भोटेन भोतरी होती है। भीटा। ३. एक प्रकार की तौल जो प्राय: मन भर के विना चित्र बनाना = वे सिर पैर की बात करना। विना के बराबर होती है। प्रमाण की बात करना। उ०-तात रिस करत भ्राता कहै भाटन-संज्ञा बी० [देश॰] दे॰ 'भीटा' । मारिही भीति विन चित्र तुम करत रेखा । —सूर (शब्द॰) । भीटना-क्रि० स० [हिं० ] भेटना। मिलना । उ०-सुदर २. विभाग करनेवाला परदा। २. चटाई । ४. छत । गच । तृष्णा चूहरी लोभ चूहरो जानि । इनके भीटे होत है ऊंचे ५. खड । टुकड़ा। ६. स्थान । ७. दरार | ८. फोर । कसर । कुल की हानि -सुदर० ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ७४१ । श्रुटि | ६. अवसर । अवकाश । मौका। भीटा-संज्ञा पु० [ देश• ] १. प्रासमास को भूमि से कुछ उभरी हुई भोत-दि. [ स०] [ बी० भीता ] डरा हुा । जिसे भय लगा भूमि । ऊंची वा टोलेदार जमीन । २. वह बनाई हुई ऊ'ची हो। उ०—कनक गिारे शृग चढ़ि दखि मर्कट कटक वदत और ढालु जमीन जिसपर पान की खेती होती है और मदोदरी परम भीता । —तुलसी (शब्द॰) । जो चारो ओर से छाजन या लतानो मादि से ढकी हुई होती भीत-सचा पु० भय । इर। है। वि० दे० 'पान'। भीतगायन-सशा पु० [२०] डरता हुप्रा या मुंहचोर गवैया । भीड़-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० भिड़ना] १. एक ही स्थान पर बहुत से पादमियो का जमाव । जनसमूह । मादमियों का झुड । भोतचारी-वि० [ स०] डरता हुआ काम करनेवाला । ठठ । जैसे,—(क) इस मेले मे बहुत भोड़ होती है। (ख) भीतड़ा-पज्ञा पु० [हिं० भीतर] मकान । गृह । उ०-गवरीज जस रेल मे बहुत भीड़ थी। गीतड़ा गया भोतडा भाग।-चांकी०प० भा० १, पृ० ४६ । क्रि० प्र०—करना ।-जगना ।—लगाना । —होना । भोवर'-क्रि० वि० [स० अभ्यन्तर देशी भित्तर, भीतर] अदर । में । मुहा०-भीड़ चीरना = जनसमूह को हटाकर जाने के लिये मार्ग जंसे,-घर के भीतर, महीने भर के भीतर, सौ रुपए के बनाना। भीड़ Jटना = भोड़ के लोगो का इधर उधर हो भीतर | उ०-भरत भुनिहि मन भीतर भाए । यहित जाना। भोड़ न रह जाना। समाज राम पहं पाए ।-तुलसी (शब्द०) । २. संकट । अापत्ति । मुसीवत । जैसे,—जब तुम पर कोई भोड़ मुहा०-भीतर का कूधाँ = वह उपयोगी पदार्थ जिससे कोई पड़े, तब मुझमे कहना। लाम न उठा सके। अच्छो, पर किसी के काम न मा सकने क्रि० प्र०-कटना।-काटना ।-पड़ना । योग्य चीज । उ०-सूरदास प्रभु तुम बिन जोबन घर भीतर भीड़न-संज्ञा श्री० [हिं० भिड़ना] मलने, लगाने या भरने की क्रिया। को कुप )- सूर (शब्द०)। भीतर पैटकर देखना = वत्व भीड़ना@t-क्रि० स० [हिं० भिड़ाना ] १. मिलाना । लगाना । जानना । जसलियत जाँचना । २. मलना । उ०—करि गुलाल सो धुरित सकल ग्वा भोतर--सज्ञा पु० १. अंत करण। हृदय । जैसे,—जो बात भीतर लिनी ग्वाल । रोरी भोड़न के सुमिस गोरी गहे गोपाल । से न उठे, वह न करनी चाहिए । -पद्माकर (शब्द०)। मुहा०-भीतर ही भीतर = मन ही मन । हृदय में भीड़ भड़का--संज्ञा पु० [हिं० भीड़ + भड़क्का अनु० ] बहुत से २. रनिवास । जनानखाना । उ०-प्रवधनाथ चाहत चलन आदमियो का समूह । भीड़। भीतर करहु जनाउ । भए प्रेम बस सचिव सुनि विप्र सभासद भीड़भाड़-ज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ भीड़ + भाद अनु० ] मनुष्यो का राउ ।—तुलसी (शब्द०)। जमाव । जनसमूह । भोड़। भीतरा-वि० [ देशी भीतर ] भीतर या जनानखाने मे जानेवाला। भीड़ा- -सञ्ज्ञा स्त्री० प्रा० भिड़ ] दे॰ 'भीड़। स्त्रियों मे धाने जानेवाला । भीड़ा-वि० [हिं० भिड़ना ] संकुचित । तंग । जैसे, भीड़ी गली। भीतरि-प्रव्य० [हिं० भीतर ] दे० 'भोतर' । उ०—करि गहि उ०-महत जी ने कहा कि स्वामी, गली बहुत भीड़ी है। लई उठाइ पकरि गृह भीतरि लाई।-नद० प्र०, पृ. १६६ । जोगो का माना जाना रुक गया।-श्रदाराम (शब्द॰) । भौतरिया-सज्ञा पु० [हिं० भीतर+इया (प्रत्य॰)] १. वह जो भीड़ी-संज्ञा स्त्री॰ [स० वृन्तिका हिं• भिंडी] भिंडी। रामतरोई । भीतर रहता हो। २. वल्लभोय ठाकुरो के वे प्रधान पुजारा उ.-वनकोरा पिडि साची चीड़ी। खोप पिंडारू कोमल मादि जो मदिर के भीतर मुर्ति के पास रहते हैं। (मब लोगों भीड़ी।-सूर (शब्द०)। को मदिर के भातर जाने का अधिकार नही होता)। भीड़ो–सशा स्त्री० [हिं० भीड़ ] जनसमूह । भीड़। भोतरिया-वि० भोतरवाला । अदर का । भातरी। भीत-सवा स्त्री० [स० भित्ति ] १. भित्तिका | दीवार | भीतरी–वि० [हिं० भीतर + ई (प्रत्य॰)] १. भीत रवाला । अदर मुहा०-भीत में दौड़ना या दौरना=अपने सामर्थ्य से बाहर का । जैसे, भोतरी कमरा; भातरी दरवाजा । अथवा भसंभव कार्य करना। उ०-बालि बला खर दूपन मुहा०-भीतरी पाखें अंधी होना=विवेक न होना । ज्ञान न पौर भनेक गिरे जे जे भीत मे दौरे ।—तुलसी (शब्द०)। भीत होना । उ०-देख करके ही किसी ने क्या किया, सांसवें सद 1
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४२३
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