पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४७०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भ्रेमनार ५७०३ भमसंशोधन म० । भ्रमना@-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] भावना । पावागमन की स्थिति भ्रमरबाबा-मजा नी [ ] भ्रमरों द्वारा बाधा या बदलाई। का बोध । झूठी ममता । उ०-दरस परस के करत जगत मधुमक्खियो द्वारा उत्पीडन की भ्रमना भागी।-पलटु वानी, पु० २८ । भ्रमरमारी-मजा त्री० [ म० ] एक प्रसार का पौधा जो मालय में भ्रमनि-पंज्ञा स्त्री[सं०] दे० 'भ्रमण' । अधिकता से होता है। भ्रममूलक-वि० [सं०] जो भ्रम के कारण उत्पन्न हुप्रा हो । विशेष-इसमे सुदर और सुगधित फूल लगते हैं। वैद्यर में जिसका आविर्भाव भ्रम के कारण हुप्रा हो लैसे,-प्रापका यह तिक्त और पिच, श्लेष्म, ज्वर, कुष्ठ, व्रण, तथा मिदोष यह विचार भ्रममूलक है। का नाश करने वाली मानी जाती है। भ्रमर-संज्ञा पु० [स०] १. भीरा । वि० दे० 'भौरा'। पर्या--भ्रमरादि । भृगादि । मासपुप्पिका। कुष्टारि । यौ-भ्रमरगुफा = योगशास्त्र के अनुसार हृदय के अंदर का भ्रमरी। यष्टिलता । एक स्थान । उ०-केवल सकल देह का साखी भ्रमर गुफा भ्रमरविलसित-सज्ञा पु० [स०] १. भोरो या मधुमखियों की अटकाना ।-कबीर ( शब्द०)। क्रीड़ा । २. एक वृत्त । ८० 'भ्रमरविलसिता।' २. उद्धव का एक नाम । भ्रमरविलसिता -सज्ञा स्नो [ स०] एक वृत्त का नाम जिसके यो०-भ्रमरगीत = वह गीत या फाप जिसमें भ्रमर को प्रत्येक चरण में म म न ल ग sss, Sil 11, 1, 5 होता है संबोधित करते हुए उद्धव के प्रति व्रज की गोपियों का उ०--मैं भोने लोगन नहि डरिही। माधो को दै मन नहि उपालंभ हो। फिरिही। फूले वल्ली भ्रमर विलासिता। पापं शोभा माल ३. दोहे का पहला भेद जिसमें २२ गुरु और ४ लघु वर्ण होते सह मुदिता। हैं। उ०-सीता सीतानाथ को गावों पाठो जाम । इच्छा पूरी भ्रमरहस्त-सचा पु० [सं०] नाटक के चौदह प्रकार के हस्तविन्यासों जो कर श्री देव विश्राम ।-(शब्द०) ४. कुलाल चक्र । चाक में से एक प्रकार का हस्तविन्यास । (को०)। ५. एप्पय का तिरसठवा भेद जिसमें ८ गुरु, १३६ भ्रमरा-संज्ञा पु० [ स० ] भ्रमरच्छली नामक पोषा । लघु, १४४ वणं या कुल १५२ मात्राएं होती हैं। ६. भ्रमरातिथि-सचा पु० [म.] चपा का वृक्ष । सिरा (को०)। भ्रमरानंद-वि० [स० भ्रमरानन्द ] १. बबूल वृक्ष । २. एक लता भ्रभर-वि० कामुक । विषयी। जिसको प्रतिमुक्ता कहते हैं (को॰) । भ्रमरक-संज्ञा पुं० [सं०] १. माथे पर लटकनेवाले बाल । २. भ्रमरारि-संज्ञा पुं० [स० दे० 'भ्रमरमारी' [को०)। चाक । कुलाल चक्र (को०) । ३. क्रीड़ा का कंदुक (को॰) । भ्रमरालक-संज्ञा पु० [सं०] ललाट पर लटफते हुए घुघराले वाल । ४. घुमनेवाला बटू या फिरकी (को०) । भ्रमरक [को०] । भ्रमरकरंडक-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमरकरण्डक] मधुमक्खियो का डब्बा । भ्रमरावली- स्त्री० [स०] १. भंवरो की श्रेणी। २. एक वृत्त विशेप-चोरी करने के लिये घर मे घुसा हुमा चोर जलते हुए का नाम जिसे नलिनी या मनहरण भी कहते है। इसके दीप को वुझाने के लिये इसे खोल देता था। दशकुमारचरित, प्रत्येक पाद मे पांच सगरण होते हैं । जैसे,-ससि सों सु सखी मृच्छकटिक प्रादि मे इसका वर्णन है। रघुनंदन को वदना । लखिकै पृलकी मिथिलापुर की तलना। भ्रमरकीट-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की भिड़। तिनके सुख मे दिश फूल रही दश हूँ। पुर मै नलिनी विकसी जनु अोर चहूँ।-जगन्नाथ (शब्द०)। भ्रमरच्छली-संज्ञा स्त्री॰ [स०] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली वृक्ष । भ्रमरिका-संशा मी [स०] चारों तरफ चक्कर काटना या पूमना । विशेप-इस वृक्ष के पत्ते वादाम के पत्तों के समान होते हैं यौ०-भ्रमरिकादृष्टि = चंचल दृष्टि । जिसमें बहुत पतली पतली फलियां लगती हैं। इसकी लकड़ी सफेद रंग की और बहुत बढ़िया होती है और प्रायः भ्रमरी-संवा स्त्री० [सं०] १. जतुका नामक लता। पुत्रदात्री। तलवार के म्यान बनाने के काम मे पाती है। वैद्यक में यह षट्पदी । २. मिरगी रोग । ३. पावंती। ४. भोरे की मादा । मौरी। चरपरी, गरम, कड़वी, रुचिकारक, अग्निदीपक और सर्वदोष- नायक मानी जाती है। भ्रमरेष्ट-संग पुं० [सं०] एक प्रकार का श्योनाक । पर्या-भृगाह्वा। भ्रमराता। जीरद्। भृगमूलिका। भ्रमरेष्टा-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुंइ जामुन । २. भारंगी। उग्रगंधा । छल्ली। भ्रमवात-ता पुं० [सं० भ्रमवात् ] प्राकारा का वह वायुमंडल नो भ्रमरनिफर-वंश पुं० [सं०] भ्रमरों का समूह [को०] । सवंदा घुमा करता है। उ०-सुखिगे गात चले नभ जात परे भ्रमरपद-संशा पु० [स०] एक वृत्त । भ्रमवात न भूतल पाए ।-तुलसी (शब्द०) भ्रमरप्रिय-संज्ञा पुं० [स०] एक प्रकार का कदंब । धारा मशोधन-संगा पु० [सं०] नमसंशोधन । कदंब (को०] । भ्रमसंशोधन-संवा पु० [सं० ] भूल सुधार ।