इसको लकडी साफ हाती है और इसपर रग खूब खिलता है। इसके फूत बहुत मुगघित होते हैं जिनसे अतर निकाला जाता है। इस इतर को 'इलग' कहते हैं और यूरोप मे इसको बहुत खपत होती है। इसे अब लोग वगाल मे भो बागो मे लगाते हैं । यह बीजो से उगता है। मनमौजी-वि० [हिं० मन + मौज ] मन की मौज के अनुसार काम करनेवाला। मनरज-वि० [हिं० मन+रजना ] मनोरजन करनेवाला । मनोरजक । उ०—तुमसो को मान क्यो बहु नाहक मनरज । वात कहत यो बाल के भरि पाए हग कज । मतिराम (शब्द०)। मनरजन'-पि० [हिं० मन+रजना ] मनोरजन करनेवाला । मन को प्रमन्न करनेवाला। मनोरजक । उ०—(क) भृगो री भज चरण कमल पद जहं नहिं निशि को ग्राम । जहं विधु भान ममान प्रभा नख सो वारज सुखराम । जिहिं किंजल्क भक्ति नव लक्षण काम ज्ञान रस एक । निगम सनक शुक नारद शारद मुनिजन भृग अनेक | शिव विरचि खजन मनर जन छिन छिन करत प्रवेश । अखिल कोश तह वसत सुरत जन परगट श्याम दिनेश । सुनि मधुकरी भरम तजि निर्भय राजिव वर की आम । सूरज प्रेम सिंधु मे प्रफुलित तह चलि करे निवास ।- मूर (शब्द०)। (ख) थिरकत सहज सुभाव सौं चलत चपल गत सैन । मनरजन रिझवार के खजन तेरे नैन । -रसनिधि (शब्द०)। मनरजन'-सशा पुं० [हिं० ] दे० 'मनोरजन' । ७
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