मायव ३६११- मायापात्र जव 1 दया। उ०-इक तो हायल रहत ही मायल ह वा चाय । तापर घायल तेहि पाश्रमहिं मदन गयऊ। निज माया वसत कै गई पायल वाल बजाय ।-रामसहाय (शब्द॰) । २ निरयमऊ । —तुलसी (शब्द॰) । (घ) वोले विहँसि महेश हरि मिश्रित । मिला हुआ । जैसे,—सब्जी मायल सफेद रंग का माया बल जानि जिय |- तुलसी (शब्द०)। १२ कोई पक्षी देखने में बहुत सुदर लगता है । आदरणीय स्त्री। १३ प्रज्ञा । बुद्धि। अक्ल । १५ शाळा । शठता (को०)। १५ दभ । गर्व (को०)। १६. दुर्गा का एक यव-सज्ञा पुं० [सं० ] मायु के गोत्र के लोग । गया'-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १. लक्ष्मी । २ द्रव्य । धन । सपत्ति । नाम | १७ बुद्धदेव (गौतम) की माता का नाम । यौ दौलत । उ०- to-मायाकार | मायाजीवी । (क) माया त्यागे क्या भया मान तजा नहिं माँ। जननी। जाय ।-कवीर (शब्द०)। (ख) वड माया को दोष यह जो माया@f-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मात] माता । उ०—बिन रतनसेन की माया। माथे छात पाट नित पाया। कवहूं घटि जाय । तौ रहीम मरिवो भलो दुख सहि जिय —जायसी (शब्द०)। वाय।-रहीम (शब्द०)। (ग) जो चाहै माया बहु जोरी कर अनर्थ सो लाख करोगे।-निश्चल (शब्द०)। ३ माया-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० ममता ] १ किमी को अपना समझने अविद्या । अज्ञानता । भ्रम । ४ छल । कपट । धोखा। चाल- का भाव । उ०—उमपर तुम्हे न हो, पर उसको तुमपर बाजी। उ०—(क) सुर माया बस केकई कुसमय कीन्ह ममता माया है। साकेत, पृ० ३७० । २ कृपा । कुचाल |--तुलसी (शन्द०)। (ख) घरि के कपट भेप भिक्षुक अनुग्रह । उ०—(क) भलेहिं प्राय अव माया कीजै । पहुँनाई को दसकधर तह पायो । हरि लीन्हो छिन मे माया करि अपने कह प्रायसु दीजं ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) माँचेहु उनके रथ बैठायो ।—सूर (शब्द०)। (ग) तब रावण मन मे कहै मोह न माया। उदासीन धन धाम न जाया ।—तुलसी (शब्द०)। (ग) डड एक माया कर मोरे। जोगिनि होउँ चलो संग तोर । करौं एक अव काम । माया को परपच के रचौ सु लछमन —जायमी (शब्द०)। राम ।-हनुमन्नाटक (शब्द०)। (घ) साहस अनृत चपलता माया ।-तुलसी (शब्द०)। ५ सृष्टि की उत्पत्ति का मुख्य माया-सज्ञा पु० [फा० मायह ] " उपकरण । सामान । २ कारण । प्रकृति । उ० - (क) माया, ब्रह्म जीव जगदीसा । योग्यता । काविल होना । ३ पूंजी । धन । दौलत [को॰] । लच्छि अलच्छि रक अवनीसा ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) माया यौ-मायादार = धनी । पूँजीवाला । मालदार । माहि नित्य ले पावै । माया हरि पद माहिं समावै ।-सूर मायाकार-सज्ञा पुं० [ स० ] जादूगर । ऐंद्रजालिक । (शब्द०) । (ग) माया जीव काल के करम के सुभाव के करैया मायाकृत्- सज्ञा पु० [ स० ] दे॰ 'मायाकार' [को०। राम वेद कहै ऐसी मन गुनिए । —तुलसी (शब्द०)। ६ ईश्वर मायाकृत-वि० [ स०] माया द्वारा किया हुआ। मायारचित । की वह कल्पित शक्ति जो उसकी प्राज्ञा से सब काम करती हुई उ०—सुनहु तात मायाकृत गुन अरु दोप अनेक ।-मानस, मानी गई है। उ०-तह लखि माया की प्रभुताई। मणि मदिर ७१४१ । सु.च सेज सुहाई।- (शब्द०)। ७ इद्रजाल । जादू । छलमय मायाक्षेत्र -सज्ञा पुं॰ [ सं० ] दक्षिण के एक तीर्थ का नाम । रचना । उ०-जीति को सके अजय रघुराई । माया ते अस मायाचार-सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० ] मायावी [को०) । रची न जाई । —तुलसी (शब्द॰) । ८ इंद्रवजा नामक वर्ण- मायाजाल-सज्ञा ० [सं० ] सासारिक मोह, माया, घर, गृहस्थी वृत्त का एक उपभेद । यह वर्णवृत्त इद्रवजा और उपेंद्रवजा श्रादि का जजाल । के मेल से बनता है। इसके दूमरे तथा तीसरे चरण का प्रथम मायाजोवी-सज्ञा पु० [ स० मायाजीविन् ] जादूगरी मे जीविका वर्ण लघु होता है । जैसे,—राधा रमा गौरि गिरा सु सीता । निर्वाह करनेवाला । जादूगर | इन्है विचारे नित नित्य गीता। कट अपारे अघ श्रोध मोता। मायातत्र- सञ्चा पु० [ स० मायातन्त्र ] एक प्रकार का तत्र । है है सदा तोर भला सुवीता । ६ एक वर्णवृत्त जिसमे क्रमश मायाति-सज्ञा पुं० [ स० ] तात्रिको की वह नरवलि जो अष्टमी मगरण तगण, यगण, सगण और एक गुरु होता है। जैसे,- या नवमी को दुर्गा के सामने दी जाती है। लीला ही सो बासव जी मे अनुरागौ। तीनौ लेक पालत नीके सुख पागौ। जो जो चाहो सो तुम वासो सव लीजौ । कीज मेरी मायाद-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] कुभीर । मगर । पोर कृपा सो सर भीजी। --गुमान (शब्द॰) । १० मय दानव मायादेवी-सज्ञा स्त्री॰ [ सं०] बुद्ध की माता का नाम । की कन्या जो विश्रवा को व्याही थी और जिससे खर, दूपण, मायाधर-सज्ञा पुं० [ मं०] मायावी । मायापटु । त्रिशिरा और मूर्पनखा पैदा हुए। उ०-माया सुत जन में मायापटु-संज्ञा पुं॰ [ स०] मायावी । करि लेखा। खर, दूपण, त्रिशिरा सुपनेखा।-विश्राम मायापति-सज्ञा पुं० [ स० ] ईश्वर । परमेश्वर । उ०-मायापति (शब्द०)। ११. देवताओ मे से किसी की कोई लीला, शक्ति, सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ मुरराया ।—मानस, इच्छा वा प्रेरणा। अ०-(क) रामजी की माया, कही धूप २।२१७ । कही छाया । (कहावत)। (ख) अति प्रचड रघुपति के माया । मायापात्र-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० माया (= धन)+पात्र ] वह जिसके पास जेहि न मोह अस को जग जाया । तुलसी (शब्द०) । (ग) बहुत धन हो। धनवान | अमीर ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१३४
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