महुअर' ३८६१ महुर्छा बजाते हैं। प्राय मदारी लोग सांपो को मस्त करने के लिये भूनकर उसमे पियार, पोस्ते के दाने श्रादि मिलाकर कूटते है। इसे वजाते हैं। इस रूप में इसे लाटा कहते हैं। इसे भिगोकर और पीसकर २. एक प्रकार का इ द्रजाल का खेल जो महुअर बजाकर किया आटे मे मिलाकर 'महुअरी' बनाई जाती है। हरे और सूखे जाता है। महुए लोग भूनकर भी खाते हैं। गरीबो के लिये यह वडा ही विशेप-इसमे दो प्रतिद्व द्वी खेलाडी होते हैं जिनमें से प्रत्येक उपयोगी होता है। यह गौग्रो, भैंसो को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी होती है और उनका दूध बढता है। इसस म अर वजाकर दूसरे को मूछित अथवा चलने फिरने में असमर्थ शराव भी खीची जाती है। महुए की शराब को सस्कृत मे करने का प्रयत्न करता है। 'माध्वी' और आजकल के गंवार 'ठरी' कहते है। महुए का महुअर'-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० मधुकर] [सी० महुअरि, महुअरी] भ्रमर । फूल बहुत दिनो तक रहता है और बिगडता नही। इसका फल दे० 'मधुकर' । उ०—मगरदपाण विमुद्ध महुअर सद्द मानस परवल के आकार का होता है और कलेंदी कहलाता है। इसे मोहिया ।-कीर्ति०, पृ० २६ । छील उबालकर और वीज निकालकर तरकारी भी बनाई महुअरि र-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० महुअर ] दे० 'महुअर" । उ०-और खेल जाता है। इसके बीच मे एक वीज होता है जिससे तेल खेलत छवि पावत । महुअरि वेनु बजावत गावत ।-नद० निकलता है। वैद्यक मे महुए के फूल को मधुर, शीतल, धातु- ग्र०, पृ० २५६ । वर्धक तथा दाह, पित्त और वात का नाशक, हृदय को हितकर महुअरी -सशा स्त्री॰ [हिं० महुया ) वह रोटी जो आटे मे महुआ और भारी लिखा है। इसके फल को शीतल, शुक्रजनक, घातु मिलाकर बनाई जाती है। और बलवर्धक, वात, पित्त, तृषा, दाह, श्वास, क्षयी आदि को महुआ-मज्ञा पुं॰ [ स० मधूक, प्रा० महुअ ] एक प्रकार का वृक्ष जो दूर करनेवाला माना है। छाल रक्तपित्तनाशक और व्रणशोधक भारतवर्ष के सभी भागों मे होता है और पहाडो पर तीन मानी जाती है । इसके तेल को कफ, पित्त और दाहनाशक और हजार फुट की ऊंचाई तक पाया जाता है। सार को भूत-बाथा-निवारक लिखा है। विशेप-इसको पत्तियां पाँच सात अगुल चौडो, दस बारह अगुल पर्या०-मधूक । मधुष्टील । मधुत्रवा। मधुपुप। रोपुप । लवी और दोनों पोर नुकीली होती हैं। पत्तियो का ऊपरी माधव । वानप्रस्थ । मध्वग । तीक्ष्णसार । महाद्रुम । भाग हलके रग का और पीठ भूरे रग की होती है। हिमालय महुआ-सज्ञा मी० महुए की बनी शगव । उ०—-शोर, हंसी, हुल्लड, की तराई तथा पजाब के अतिरिक्त सारे उत्तरीय भारत तथा हुडदग, घमक रहा थाग्डाग मृदग। मार पीट बकवास, झडप दक्षिण मे इसके जगल पाए जाते हैं जिनमे वह स्वच्छद रूप से मे, रग दिखाती महुअा भग। यह चमार चौदस का ढग । उगता है। पर पजाव में यह सिवाय वागो के, जहां लोग इसे ग्राम्या, पृ०४६ । लगाते हैं, और कहीं नहीं पाया जाता। इसका पेड ऊंचा और महुआ दही-सञ्ज्ञा पुं॰ [ हिं० महना + दही ] वह दही जिसमे से छतनार होता है और डालियां चारो ओर फैलती है। यह पेड मथकर मक्खन निकाल लिया गया हो। मखनिया दही । तीस चालीस हाथ ऊंचा होता है और सब प्रकार की भूमि पर होता है। इसके फूल, फल, बीज, लकडी सभी चीजें काम महुअारी-सज्ञा स्त्री॰ [ हिं० महुआ+ वारी ] महुए का जगल । मे प्राती है। इसका पेड वीस पचीस वर्ष मे फूलने और फलने महुकम-वि० [अ० मुहकम ] दे० 'मुहकम' । उ०—जग मरजादा लगता और सैकडो वर्ष तक फूलता फलता है। इसकी पत्तियाँ मे रहे ते महुकम लूटे ।-सुदर० ग्र०, भा॰ २, पृ० ८६६ । फूलने के पहले फागुन चैत मे झड जाती है। पत्तियो के झडने महुमास-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० मधुमास ] २० 'मधुमास' । उ०-- पर इसकी डालियो के सिरो पर कलियो के गुच्छे निकलने तम् महुमासहि पढम पञ्ख पचमी कहियजे । --कीर्ति०, पृ० १६ । लगते हैं जो कूची के आकार के होते है। इसे महुए का महुर-सज्ञा पु० [अ० मुहू ] दे० 'मोहर-३' । उ०—हरिसिद्ध जाइ कुचियाना कहते है। कलियाँ बढती जाती है और उनके खिलने कीनौ प्रनाम । टुअ सहस महर दुज दिन्न दाम |- पृ० पर कोश के श्राकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा रा०,६१ । ६८५। और दोनो पोर खुला हुया होता है और जिसके भीतर जीरे महुरत-सज्ञा पुं० [स० महूर्त ] दे॰ 'मुहूर्त' । उ०—ले मुहरत होते हैं। यही फूल खाने के काम मे पाता है और महुअा चाल्योक तिणि ठाई। चि९ पड जोवज्यो भूपति राय - कहलाता है। महुए का फूल बीस बाइस दिन तक लगातार बी० रासो०, पृ०७। टपकता है। महु ए के फूल मे चीनी का प्राय आधा अश होता है, इसी से पशु, पक्षी और मनुष्य सव इसे चाव से खाते है । महुरि -सज्ञा स्त्री॰ [हिं० महुअरि ] दे॰ 'महुअर' । उ०—तिन मै इसके रम मे विशेषता यह होती है कि उसमे रोटियां पूरी की परम सुहावनी हो महुरि, वाँमुरी चग।- नद. ग्र०, पृ. ३८३ । भांति पकाई जा सकती हैं। इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनो महुर्छा-सशा पुं० [ स० महोत्सव प्रा० महुस्सव, महूसव, महोच्छ्व, रूपो मे होता है । हरे महुए के फूल को कुचलकर रस निकाल मि० प० महोछा ] महोत्सव | उ०--कथा कीरतन मगन कर पूरियां पकाई जाती है और पीसकर उसे पाटे मे मिलाकर महुर्था करि मतन वीर । कबहु न काज विगरं नर तेरो मत रोटियां बनाते हैं जिन्हे 'महुअरी' कहते है। सूखे महुए को । सत कहै कबीर |-कवीर (शब्द॰) । 1
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१०२
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