पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४५७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 भेषजवीर्य ३६६६ भैया HO were भेपजवीर्य-शा पु० [सं०] औषध की प्रारोग्यदायक शक्ति [को०] । सुनाऊँगा। मगर गैस के पागे चीन वजाए भैस खड़ी भेपजांग-श पु० [म० भेषजाङ्ग] अनुपान । दवा के साथ या पगुराय ।—फिसाना०, मा० ३, पृ० ४१६ । अनंतर खानेवाली वस्तु [को०] । २. एक प्रकार की मछली। भेपजागार-संज्ञा पु० [ ] प्रौषध मिलने का स्थान दवा की विशेष-यह पंजाब, बगाल तथा दक्षिणी भारत की नदियों में दूमान [को० । पाई जाती है। इसकी लंबाई, तीन फुट होती है। इसका भेषज्य -वि० [स०] पारोग्य करनेवाला । नीरु न करनेवाला [को०] । मास खाने मे स्वादिष्ट होता है, परतु उसमे हड्डियां अधिक होती हैं। भेपना-क्रि० स० [हिं० भेप+ना (प्रत्य॰)] १. भेष बनाना ३. एक प्रकार की घास । स्वांग बनाना। उ०-जा दिन ते उनके परी डीठि ता दिन ते कैयो भेष भेमि तुम्हे देखि देखि जात हैं ।-रघुनाथ (शब्द०) भैसवाली-सशा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की बेल जिसको पत्तियां २. पहनना । उ०- रति रणा जानि अनग नृपति सा प्राप पोच से आठ इच तफ लबी होती हैं। यह उत्तरी और नृपति राजति बल जोरति । अति सुगध मर्द अंग अंग दक्षिणी भारत में पाई जाती है। यह वर्षा ऋतु मे फूलती ठनि वनि वनि भूपन भेषति ।-सूर (शब्द॰) । और जाड़े मे फलती है। भेपी-वि० [हिं० ] किसी विशिष्ट संप्रदाय का भेष धारण मैं सि-संशा स्त्री० [स० मदिपी ] दे० 'भैस' । उ०—(क) अब श्री करनेवाला । उ० --भेषी पथ संत जे नाई। प्रादि अंत सो गुसाई जी के सेवक एक गुजर के देटा की बहू, पान्यारे में रहती सत कहाई।-घट०, पृ. २४५ । जाकी भैसि थी गोधंननाय जी धाप मिलाइ दिए तिनकी वार्ता को भाव फहत हैं।-दो सौ बावन०, मा० २, पृ०१। भेस-सज्ञा पु० [म. वेप] १. बाहरी रूप रग और पहनावा आदि । वेप। उ०-धर जोगिनियाक भेस रे, करब मे (ख) धौर जब तें वह बहू घर में आई ताके थोरेइ दिन पाछे वा ब्रजवासी को एक भैसि खोइ गई।-दो सो बावन०, पहुक उदेस रे। विद्यापति, पृ० ३१६ । भा० २, पृ०२। यौ०-भेस भूपा । मैं सिया गूगल-सज्ञा पु० [हिं० भैसिया + गूगल ] एक प्रकार फा २. वह वनावटी रूप रंग और नकली पहनावा प्रादि जो अपना वास्तविक रूप या परिचय छिपाने के लिये धारण किया भैसिया लहसुन-सज्ञा पुं० [हिं० भैसिया+ लहसुन ] एक प्रकार गूगल जिसका व्यवहार प्रोषधि के रूप में होता है । जाय । कृत्रिम रूा और वस्त्र प्रादि । का लाल दाग या निशान जो प्रायः गाल या गरदन आदि क्रि० प्र०-धरना ।-बदलना । - बनाना। पर होता है। लच्छन । भेसज:-नशा स्ना० [ स८ भेपज ] दवा । श्रौषध । भैंसा- सञ्चा पु० [ स० महिप वा हिं० भैस ] भैस नामक पशु का भेसना-क्रि० स० [म० वेश हि. भेष ] वेश धारण करना । नर जो प्रायः वोझ ढोने और गाडियाँ प्रादि खीचने के काम वस्त्रादि पहनना। में प्राता है। पुराणानुसार यह यमराज का वाहन माना भैंचक - [हिं० भय+चफ (= वकित)] दे॰ "भैवक' । जाता है। उ.-ज्यो कोउ रूप की रासि अतित कुरूप कहै भ्रम भैचक प्रान्यो ।-मुदर ००, भा२, पृ० ५८१ । भैसाना-क्रि० स० [हिं० भैंसा ] भैसे से भैस को गर्भ धारण कगना। भैस-ज्ञा स्त्री० [स० महिपी, हि. भैसि ] १. गाय की जाति पोर शाकार प्रकार का पर उससे बड़ा चौपाया (मादा) भैंसाव-ज्ञा पुं० [हिं० भैंस + श्राव । प्रत्य० ) ] भैस और भैसे का जोड़ा खाना । भैसे से भैस का गर्भ धारण करना । जिसे लोग दुध ३ लिये पालते हैं । विशप -भैम सारे भारत में पाई जाती है और यही से विदेश भैंसासुर-शा पु० [ स० महिपासुर ] दे० 'महिषासुर' । म गई है। इसके शरीर का रग बिलकुल काला होता हे भैंसौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० भैंस+ौरी ( प्रत्य० ) ] भैस का और इसके रोए कुछ बड़े होते हैं। यह प्रायः जल या कीचड़ चमड़ा। आदि मे रहना बहुत पसंद करती है। इसका दूध गो के भैर-पवा पुं० [ स० भय ] दे० 'भय' । उ०-भै भरे सुतहिं निरखि दुध की अपेक्षा अधिक गाढ़ा होता है और उसमे से मक्खन नंदनारि। दीनी लकुट हाध ते डारि । —नंद॰ ग्रं० या घी भो अधिक निकलता है। मान में भी यह गो से पृ०२५०1 बहुत अधिक दूध देती है । इसके नर को भैसा कहते हैं । यौ०-भै अभे = भय और अभय । उ-कुसल छेम, सुख मुहा०-भैंस काटना=गरमी का रोग होना। उपदश होना दुख भै प्रभ । होत हैं ये मंनि करि सवे -नंद० ग्रं, (बाजारू)। भैंस के आगे बीन बजाए भैंस खड़ी पगुराय= पु० ३०६। किसी से कोई अर्थयुक्त ओर काम की बात कही जाय, परतु भैया-ज्ञा पु० [हिं० भाई ] १. भाई । भ्राता । २. वरावर जिससे कही जाय वह सुने या समझे ही नहीं। या छोटों के लिये संवोधन शब्द । उ.-भैया कहहु कुसल मैंने इसी से मसविदा लिख लिया था कि उन लोगो को दोउ वारे ।-मानस, २२२६१ । उ०-