३७७२ मनचला उ०-(क) गगन मंडल माँ भा उजियारा उलटा फेर लगाया । मनकना- क्रि. अ. [ अनु० ] १ हिलना | डोलना । चेप्टा करना । कहै कबीर जन भए विवेशी जिन मत्री मन लाया। कबीर हाय पर चलाना। उ०-पाए दरवार बिललान छरीदार (गन्द०)। (ख) छमिहहिं मज्जन मोर ढिठाई । मुनिहहिं देखि जापता करनहारे नेकटु न मनके । - भूपण (गन्द०)। बाल बचन मन लाई |- तु नसी (शब्द०)। (ग) किए जो २ तर्क वितर्क करना ची चपड करना । परम तत्व मन लावा। घूमि मात सुनि और न भवा । मनकरा-वि० [ [हिं० मणि + कर ( प्रन्य. 1 चमकदार। - जायसी (शब्द॰) । (२) प्रेम करना । प्रासक्त होना । प्रकाशमान । उ० - दुदृज नवाट अधिक मनकग। णकर देखि उ.- पवन मांस तोसो मन लाई। जोवै मारग दृष्टि विछाई । माथ भुई धरा ।—जायसी (मन्द )। -जायसी (शब्द०)। मन से उतरना = (१) मन मे भादर मनकर्पन वि० [स० मन. + कर्पण) आकर्पक । उ.-याको नाम एक भाव न रह जाना। तिरस्कृत होना । घृणित ठहरना । मकर्पन | जन दर्पन मदने मनकर्पन ' - नद • ग्र०, पृ० २४४ । (२) याद न रहना । विस्मृत होना । मन से उतारना = (१) मनका'-मज्ञा पुं० [ म० मणि क या मरिणका ] १ पत्यर लाटी मन मे पहले का सा आदर भाव न रखना । तिरस्कार करना । यादि का बेधा हृया गोत्र पड या दाना जिमे पिरोकर घृणा करना । (२) चिन से उतारना । विस्मृत करना । माला या मुमिरनी आदि बनाई जाती है गुरिया । 30--- भुलाना । मन हरना = मुग्ध करना । मोहित करना । मोह माला फेरन जग मुपा गया न मन का फेर । कर का मनका लेना। अपने ऊपर अनुरन करना । उ०—(क) चेटक लाप छांडि के मन का मनका फेर ।-कबीर (शन्द०)। २ माला हहि मन जब लागे हो गरि फेंट। माठ नाट उठि भाहिं या सुमिरनी। (क्व०)। ना पहिचान न भेट ।-जायमी (गन्द ) । (ख) वह देखो मनकामज्ञा पु० [ मं० मन्यका (= गले की नम) । गरदन के पीछे युवति व द मे ठाढी नोल बमन तनु गोरी । सूरदाम मेरो मन की । हड्डा जो रीढ के बिलकुन ऊपर होती है । वाको चितवन देखि हरेउ री-सूर (शब्द०)। (ग) कानन लमत बिजुरिया मन हरि लीन । निन पर पर विजुरिया जिन मुहा---मनका ढलना या ढलकना = मरने के सपय गरदन टेटी रचि दीन I-~रहीम (शब्द॰) । (घ) स्वप्न रूप भापण मुधि हो जाना । मृत्यु क समय गरदन का एक और झुक जाना । करि करि । गयो दुहुन के यहि विधि मन हरि ।-श. दि. विशेप-यह अवस्था ठीक मग्ने के समय होती है, और इसके (शब्द०)। मन ही मन रिंधना = जलना। मन ही मन दुखी उपरात मनुष्य नही बचता। होना। मन ही मन ईर्ष्या करना। उ.--जब तक ख्याल श्रा मनकामना-राज्ञा स्त्री॰ [हिं० मन + कामना ] मनोरथ । अभिलापा जाता और वह मन ही मन रिंधने लगता ।-अभिशम, इच्छा । उ०- मुनु सिय मत्य अमीत हमारी । पूजहि मनकामना पृ० १०। किसी का मन हाथ में लेना या करना - वशीभूत तुम्हारी।-तुलमी (शब्द०)। करना । अपने वश मे करना । मन ही मन = हृदय मे । मनकूला-वि० सी० [अ० ] स्थिर या स्थावर का उनटा । चर । चुपचाप विना कुछ कहे हुए । भीतर ही भीतर । उ०-(क) यौ०-जायदाद मनकूला = चर मपत्ति। गैर मनकूला - स्थिर । ललिता मुख चितवत मुसुकाने। आप हंसी पिय मुख भवलोकत स्थायी । स्थावर । दुहुनि मनहि मन जाने ।—सूर (शब्द॰) (ख) प्रथम केलि तय कलह की, कथा न कछु कहि जाय । अतनु ताप तनही मनकूहा-वि० स्त्री० [अ० मनकूहह, ] जिमके माथ निकाह हुना हो । विवाहिता । पाणिगृहीता। जमे, मनकहा औरत । महै, मन ही मन अकुलाय ।-पद्माकर (शन्द०। मनक्कना-क्रि० अ० [हिं०] 'मनकना'। उ.- फिरव्यान ३ इच्छा । इरादा । विचार । कुतु झर वसु कक्को। मनो वीजलट्टी कुलट्टा मनक्की । मुहा०-मन करना= इच्छा करना । चाहना। उ०-मन न -पृ. रा०, २४३१५७ । मनावन को कर देत रुठाय रुठाय । कौतुक लाग्यो पिय प्रिया मनखा-मज्ञा पु० [ मै० मनुष्य ] » 'मनुष्य'। उ०-मनखा जनम खिजहु रिझावति जाय ।-विहारी (शब्द०)। मनमाना = पदारथ पायो ऐसो बहुर न पाती।-मतवाणी०, पृ० ६८ । अपने मन के अनुसार । यथेच्छ मन चाहा। उ.- दुई ओर मनगढत-वि० [हिं• मन + गढ़ना ] जिसकी वास्तविक सत्ता न की सहचरी करत दुहुन को भीर । मन मान्यौ मौसर मिल्यौ हो, केवल कल्पना कर ली गई हो। कपोलकल्पित । जैसे,- मिटी मदन की पीर ।-व्रज० ग्र०, पृ० ६५ । मन होना= आपकी सब बातें मनगढत ही हुआ करती हैं। इच्छा होना। उ०- उमगत अनुराग मभा के मराहे भाग देखि दमा जनक की कहिवे को मनु भयो।- तुलसी (शब्द॰) । मनगढत--सज्ञा सी० कोरी कल्पना। कपोलकल्पना। जैसे,- यह सब पापकी मनगढ़त है। मनमाना घर जामा मनमानी । स्वेच्छाचारिता । मनगमता -वि० [हिं० मन+गम, गुज० मवु (= अच्छा मन-मज्ञा पु० [सं० मणि ] मणि । बहुमूल्य पत्थर । लगना, भाना) ] मनोभीष्ट । मन को रुचनेवाला । उ०- मन-सझा पु० [ 7 ] चालीम मेर का एक मान या तौल | मनगमता पाम्या नहीं ऊँटकटाला खाइ 1-ढोला०, दू० ४२७ । मनई-सज्ञा पु० [सं० मानव ) मनुष्य । अादमी। उ० - वरमे मनचला-वि० [हिं मन+चलना ] १ धीर । निडर । जैसे, नीर झराझर मनई उबर न पाए ।-गि० दा० (शब्द०)। मनचला सिपाही । २. माहसी । हिम्मतवाला । ३, रसिक ।
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