माथी HO भाड़ा ३६४० विशेष-यह एक छोटी कोठी के आकार का होता है जिसमें उबाला- हुआ चावल । पकाया हुपा चावल । उ०—(क) एक द्वार होता है और जिसकी छत पर बहुत से मिट्टी के भवभू वो तनु, रावल राता । नाचे बाजन वाज बराता । मौर बरतन ऊपर को मुह करके जड़े होते हैं। इसकी दीवार हाथ के माथे दूलह दीन्हों अकथा जोरि कहाता । मडये क चारन सवा हाथ ऊँची होती है। इसके द्वार से ईधन डाला जाता समघो दीन्हों पुत्र वहावल माता। दुलहिन लीपि चौक वैठाए है जिससे प्राग जलती है। आग की गर्मी से बाल लाल होता निरभय पद परमाता। भावहिं उलटि वरातहिं खायो भली है जिसे अलग निकालकर दूसरे बर्तन में दानों के साथ बनी कुशलाता ।-कबीर (शब्द०)। (ख) पहिले भात परोसे रखकर भूनते हैं। दो तीन बार इस प्रकार गरम बालू आना । जनहु सुबास कपूर बसाना ।—सूर (शब्द०) (ग) नंद डालने और चलाने से दाने खिल जाते हैं। बुलावत है गोपाल । भावहु वेगि बलैया लेहो सुदर नैन मुहा०-भाड झोंकना=(१) भाड़ में ईधन झोंकना। भाड़ बिसाल । परसेउ थार धरेउ मग चितवत वेगि चलो तुम में कूडा फेंकना। भाड़ गरम करना। (२) तुच्छ काम लाल । भात सिरात तात दुख पावत क्यों न चलो तत्काल । करना। नीच वृत्ति धारण करना। नीच काम करना । -सूर (शब्द०)। २. विवाह की एक रसम | अयोग्य काम करना। ३. व्यर्थ समय गंवाना । जैसे,—बारह विशेष-यह विवाह के दूसरे वा तीसरे दिन होती है। इसमें बरस दिल्ली में रहे, भाड़ झोकते रहे। भाड़ में झोंकना या समधी को भात खाने के लिये कन्या के घर बुलाया जाता डालना=(१) आय में डालना । चूल्हे मे डालना । जलाना । और उसे भात खिलाया जाता है। भात खाने के लिये उसे (२) फेंकना । नष्ट करना। (३) जाने देना । त्यागना । कुछ द्रव्य प्रादि भी भेंट किया जाता है। इसमें दोनों समघी भाड़ में पड़े वा जाय = प्राग लगे। नष्ट हो । ( उपेक्षा)। माडव में चौक पर बैठकर भात खाते हैं। भाडा-सज्ञा पुं० [सं० भाट ] किराया। 'भात-संज्ञा पु० [ ] १. प्रभात | सवेरा। २. दीप्ति । प्रकाश । मुहा०-भाड़े का १ =(१) थोड़े दिन तक रहनेवाला। जो भात -वि० चमकीला । प्रकाशयुक्त । व्यक्त [को०] । स्थायी न हो । क्षणिक । (२) जिसको सदा मरम्मत हुमा करे वा जिसपर लाभ से व्यय अधिक पड़ता हो। भाता-नशा पुं० [सं० भक्त, भत्त ] उपज का वह भाग जो हलवाहे "175 को राशि में से खलिहान में मिलता है। भाड़ा-मज्ञा पु० एक घास जो प्रायः हाथ भर ऊंची होती और निर्वल भूमि में उपजती है । यह चारे के काम माती है। विशेष-पूर्व काल में जब मासिक वेतन या दैनिक मजदुरी देने की प्रथा नहीं थी, तव हल जोतनेवाले को अन्न की उपज भाड़ा-सञ्ज्ञा पु० [स० भरण ] वह दिशा जिस ओर को वायु का छठा भाग दिया जाता था, मोर इसके बदले में वह वर्ष बहती हो। भर सपरिवार खेती के सब काम काज करता था। यह प्रया मुहा०-भाड़े पड़ना = जिधर वायु जाती हो, उधर नाव को अव भो नेपाल की तराई में कही कही है। चलाना । नाव को वायु के सहारे ले जाना । भाड़े फेरना= भाति -सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] १. शोमा । कांति । उ०—मनोहर है जिधर हवा का रुख हो, उधर नाव का मुंह फेरना । नैनन की भाति । मानहु दूरि करत बल अपने शरद कमल भाण-संज्ञा पुं० [ स०] १. नाट्यशास्त्रानुसार एक प्रकार का रूपक की भाति । —सूर (शब्द०)। २. प्रतीति या ज्ञान (को०)। जो नाटकादि दस रूपको के अतर्गत है। भाति-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'भौति' । विशेष—यह एक अंक का होता है और इसमे हास्य रस की भातु-मश पुं० [सं०] सूर्य। प्रधानता होती है। इसका नायक कोई निपुण पडित वा अन्य भाथ-पंञ्चा स्त्री० [सं० भस्त्रा, पा० भत्था ] घौंकनी । उ०- चतुर व्यक्ति होता है। इसमे नट आकाश की ओर देखकर (क) नृप चल्यो वान भरि भाय में । लिए सरासन हाय आप ही भाप सारी कहानी उक्ति प्रत्युक्ति के रूप में कहता मे । -गोपाल ( शब्द०)। (ख) इनके विनु जे जीवत जग जाता है, मानो वह किसी से बात कर रहा हो । वह बीच में ते सब श्वास लेत जिमि भाथ।-भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, बीच में हंसता जाता और क्रोधादि करता जाता है। इसमे पृ०४५३। धूतं के चरित्र का अनेक अवस्थानों सहित वर्णन होता है। वीच बीच में कही कही संगीत भी होता है। इसमें शौर्य और भाथा-सञ्चा पु० [सं० भस्वा प्रा० भत्था ] १. चमड़े की बनी हुई सौभाग्य द्वारा शृंगाररस भी सूचित होता है। संस्कृत भाणों लंबी थैली जिसमे तीर भरकर तीर चलानेवाले पीठ पर मे कौशिकी वृत्ति द्वारा कथा का वर्णन किया जाता है। यह वा कटि में बांधते थे। तरकश । तूणीर । उ०-भीत बसन दृष्यकाव्य है। परिकर कटि भाया । चारु चाप सर सोहत हाथा।-तुलसी २. व्याज | वहाना | मिस । ३. ज्ञान | बोध । (शब्द०)। २. बड़ी भाथी । भाणिका-संज्ञा स्त्री॰ [ स०] एक अंक में समाप्त होनेवाला हास्य- भाथी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० भस्त्री, पा० भत्थी ] १. चमड़े की घौकनी जिसे लगाकर लोहार भट्ठी की पाग सुलगाते हैं। घोकनी। रसप्रधान दृश्य काव्य । भाण । उ०-परम प्रभाती पर लोह दहैं भाथी सम, एहो बने हाथी भात'-संज्ञा पु० [सं० भक्त, पा० भक्त, प्रा० भत्त] १. पानी में साथी उग्रसेन सेन के । गोपाल ( शन्द०)।
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