पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३७१

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मटका २६१० भटू (शब्द०)। २. रास्ता भूल जाने के कारण इधर उधर न दिखाई पड़ना । उ०-बात अटपटी बढ़ी चाह चटपटी रहै, घूमना । ३. किसी को खोजने में इधर उधर घूमना । ४. चूक भटभटी लागज पे बीच बनी बसे ।---धनानद, पृ० २६ । जाना। ५. भ्रम में पडना । उ०-साँवरी मरति सों अटकी भटभेर-ज्ञा पु० [हिं० भटभेरा ] मुठभेड । मिलन । दे० भटकी सी बधू वट की भरै भांवरी। -दत्त (शब्द॰) । 'भटभेरा'। उ०-धे भानंद क्यों बचिए भटभेर अचानक भटका - संज्ञा पु० [हिं०] व्यर्थ घूमना। इधर उधर व्यर्थ चक्कर होत गरचार गली।-घनानद, पृ० १४४ । लगाना। भटभेरा @-संज्ञा ० [हिं० भट+भिड़ना ] १, दो वीरों का भटकाना-क्रि० स० [हिं० भटकना का सक० रूप] १. गलत सामना । मुकाबला । भिडंन । उ०-एक पिशाचिनि है यहि रास्ता बताना। ऐसा रास्ता बताना जिसमे आदमी भटके। बीच चलो किन तात करो भटभेरो ।-हनुमन्नाटक २. धोखा देना । भ्रम में डालना। (प्राब्द०) । २. धक्का । टक्कर । ठोकर । उ-कबहुँक ही भटकैया १- साझा पु० [हिं० भटकना+ऐया (प्रत्य॰)] १. वह संगति सुभाव तें जाउ सुमारग नेरो। तब फरि क्रोध संग जो भटक रहा हो। २. भटकानेवाला । कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो । -तुलसी (पाब्द०)। ३. भटकैया २-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० भटकटैया ] दे० 'भटक्ट। आकस्मिक मिलन । ऐसी भेंट जो अनायास हो जाय । अामने भटकौहाँ-वि० [हिं० भटकना+श्रौहाँ (प्रत्य॰)] भटकानेवाला । सामने से आते हुए मिलन । संयोग। उ०-गली अंधेरी भुलावे में डालनेवाला। उ०—तुम भटकौहे वचन बोलि हरि कांकरी भो भटभेरो प्रानि ।—बिहारी (शब्द॰) । करत रिमोहे ।-प्रबिकादत्त (शब्द०)। भटवाँस-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'भटनास' । भटक्कना-क्रि० अ० [देश॰] भडक उठना। भहकना। उ०-नव भटरा-संज्ञा पु० [देश०] १. भाट । २. भोटा या मिट्टी का ढूहा हत्थो मत्थो बडो रीस भटक्क रार। -बांकी. ग्रं०, भा० १, जिसपर ग्राम्य देवताओं की मूर्तियां वा पिंडी रहती हैं। पृ०११। उ०-भोये भटरे के पग लागै, साधु संत की निंदा । चेतन भटतीतर-संज्ञा पु० [हिं० भट ( = वडा)+ तीतर ] प्रायः एक को तजि पाह्न पूज, ऐसा यह जग अधा |--चरण. फुट लंबा एक प्रकार का पक्षी जो उचर पश्चिम भारत में बानी०, पृ०७३। पाया जाता है। इसकी मादा एक बार में तीन अडे देती है। भटा'-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] इंद्रवारणी। इंद्रायन । इनारू । विशेष लोग प्राय: इसके मास के लिये इसका शिकार करते हैं । दे० 'इंद्रायन'। भटधर्मा-वि० [सं० भटधर्मन् ] वीर धर्म का पालन करनेवाला । भटा-संज्ञा पुं० [हिं० भटा ] दे० 'बैगन' । सच्चा वहादुर। भटाश्वपति-संञ्चा पु० [सं० ] सेना की चारो शाखापो का प्रधान । भटनास-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की लता जो चीन, जापान उ०-सेना मे पैदल, घुडसवार, हाथियो के समूह तथा और जावा मे बहुत अधिकता से होती है। रथदल, ऐसी चार शाखाएं होती थीं। इसके प्रधान कर्म- विशष-प्रव वरमा, पूर्वी बगाल, आसाम, गोरखपुर, बस्ती चारी को अश्वपति, भटाश्वपति या हस्त्यध्यक्ष कहते थे । आदि मे भी इसकी खेती होने लगी है। इसमे एक प्रकार -पूर्व० म० भा०, पृ० १०३ । की फलियां लगती हैं; और उन्ही फलियो के लिये इसकी भटियारा-सज्ञा पुं० [ हिं० भट्टा + इयारा (प्रत्य॰)] [स्त्री० खेती की जाती है। फलियों के दानो की दाल भी बनाई भटियारिन, भटियारी ] दे० 'भठियारा'। जाती है और सत्त भी। ये फलियां बहुत पुष्ट होती हैं और भटियारी'-पज्ञा स्त्री॰ [देश॰] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी पशुप्रो को भी खिलाई जाती हैं। यह दो प्रकार की होती जिसमे ऋषभ कोमल लगता है। है-एक सफेद और दूसरी फाली। मैदानों में यह प्रायः भटियारी-संज्ञा सी० [हिं० भटियारा] भटियारे की स्त्री । उ०- खरीफ की फसल के साथ बोई जाती है। भटियारियों का कायदा है कि जब लड़ाई को जी चाहता है भटनेर-सज्ञा पुं० [स० भट+नगर ] एक प्राचीन राज्य का मुख्य तो स्वाही न स्वाही छेडखानी करती हैं। -सेर०, पृ० ३८ । नगर जो सिंघ नदी के पूर्वी तट पर स्थित था ! इस नगर मुहा०-भटियारियों की तरह लड़ना = वेसबब गदी बातें कहते को तैमूर ने चढ़ाई के समय लूटा था। उ०-भटनेर राय की हुए झगडना। उ०-लाडो, तुम तो भटियारियो की तरह पाइ भेट।-० रा०, ११३३ । लड़ती हो।-सैर०, पृ० ३८ । भटनेरा-संज्ञा पु० [हिं० भट+नगरा] १. भटनेर नगर का निवासी। भटियाल-क्रि० वि० [हिं० भाटा+इयाल (प्रत्य॰)] पार की २. वैश्यो की एक उपजाति । पोर । घार के साथ साथ। जिस मोर भाटा जाता हो, उस भटपेटक-संज्ञा पु० [स०] सेना की टुकड़ी । गुल्म [को॰] । ओर । (लश०)। भटबलाग्र-संशा पु० [सं०] १. वीर । श्रेष्ठ वीर । २. सेना । भटियारो, भटिहारिन-सज्ञा स्त्री० [हिं० भटियारा] दे० 'भटियारी'। पम्को०] । भा-सज्ञा स्त्री॰ [ स० वधू, बज०] १. स्त्रियों के संबोधन के लिये भटभटी-सञ्ज्ञा ली० [हिं०] भटकने की स्थिति । देखते हुए भी एक आदरसूचक शब्द । उ०-या व्रज मंडल में रसखानि सु