फलदार ३२८१ फलयोग फलदार-वि० [हिं० फल + दार (फा० प्रत्य०) ] १. फलवाला। फलपूर-संज्ञा पुं० [सं०] १. दाडिम । अनार । २. बिजौरा जिसमें फल लगे हों। २. जो फले । जिसमें फल लगें। नीबू [को॰] । फलदू-संञ्चा पुं० [सं० फलन म ] एक वृक्ष का नाम जिसे धोषी भी फलपूरक-संघा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू (को॰) । कहते है। दे० 'धौली'। फलप्रदान-संघा पुं० [सं०] दे० 'फलदान' (को०)। फलन-शा पुं० [सं०] १. फलयुक्त होना । फलना । २. परिणाम फलप्राप्ति-संज्ञा स्त्री० [सं०] फललाम । सफलता [को०] । या फल देना [को॰] । फलप्रिय-संज्ञा पुं॰ [सं०] द्रोण काक । डोम कौवा । फलना-क्रि० स० [हिं० फल वा सं० फलन ] १. फल से युक्त फलप्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रियंगु । होना । फल लाना। उ०-बन उपवन फूलते फलते है उससे फलफंद-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'फरफंद' । सब जीव जंतु, पशु पक्षी प्रानंद में रहते हैं। लल्लू (शब्द०)। फलफलारी-मंना स्त्री० [सं० फल+हिं० फलहरी, फलारी ] फल २. फल देना। लाभदायक होना। परिणाम निकलना। उ०-जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाक। फलइ तबहिं जब करिय मूल । फल मेवा प्रादि । उ०-पाछे वैष्णव ने फलफलारी दुराक। तुलसी (शब्द०)। मेवा सामग्री सिद्ध करि न्हाय श्रीठाकुर जी के उत्थापन कराए।-दो सौ बावन०, भा॰ २, पृ० ११० । मुहा०—फलना फूलना = (१) सफल मनोरथ होना । उ०- फूल फल, फलै, खल, सीदै साधु पल पल, बानी दीपमालिका फलफूल-संज्ञा पुं॰ [सं० फल+हिं० फूल ] फल और फूल । ठठाइयत सूर हैं।—तुलसी (शब्द॰) । २. विकसित होना। फलबधी-वि० [सं० फलबन्धिन् ] जिसमें फल पा रहे हों [को०] । विकास करना। उ०-राजनीतिक परिस्थितियों में उसकी फलभर-संज्ञा पुं० [सं० ] फलों का भार या बोझ । उ०-फलभर छत्रछाया के नीचे साहित्य फलता फूलता रहा।-अकबरी०, नम्र बिटप सब रहे भूमि नियराइ ।-मानस, ३.३४ । पृ० १०॥ फलभरता-संज्ञा स्त्री० [सं० फलभर + ता (प्रत्य॰)] फलों से ३. शरीर के किसी भाग पर बहुत से छोटे छोटे दानों का एक भरा होना। फलों के भार या बोझ से पूर्ण होने की साथ निकल पाना जिससे पीड़ा होती है। स्थिति। 30-पुलकित कदंब की माला सी पहना देती फलनार-संज्ञा पुं० [हिं० फाल वा पहल ] एक प्रकार की छेनी हो अंतर में, झुक जाती है मन की डाली अपनी फसभरता के जिससे चितेरे और संगतराश सादी पत्तिर्या बनाते हैं। डर में । -कामायनी, पृ० १८ । फलनिवृत्ति'-मञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १. फलनिष्पत्ति । फलोदय २. फलभाक, फलभागी-वि० [सं० फलभाज.. फलभागिन् ] फल अंतिम परिणाम (को०] । पानेवाला या भोगनेवाला (को०] | फलनिवृत्ति-संशा स्त्री० [सं०] फल का होना [को०] । फलभु-संज्ञा पुं० [सं० फलभुज् ] फपि । बंदर [को०] । ! फलनिष्पत्ति-सच्चा स्त्री० [सं०] फलोक्य । फस्त की उत्पत्ति (को०] । फलभु-वि० फम खानेवाला । फलभोगी [को०] । फलपरिणसि-संशा सौ० [सं०] फल का पूरा पूरा पक जाना [को०] । फलभूमि-संशा को• [सं०] वह स्थान जहाँ कर्मों के फल का भोग फलपरिणाम-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'फलपरिणति' [को०] । करना पड़ता हो। फलपाक-संज्ञा पुं० [सं०] १. करौंदा । २. जलपावला । फलभृत्-वि० [सं०] फलित । फलयुक्त । जिसमें फल पाए या फलपाकांता-संज्ञा स्त्री० [सं० फलपाकान्ता ] फल पकने के बाद लगे हों [को॰] । नष्ट हो जानेवाला पौधा [को०] । फलभोग-संवा पुं० [सं०] १. कर्म के फत्त का भोग । २. चाम फलपाकावसाना-संज्ञा स्त्री० [सं० ] फलने के बाद समाप्त होने का अधिकार (को०] | वाला क पौधा । एकवार्षिक पौधा [को०] । फलभोजी-वि० [सं० फत्तभोलिन् ] फल खानेवाला [को०] । फलपाकी-सज्ञा पुं० [सं० फलपाकिन् ] गर्दभांड का पेड़। फलमत्स्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] घीकुँवार । घृतकुमारी। फलपातन-संज्ञा पुं० [सं०] बटोरने के लिये फल गिराना [को०] । फलमुंड-संज्ञा पुं० [सं० फनमुण्ड] नारियल का वृक्ष । फलपिता-संज्ञा पुं० [ सं० फल+पिता ] फल का पिता अर्थात् फूल । फलमुख्या-संवा स्त्री० [सं०] प्रजमोदा । अजवायन । -अनेका०, पृ०६०। फमुद्गरिका--संवा स्त्री० [सं०] पिंड खजूर । । फलपुच्छ-संज्ञा पुं॰ [ सं० ] यह घनस्पति जिसकी षड़ में गाठ पड़ती ' फलमूल-संशा पुं० [सं० ] फल पौर कंद या मूल । उ०—(क) लिए है । जैसे, प्याज, शलजम इत्यादि । फलमूल भेंट भरि धारा। मिलन चलेउ हिय हरपु अपारा । फलपुष्प-संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० फलपुष्पा ] वह वनस्पति जिसमें --मानस, १८८ । (ख) सुचि फलमूल मधुर मृदु पानी । फल और पुष्प दोनों हों। -मानस, श८६। फलपुष्पा, फलपुष्पी-संशा पुं० [सं०] पिंह खजूर । फलयोग-संशा पुं० [सं०] १. नाटक में वह स्थान जिसमें फल की
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