पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/९८

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बँधना ३३३७ बासना रखती हैं। भगर यही हथकंडे हैं तो दस पांच दिन में जवानाने तुर्क बंधे बँबाना-क्रि० प्र० [ अनुध्व० ] गौ प्रादि पशुओं का वां वां शब्द चले पाएँगे ।—फिसाना०. भा० ३, पृ० १६२ । करना । रंभाना। ४. स्वच्छंद न रहना । ऐसी स्थिति में रहना जिसमें इच्छानुसार बँभनई-संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बभनाई' । कहीं पा जा न सकें या कुछ कर न सकें। प्रतिबंध रहना। बभनाई-संज्ञा स्त्री० [ सं० ब्राह्मण, प्रा० बंभण, + हिं• भाई फंसना । अटकना। ५. प्रतिज्ञा या वचन आदि से बद्ध (प्रत्य॰)] १. ब्राह्मणत्व । ब्राह्मणपन । २. हठ । जिद्द । होना । शर्त वगैरह का पाबंद होना। ६. गंठना । ठीक दुराग्रह (क्व०)। होना । दुरुस्त होना । जैसे, मजमून बंधना। ७. क्रम निर्धा- बँसरी-सज्ञा सी० [हिं० वंसरी] १. बंसी । कटिया । उ०-जनु रित होना। कोई बात इस प्रकार पली चले, यह स्थिर पीतम मन मीन गहन कों बेसरी दई लटकाय । -नंद० ग्रंक, होना। चला 'वलनेवाला कायदा ठहराना । जैसे, नियम पृ० ३८६४२. । दे० बाँसुरी'। बंधना, बारी बंधना । उ० -तीनहुँ लोफन की तरुणीन की बारी बंधी हुती दंड दुहू की ।– केशव (शब्द०)। ८. प्रेमपाश बसवरिया-संज्ञा स्त्री० [सं० वंश (= बाँस) + अवलि + हिं० या में बद्ध होना । मुग्ध होना। उ०-अली कली ही तें बध्यो (प्रत्य॰) ] वह जगह जहाँ अनेक बाँस उगे हों। मागे कौन हवाल ।-विहारी (शब्द०)। बसुरिया@+-संज्ञा स्त्री० [हिं० बाँसुरी+या (स्वा० प्रत्य॰)] दे० विशेष-दे० 'बांधना। 'बाँसुरी' । उ०—विच विच बजत बसुरिया सबको नेह पाग वम कीने ।-नंद० ग्रं॰, पृ० ३८८ । बँधना....संज्ञा पुं० [सं० बन्धन ] १. वह वस्तु ( कपड़ा या रस्सी प्रादि ) जिससे किसी चीज को बाँधे । बाँधने का साधन | बँसुरी@-संश ती० [हिं० ] दे० 'बसी', 'बाँसुरी' । उ०-मोहन २. वह थैली जिसमें स्थियां सीने पिरोने का सामान बँसुरी लेत है वजि के बसुरी जीत ।-स० सप्तक, पृ० १८७ । बँसोरा-संज्ञा पुं० [सं० वंश, हिं० चाँस+ श्रोर (प्रत्य०) ] बांस के डाले आदि बनानेवाला निम्न जाति का व्यक्ति। उ०-होरी बँधनि-संज्ञा स्त्री० [सं० बन्धन, हिं० बँधना] १. वंधन । जिसमें ने देखा, दमरी बॅसोर सामने खडा है।-गोदान, पृ० ३४ । कोई चीज वैधी हुई हो। २. जो किसी चीज की स्वतंत्रता मादि में बाधक हो। उलझाने या फंसानेवाली चीज। वहगी-संज्ञा स्त्री० [सं० वाह + अङ्गिका ] भार ढोने का एक उप- करण । काँवर। उ.-मीता मन वा वधनि ते कौन सके अब छोरि ।- विशेष-एक लबे बांस के टुकड़े के दोनों सिरों पर रस्सियों के रसनिधि (शब्द०)। बड़े बड़े छीके लटका दिए जाते हैं। इन्ही छीको में बोझ रख वधवाना-क्रि० स० [हिं० बाँधना प्रे० रूप०] १. बांधने का काम देते हैं और लकड़ी को बीच में से कंधे पर रखकर ले दूसरे से करवाना। दूसरे को बांधने में प्रवृत्त करना । २. चलते हैं। देना प्रादि नियत कराना । मुकर्रर कराना । ३. कैद कराना। क्रि० प्र०-उठाना। ढोना। ४. तालाव, फुप्रो, पुल आदि बनवाना । तैयार कराना । ब-सज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण । २. सिंधु । ३. भग । ४. जल । बँधानg+-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वंधान' । उ०-(क) नागर ५. सुगंधि । ६. वयन । बुनना । ७ ताना। ८. कुंभ । ६. नट चितवहिं चकित डहिं न ताल वधान ।-मानस, दे० 'गंधन'। २३०२: (ख) मिथिलापुर के नतंक नाना । नाचे डग न ताल बर-प्रत्य० [फा०] १. से। साथ । जैसे, वखुद, बखुदी। २. वधाना। रघुराज ( शब्द०)। वास्ते । लिये । जैसे, वखुदा । ३. पर । जैसे, दिन ब दिन । वधाना-क्रि० स० [हिं० याँधना का प्रे० रूप ] १. बांधने के बइठ्ठना-क्रि० [सं० / विश् या / उपविश्, प्रा० घइट्ठ ] लिये प्रेरणा करना। बांधने का काम दूसरे से कराना । दे० 'बैठना' । उ०-दरबार बइट्ट विवस भइ8 |-कीति०, बंधवाना । २. धारण कराना । जैसे, धीरज बँधाना, हिम्मत पृ०४६ । बंधाना । ३. कैद कराना । दे० 'बंधवाना' । ४. स्वयं किसी बइर@f-सज्ञा पु० [सं० वैर, प्रा० चइर ] शत्रुता । दुश्मनी । वैर । का जान बूझकर बधन में पड़ जाना। बइ २-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० वदर, शौ०प्रा० बउर ] वेर । बदरीफल । बॅधिका-संज्ञा स्त्री० [हिं० वधन ] वह डोरी जिससे ताने की साँची बइर - वि० [सं० वधिर, प्रा० घहिर ] बहरा । बधिर । बांधी जाती है। (जुलाहा )। बइरी -संज्ञा पुं० [सं० वैरी ] शत्रु । दुश्मन । वधुश्रा-सज्ञा पुं॰ [हि. बँधना + उश्रा (प्रत्य॰)] कैदी । बंदी। बइरीसाल-संज्ञा पुं॰ [देश॰ ? ] एक किस्म का घोड़ा। घोड़े की एक नस्ल का नाम । उ०-बइरीसाल दीयो अषहराज।- उ.-बंधुप्रा को जैसे लखत कोइ कोइ मनुष सुतंत ।-लक्ष्मण- सिंह ( शब्द०)। बी० रासो, पृ० ५७ । वधुवा--संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'धुपा' । बइसना-संज्ञा पुं॰ [सं० उप / विश्; प्रा० बेस, अप० धावा.