पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२१३

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मुरका ३६७२ मुरझना और तन जाना। किमी अग का किसी और इस प्रकार है। इसके पर कोमल होते ह और नर मादा दोनों प्राय एक मुड जाना कि जल्दी सीधा न हो। मोच खाना । जैसे, बाँह से ही होते हैं। मुग्कना, कलाई मुरकना । ५ हिचकना । रुकना । उ०—लोचन मुरगाली-सञ्ज्ञा सी० [ सं० मुरङ्गिका ] मूर्वा । भरि भरि दोउ माता के कनछेदन देखत जिय मुरकी।-सूर मुरचग-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मुँहचग ] लोहे का बना हुआ मुह से (शब्द०)। ६ विनष्ट होना। चौपट होना। उ० - साहि सुव वजाने का एक प्रकार का वाजा जिससे ताल देते हैं । मुंहचग। महावाहु सिवाजी मलाह बिन कोन पातसाह को न पातसाही मुहा०-मुरचग झाड़ना = आनद करना । चन करना। (व्यग)। मुरकी।-भूपण (शब्द०)। मुरचा-सज्ञा पु० [फा० मोरचह ] ६० 'मोरचा' । उ०—कहैं क्वीर मुरका-सज्ञा पु० ['श०] १ बहुत ऊँचा और बडे बडे दाँतोवाला काया का मुरचा सिकल किए वनि पावै ।-कवीर श०, भा० मु दर हाथी। २ गडेरियो का भाज जो वे अपनो विरादरी ३, पृ०२६। का देते हैं। मुरची-सज्ञा पुं॰ [ स० ] पश्चिम दिशा के एक देश का नाम । मुरकाना-क्रि० स० [हिं० मुरकना का स० रूप ] १ फेरना । मुरछाना-क्रि० अ० [स० मुर्छन] १ शिथिल होना । २ घुमागा। २ लौटाना । घुमाना। वापस करना। ३ किमी अचेत होना । वेसुध होना । वेहोश होना । उ०-अधर दमनन भग मे मोच लाना । ४ नष्ट करना । चौपट करना । भरे कठिन कुच उर लरे परे सुख सेज मन मुरछि दोक ।-सूर मुरकी 1-मज्ञा ली० [हिं० सुरकना (= घूमना)] कान मे पहनने को (शब्द०)। छोटो बाली । उ० -बदन फेरे हॉम हेरि इत करि ललचौहैं मुरछल-सज्ञा ० [हिं० मोर+छड़ ] दे० 'मोरछल' । नन । उर उरकी दुरकी लुरक जुर मुरका कर सैन ।-स० मुरछा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० मुर्छ ] दे॰ 'मूर्ची' । उ०-सुनत ही सप्तक, पृ० ३६६ । २ सगीत मे आगे पीछे के स्वरो पर होते हरिदास को मुरछा पाइ। -दो सौ बावन०, भा० १, समय झटके से किसी स्वर पर जाना। पृ० १८३ । मुरकुल -सञ्ज्ञा स्त्री॰ [दश०] एक प्रकार की लता जो हिमालय मे होती मुरछाना-क्रि० अ० [स० मुच्छो ] अचेत होता । मूच्छिन है और सिक्किम तक पाई जाती है । इसकी शाखामो मे से एक होना । वेहोश होना। उ० -तात मरन श्रवण कृपानिधि प्रकार का रेशा निकलता है जिससे रस्मियां आदि वनाई जाती धरणि परे मुरछाई । मोह मगन लोचन चल धारा विपति हृदय है । इसे 'वेरी' भी कहते हैं। न समाई।-मूर (शब्द०)। मुरखाई-सञ्चा स्त्री॰ [स० मुर्ख + हिं० भाई (प्रत्य॰)] मूर्खता । मुरलावत-वि० [सं० मुर्छा+वत (प्रत्य०) ] मूछिन । वेहोश | वेवकूफी। अज्ञता। उ०--नपु करति हर हित सुने विहंसि उ० -धरम बुग्धर श्री रघुराई। मुरछावत भए वटु कहत मुरखाई महा ।-तुलमी (शब्द॰) । मुनिराई । -मधुसुदन (शब्द०)। मुरगा'--सज्ञा पुं॰ [फा० मुर्ग] [ स्त्री० मुरगो ] १ एक प्रसिद्ध पालतू मुरछित-वि० [ स० मूछित ] दे० 'मूच्छित' । उ०-जोगी पक्षी। कुक्कुट । उ०--बै है नही मुरगा जिहि गांव भटू तिहि अकटक भए पतिगति सुनत रति मुरछित भई ।-तुलसी गाव का भार ना ह्व हे।--ठाकुर०, पृ० ३० । (शब्द०)। विशेष—यह पक्षो सफेद, पीले और लाल आदि कई रगो का और मुरज-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ मृदग। पखावज । उ०—(क) कोउ खडा होने पर प्राय एक हाय से कुछ कम ऊंचा होता है। मजु मुरज अमोल ढोलन तवल अमल अपार हैं।--रघुराज इसके नर के सिर पर एक कलगो होतो है । यह अपनी शानदार (शब्द०)। (ख) रुज मुरज डफ ताल बांसुरी झालर को चाल और प्रभात क समय 'कुकडं कू' बोलने के लिये प्रसिद्ध झकार । —सूर (शब्द०)। २ एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसमे है। यह प्राय घरा मे पाला जाता है। लोग इसे लडाते और पद्य के अक्षरो को इस प्रकार रखते हैं कि वे मृदग को आकृति इसका मास भी खाते है । इस बच्चे को चूजा कहते हैं। के बन जायं । पद्य के अनेक वयो मे से एक का नाम । उ०- २ पक्षी। चिडिया। खग कमल ककन डमरु चद्र चक्र धनु हार । मुरज, छत्रजुत वध बहु पर्वत वृक्ष केंबार ।-भिखारी० ग्रं॰, भा॰ २, पृ० २०३ । मुहा०-मुरगा वनाना = एक प्रकार की यत्रणा। अपराधी मुरजफल-सज्ञा पुं॰ [ स० ] कटहल का वृक्ष । को उकई वैठाकर घुटनो के बीच से निकले दोनो हाथो से मुरजित् -सज्ञा पुं० [सं० ] मुर नामक राक्षम को जीतनेवाले, श्रीकृष्ण । मुरारि । मुरगा-सञ्चा स्त्री॰ [ स० मुर्वा ] •• 'मूर्वा' । मुरजीवा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मरना + जीना ] गोताखोर । दे० मुरगावी-सज्ञा स्त्री॰ [फा० मुरगावो] मुरगे को जाति का एक पक्षी। 'मरजिया'। उ०-उतने ही मुरजीवा की तरह रत्न और जलकुक्कुट । जलमुरगा। मोती लेकर यावंग। सुदर ग्र०, भा० १, पृ० २०५ । विशेप-यह जल मे तैरता और मछलियां पकडकर खाता है । मुरझना-क्रि० अ० [सं० मूर्छन ] १. मूर्छित होना। उ०- यह पानी के भीतर बहुत दर तक गोता मारकर रह सकता गडन सो मिलि ललित गउमडल मडित छवि । कुडल सो घचेत । कान पकडवाना।