। मथक ३७२३ मद' जिससे कोई पदार्थ मथा जाता है। ६. मृग की एक जाति २. युक्तिकल्पतरु के अनुसार १२० हाथ लंबी, ६० हाय चौड़ी का नाम। १०. सूर्य (को०)। ११. सूर्यरश्मि । सूर्य की और ३० हाथ ऊँची नाव । किरण। १२. घर्पण से अग्नि उत्पन्न करने का यंत्र । मंथा मथरित-वि० [स० मन्थरित ] मंथर किया हुमा । मद लिया हुमा (को०)। १३. आँख का एक रोग जिसमे घाँखों से पानी या [को०)। कीचड़ बहता । १४. एक प्रकार का ज्वर को बालरोग के मथरु-सञ्ज्ञा पु० [सं० मन्थर ] चंवर की वायु । पंतर्गत माना जाता है । मथर । मथा-मञ्च श्री. [ स० माथा ] १. मेथी । २. यज्ञ में घर्पण द्वारा विशेष-वैद्यक के अनुसार यह रोग ज्वर में धी खाने और अग्नि उत्पन्न करने का एक यंत्र । मंयायमा । पसीना रोकने से होता है। इसमें रोगी को दाह, भ्रम, मोह मोर मतली होती है, प्यास अधिक लगती है, नीद नहीं पाती, मथाचल, मयादि-सञ्ज्ञा पु० [स० मन्थावल, मन्याद्रि ] मदर पर्वत । मंदराचल [को०)। मुह लाल हो जाता है और गले के नीचे छोटे छोटे दाने निकल पाते हैं। कभी कभी प्रतीसार भी होता है । मथान-सञ्चा पु० [ स० मन्थान ] १. मथानी । २. मदर नामक पवंत । ३. महादेव । ४. अमलतास'। ५. एक वणिक छद मथक'-संज्ञा पुं॰ [सं० मन्या ] १. एक गोत्रकार मुनि का नाम । जिसके प्रत्येक चरण मे दो तगण होते हैं। उ०-बाणी कही २. मंयक मुनि के वश मे उत्पन्न पुरुष । बान । कीन्ही न सो कान । अद्यापि मानीन । रे वदिका- मथक-वि० मथनेवाला । मंयन करनेवाला [को॰] । नीन ।-केशव (शब्द॰) । ६. भैरव का एक भेद मंथज-सज्ञा पुं० [सं० मन्थज ] नवनीत । ननू । मक्खन । मथानक-सज्ञा पु० [ स० मन्थानक ] एक तरह की घास । मथन-संज्ञा पुं॰ [सं० मन्थन] १.मथना । बिलोना । २. अवगाहन । मथिता-वि० [सं० मस्थित । [ श्री० मन्यित्री मथनेवाला । खूब डूब डूबकर तत्वो का पता लगाना । ३. मथानी । ४. मथिनी-सञ्ज्ञा खा० । स० मथिवी ] माठ। मटका । रगड़ से भाग पैदा करना (को०) । मथिप-वि॰ [ स० मथिप ] मथा हुमा सोमरस पीनेवाला। मंथनघट-संज्ञा पु० [० मन्थनघट ] [स्त्री० मंथनघटी ] दही मथी'-वि० [सं० मस्थिन् । १. मथनेवाला । २. पीडाकारक । मथने का घड़ा या मटका [को०] । ३. मथनयुक्त। मथनी-संज्ञा स्त्री० [सं० मन्थनी ] दही मथवे का पात्र । मटकी या मथी-सञ्चा पु० १. मथा हुआ सोमरस । २. चद्रमा । ३. मदन | मटका [को० ॥ ४. ग्राह । ५. राहु । उ०-मंथो ससि मयो मदन मंथी ग्राह मथपर्वत-संञ्चा पुं० [सं० मन्थपर्वत ] मंदराचल । मंदर पर्वत । प्रचढ। मथी बहुरो राहु है जो हरि कियो विखड:- अनेकाथ०, पृ० १५० । मंथर'--संज्ञा पुं० [सं० मन्थर ] १. बाल का गुच्छा । २. कोष । खजाना। ३. फल । ४. वाधा । अवराध रोक। ५. मथादक, मथोदधि-सज्ञा पुं० [सं० मन्थोदक, माथोदधि ] क्षीर- मथानी । ६. कोप । गुस्सा । ७. दूत । गुप्तचर । ८. वैशाख समुद्र । क्षारसागर [को०] । का महीना । ६. दुर्ग । १०. भवर । ११. हरिण। १२. एक मद-वि० [सं० मन्द ] १. धीमा । सुस्त । प्रकार का ज्वर | मंथ ज्वर । विशेष दे० 'मथ'-१४ । १३. क्रि० प्र०-करना ।—पड़ना ।—होना । कुसुभ । वह्निशिख (को०) । १४. मक्खन । २. ढोला । शिथिल । ३. पालसी । ४. मूर्ख । कुबुद्धि । ५. खल । मंथर-वि० १. मदुर। मंद । सुस्त । २. जड़ । मंदबुद्धि । ३ भारी। दुष्ठ । उ०-है प्रचड प्रति पोन ते, रुकत नहीं मन मद । जो स्थूल । ४. झुका हुआ । टेढ़ा । ५. नीच । अधम । ६.बड़ा। लौ नाही कृपाकर, बरजत हे ब्रज चद।-स० सप्तक, पु० लंबा चौड़ा (को०) । ७. व्यक्त करनेवाला । सुचक (को॰) । ३४३ । ६. क्षाम । कुश। क्षीण। जैसे, मंदोदरी। ७. मथरगति-संज्ञा स्त्री० [सं० मन्थर+गति ] धीमी चाल । मद कमजोर । दुवंल । जैस, मदाग्नि । ८. मृदु। धीम। । जैसे, मंच संचरण [को०] 1 मदभापी। ६. अली-अनकार्थ, पु० १५१ । मथरविवेक-वि० [सं० मन्थरविवेक ] जो शीघ्र निर्णय न कर मंद-संज्ञा पुं० १. वह हाथी जिसको छाती योर मध्य भाग की बलि पाए। शीघ्र नियंय करने में धीमा [को०] । ढीली हो, पेट लवा, चमड़ा मोटा, गला, कोख और पूछ की चंवरी मोटी हो तथा जिसकी दृष्टि सिंह के समान हो। २. मंथरा-संचा स्त्री० [सं० मन्थरा ] १. रामायण के अनुसार कैकेयी को एक दासो। उ०-नाम मंथरा मंदमति चेरि कैकयी यौ०-मंदजननी-शनैश्चर की माता जो सूर्य की ली थी। करि-मानस। ३. यम । ४. प्रभाग्य । ५. प्रलय । ६. पाप ।-अनेकार्य, विशेष-यह दासी कैकेयी साथ उसके मायके से आई थी। पु. १५१। इसी के बहकाने पर कैकेयी ने रामचंद्र को वनवास प्रौर भरत को राज्य देने के लिये महाराज दशरथ से अनुरोध मदा--संश पुं० [ ० मघ, हिं० मद] दे० 'मद्य'। उ०-का वासंदर सेवियइ कई तरुनी का मंद ।-डोला०, दू० २६४ । । शनि। किया था।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४८४
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