पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/६५

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फुनि ३३०४ फुरना मनी ल भी फुनिंद, अग्गेव सरद निसि उग्गि चंद । -पृ० फुरकत-संज्ञा स्त्री० [अ० फुरफत ] बिछुपने का माय । जुदाई। रा०, ११६२२ । वियोग। फुनि-प्रव्य० [ सं० पुनः, हिं० फुन ] ३० पुनि' । उ०-फुनि फुरफना'-क्रि० स० [ अनु० ] जुनाहों मी बोली में फिसी यस्तु मालमीक रामावतार । पात कोटि पंप कपि तत्त सार।- फो मुह में पधाकर सांस के जोर से पूछना । पृ० रा०, श२७॥ फुरकना-क्रि० प्र० [हिं०] १० 'फटफना' । २०-दुतियं फुप्फुकारक-वि० [सं०] हाँफनेवाला को० । उपमा कविता सुर फे। मनो पूर नदी हय ज्यों फुरकै ।-पृ० फुप्फुस-सञ्ज्ञा पु० [सं०] फेफड़ा । रा०, २४११६२. फुफंदी - सज्ञा स्त्री० [हिं० फूल+फंद ] लहंगे के इजारपंद या स्त्रियों फुरकानाt ---क्रि० स० [हिं० ] 20'फटकाना'। की पोती कसने की डोरी की गांठ जो कमर पर सामने की फुरति@, फुरतो -सजा जी० [म. स्फूर्ति (= पुरति) ] शीघ्रता । घोर रहती है पौर जिसके खीचने से लहँगा या पोती खुल तेजी । उ०-तस्यो बलराम यह सुभट यर है कोठ इव जाती है। नीवी। उ०-घागी फसै उकसै कुच ऊंचे हंसे मुसल मास्त्र अपनो समारयो । द्विविद ले शान को वृक्ष संमन्त्र हुलसै फुफैदीन की फूदै।-देव (शब्द०) । भयो फुरति करि राम तनु फैकि मारघो।-यूर (चन्द०)। फुफकाना-क्रि०प० [ अनु० ] दे० 'फुफकारना' । उ०-कोप करि फुरतीला-वि० [हिं० फुरती + ईसा (प्रत्य॰)] [Pro सो फुरतीली] जो लौ एफ फन फुफकावे काली, तो लो बनमानी सोऊ फन जिसमें फुरती हो। जो सुस्त न जो मे ढिलाई न पै फिरत है । -पपाकर (पशब्द०)। करे। तेज। फुफकार-संज्ञा पुं॰ [ अनु० ] फूक जो साप मुह से निकालता है। सांप के मुहं से निकली हुई हवा का शब्द । फुकार | फुरना-कि० अ० [सं० स्फुरण, प्रा० फुरण ] १. स्फुटित होना । निकलना । उद्धृत होना । प्रपट होना । उदय होना । उ.- फूत्कार । (क) सोग जाने वोरो भयो गयो यह काशी पुरी फुरी मति फुफकारना-क्रि० प्र० [हिं० फुफकार ] साँप का मद से फूफ निकालना । मुहँ से हवा निफालपार पान्द फरना । फूरकार पति प्रायो जहाँ हरि गाइए ।-प्रिया० (गन्द०)। (स) नील करना । जैसे, साँप का फुफकारना । नलिन श्याम, शोभा भगनित काम, पावन हृदय जेहि उर फुरति ।-तुलसी (शब्द०)। २. प्रकाशित होना। चमक फुफाना-क्रि० म० [ अनु० ] फू फू करना । फुकारना । फुफ- उठना । झतक पड़ना । उ०-पाधी रात योती सब छोए कारना। उ०-इक सत फननि फुफात सु तातो। वें सत जिय जान मान राक्षसी प्रभंजनी प्रमाव मो जनायो है। लोचन अनल चुचातगे।-नंद० प्र०, पृ० २८३ । वीजरी सी फुरी भांति बुरी हाथ छुरी लोह पुरी छोठि जुरी फुफोल-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'फूफी' । देसि पंगद सजायो है।-हनुमान (शब्द०)। ३. फड़कना । फुफुदी-संशा आ[हिं० ] दे 'फुफदी' । उ०—(क) लोन्ही फड़फड़ाना । हिलना । उ०-(क) उग्यो न धन जनु योर उसास मलीन भई दुति दोन्ही फुदी फुफुदी को छिपाई फै। विगत महि फिर्षों पह सुमट दुरे। रोपे लसन विक्ट भृकुटी देव (शब्द०)। (ख) विवेक घंधरा तत्त सारी फुफुदी हैं फरि भुज पर प्रघर फुरे ।-तुलसी (गन्द०) । (ख) प्रजहूं विस्वासनं । साधु सेवा अंग अंगिया रहनी वाजू बंदनं । अपराध न जानको फो भुज पाम फुरे मिलि लोपन खो। -पलटू० बानी, भा० ३, पृ०६४ । हनुमान (शब्द०)। ४. स्फुटित होना । उच्चरित होना । फुफुनी-सशा स्त्री० [हिं० ] दे॰ 'फुफैदी' । मुह से शब्द निकलना । उ०-(क) सूर सोच सुत फरि फुफूल -सज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'फूफी' । भरि लोचन पंतर प्रीति न पोरी । सिधिल गात मुख वचन फुफेरा-वि० [ हिं० फूफा + एरा (प्रत्य॰)] [ वि० स्त्री० फुफेरी ] फुरति नहि ह जो गई मति भोरी।- सूर (शब्द०) । (ख) उठि के मिले तंदुल हरि लीन्हे मोहन बचन फुरे । सूरदास फूफा उत्पन्न । जैसे, फुफेरा भाई, फुफेरी बहन । से स्वामी की महिमा टारी नाहिं टरे ।- सूर (शब्द०)। ५. फुबती-सज्ञा ली० [हिं० ] दे० 'फुदी' । पूरा उतरना । सत्य ठहरना । ठीक निकलना । जैसे सोपा फुर'-वि० [हिं० फुरना ] सत्य । सच्चा । उ०-(क) वह संदेस समझा या याहा गया था वैसा ही होना । उ०-फुरी तुम्हारी फुर मानि के लीन्हो शोश चढ़ाय । संतो है सतोष सुख बात कही जो मो सो रही फरहाई । -सूर (शब्द०)। ६. रहह तो हृदय जुड़ाय !-कबीर (शब्द॰) । (ख) सुदिन प्रभाव उत्पन्न करना। बसर करना । सगना । उ०-(क) सुमगम दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई ।- फुरे न यत्र मत्र नहिं लागे घले गुणी गुण हारे। प्रेम तुलसी (शब्द०)। प्रीति की व्यथा तप्त तनु सो मोहिं आरति मारे। -सूर फुर-मशा सी॰ [ अनु० ] उडने में परो का शब्द । पंख फड़फड़ाने (शब्द॰) । (ख) यंत्र न फुरत मंत्र नहिं लागत प्रीति सिराना की आवाज । जैसे,—चिड़िया फुर से उड़ गई । जाति । —सूर (शब्द०) ७. सफल होना । सोचा हुमा विशेप-चट' 'पट' आदि अनु० शब्दों के समान यह भी 'से' परिणाम उत्पन्न करना । उ०-फुरे न कछु उद्योग जहं उपज विभक्ति के साथ ही पाता है। अति मन सोच ।-पद्माकर (शब्द०)।