माही ३६३१ 70 - RIT दिनोर दड या चद्र यम यम माह-प्रव्य० [हिं०] 'माहि' । मे। पर । उ०-नचर देह पर फूली के ग्रामपाल उत्पन हो जाने हैं। मे गरी, माटो परी छिति माही। अतुलित बन प्रताप तिन्द पाही। -तुलसी ग्रादि भी करते है। (शब्द०)। मुहार-माई लगना = माई पा 'कमर ने रे र माही-सशा मी० [फा० ] मछली। उ०-माही जल मृग के मु तृन पटे देना। सज्जन हित कर जीव नुन्धक धीवर दुष्ट नर चिन कारन माहू-पग पुं० [ 'रा०] गनगना नाम बग्मानी पीना प्राय दुप जीव । - वज० ग०, पृ० ७५ । कान में घुस जाता है। गिजा। यो०-माहीगीर । माहीपुश्त । माहामरासिब । माहूद-वि० [अ० ] गा दिन म नाग।। 50-घर पार माही-सा सी० [सं० माहेय ] दक्षिण देश को एक नदी का नाम ठीका जो पूरा हुग्रा ।-धीर गं०. पृ. १३४ । जा सभात की साडी म गिरती है। माहेद्र'-वि० [ म० माहेन्द्र ] [१० पी11540] १ . माहीगीर-राम पं० [फा०] मछतो पाउनेवाला । मछुवा देवता मद्र हो । २. मद मयो । रुद्र वो माहीपुश्त'-वि० [ फा०] जो मछली का पीठ की तरह बीच मे माहेद्र :-मग पुं० [ 10 ] १ जनिया के एक सामान उभरा हुया और किनारे किनारे ढालुआँ हो । नामक वैमानिक देवगण मे है। २ एक पत्र ITI : माहीपुरत-सज्ञा पुं० एक प्रकार का कारनोवी का काम जो वीच मे वार के अनुसार भिन्न भिन्न रसा में पास in Th उभरा हुआ और इधर उधर ढालुमा हाता है। जिममे याया करने का विधान है। माहीमरातिव-मग पुं० [फा०] राजात्रा क आगे हाथी पर चलने विशेप-यह याग प्रति चार तार पर 4 :'। वाले सात झड जिनपर अलग अलग मछली, साता ग्रहा आदि प्रतिदिन के दहा में ये चार चार यागमन मिन कमेनी की प्रातिर्या कारचोया की बनी होती है। रहते ह-पाहद, वगण, वायु पार यन । ये सारा पा .. के प्रतिदिन इस प्रकार पाया करत'- विशेप--इस प्रकार के झडा का प्रारभ मुगलमाना के राजत्व दिन प्रथम दड काल में हुआ था। (१) सूर्य, (२) पजा, (३) तुला, तृतीय : नारा रवि अजगर, (५) सूर्यमुसा, (६) मछली और (७) गोल, ये मात वायु वाण TIER शकले झडो पर हातो है। माहद वायु पदण भौम वम्ण माहीयत-सरा पी० [अ०] २० 'माहियत' को०] । पायु बुध माह्न स० मध्य ] विचला। मध्य का। वीच का। माहीला@i-० [स वायु वगण गुरु वायु वरुण यम उ०-माहीले कीये जीमणी अपी कालो तिल भमर जीसो।- शुक्र माहंद्र वायु बी० रासो, पृ० ७७ । दमा शनि यम मान वायु गरण माहुट-गश पुं० [हिं० ] ३० महावट' । उ०-नन चुवहिं जम इन सारी योगो मे माहेद्र योग विकार या पार, वायु माहुट नीरू ।-जायमी ग० (गुप्त), पृ० ३५९ । नित्य फिगनेवाला प्रार यम मृ'मायामहा जाता। माहुर-सग पुं० [सं० मधुर, प्रा० मातुर ( = विप) ] विप । जहर । ४ मुश्रुत के अनुसार ए देवग्रह जिम्मा तमग गे में पन्न ७०-(क) साप वीछ को मम है, माहुर झार जाय। विकट नारि के पाले परा काट करजा खाय । --कबीर (शब्द॰) । पुरप मे माहात्म्य, शौर्य, शाबर मुदिता, पमरण पान गुला एकाएक पा जाते हैं। ( ख ) दानव देव उच पर नाचू । अमिय मजोवन माहुर ५ जना के अनुसार चौर वर्ग का नाम। मीचू । —तुलसी (शब्द०)। माहेद्रवाणी- पी० [ मान्द्रयाणा ] नराम मनुशार मुहा०-माहुर फी गांठ = (१) मारी विपली वस्तु । (२) प्रत्यत एक नदी का नाम। दुष्ट या कुटिल मनुष्य । माइंद्री-सा [ म० माहेन्दी .. दागा। माल-सा पु० [सं० ] महुत के गोप मे उ-पन्न पुग्प । मायन । ४. मति मागमा मन पराग मा?-राज्ञा स्त्री० [२०] एक छोटा मोटा जा मरमा, राई यादि की र । ५. ५ मा . । ६ Ritvik (a) फगन पर लगता है। माहेतावा- पु. { sti j1चमचा । विशेष-यह कीटा राई, गरगो, मूली प्रादि की फसन म उनके उठलो पर फूलन के रागय या उसक पहले भदे द देता है, माहेय-fi [ to ] [Fi० मा 14...। जिससे फमल नितांत हीन कर न हो जाती है। यह माग्न माध्य'-संस पु० १.५। २. म . (0)! ३. प्पा का मुनानु.)। रग का परदार नुगि त भागार का नाम होह मोर जाड के दिना में फलस पर लगता है। याद पानी यरस जाय तो ये माया-... 1 1 11: कोड़े नष्ट हो जात है। प्राय. पायक यदली दिनो मे, जय मादल-11 CJए ग..34 "८९१ । पानी नहीं दरसना, ये काड भई देते है भोर फमत गदठली माहेश-Hि. Hui मदरसा बग यम .
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१५४
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