पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३६२

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30- डालना। भँवा ३६०१ भकुआ २. बनियों का सौदा लेकर घूम घूमकर बेचना । फेरी । ३. नंद० ग्र०, पृ० २५५ । २. एक पादरसूचक शब्द जिसका रक्षक, कोतवाल या अन्य कर्मचारियों का प्रजा की रक्षा व्यवहार प्रायः वरावरवालों के लिये होता है । के लिये चक्कर लगाना। फेती। गश्त । उ०-फिरै पाँव भउँहा-संज्ञा स्त्री० [ अप० भउँह (म० पु०, १।२२ ), हिं० भौंह] कुतवार सु भंवरी । काँ पाउँ चंपत वह पौरी।जायसी दे.--'भी' । उ०-भउंह धनु गुन कापर रेख | मार नम व (शब्द०)। पुख अपशेप । -विद्यापति, पृ० १६ । क्रि० प्र०-फिरना । —लगाना । भउजाई -संज्ञा स्त्री० [हिं० भौजाई<सं० भातृजाया] दे० 'भौजाई । ४. परिक्रमा । (स्त्रियाँ) । भउजी-पंजा स्त्री० [हिं०] दे० 'भौजाई । क्रि० प्र०-देना। रामशंकर जी ने दूसरा दृश्य जो उनका असली है भँवा-संज्ञा जो० [स० भ्र , हि. भौं ] दे० 'भी' । उ०-चारिज भवा दिखाया | कहा, काछिन भउजी, वही आज फिर दे जायो। अलक टेढ़ी मनो अति सुगंधि रस अटके।-संतवानी०, यह तुम्हारे भतीजे हैं, इनका कुछ पादर, स्वागत करना है। भा०२, पृ०७६ । -~-काले०, पृ० १६ । भँवाना-क्रि० स० [हिं० भँवना ] १. घुमाना। फिराना । भउरा-संज्ञा० पु० [हिं०] १. दे० औरा'। उ०-जो जन जाय, चक्कर देना । उ०—(क) ग्यारे चंद्र पूर्व फिर जाय । बहू रहै तहैं शिव होय ज्यों अलीग्रल पर भउरा । -प्राण, कलेस सों दिवस भवाय । ---जायसी (शब्द॰) । (ख) पृ० ६५ । २. कंडे की निधूम अग्नि । तेहि अंगद कह लात उठाई । गहि पद पटके उ भूमि भवाई । —तुलसी (शब्द०)। २. भ्रम मे डालना। उलझन में भक-संज्ञा स्री० [ अनु० ] सहसा पथवा रद्द रहकर आग के जल उठने अथवा वेग से धुएं के निकलने के कारण उत्पन्न होने- वाला शब्द । इसका प्रयोग प्राय : 'से' विभक्ति के साथ होता भँवारा-वि० [हिं० भँवना + पारा (प्रत्य॰)] भ्रमणशील । है। जैसे लंप.भक से जल उठा। घूमनेवाला। फिरने वाला। उ०-विलग मत मानो ऊधो भकक्षा-संडा स्त्री० [सं०] नक्षत्र कक्षा । प्यारे । यह मथुरा काजर की डावरि जे पावै ते कारे । तुम, फारे सुफलक सुत फारे कारे मधुप भवारे । ता गुण भकटानाई-क्रि० अ० [ ? ] दे० 'भकसाना' । श्याम अधिक छवि उपजत कमल नैन मरिण पारे ।—सूर भकठना-क्रि० प्र० [सं० विकार ] दे० भगरना' । (शब्द॰) । (ख) बिबरन प्रानन अरिंगनी निरखि भवारे भकति-ज्ञा स्त्री० [सं० भक्ति ] दे॰ 'भक्ति' । उ०-बहु विभूति मोर । दरकि गई आँगी नई फरकि उठे कुच कोर-शृं० हरि द्विज क्यो दीनी। दया भकति पतनी सुभ कीनी।- सत (शब्द०)। नंद० ग्रं॰, पृ० २१२ । भैंसना-क्रि० प्र० [हि. बहना ] १. पानी के ऊपर तैरना । जैसे, भकभक-पुंज्ञा स्त्री० [अनु० ] दे० 'भक' । भंसता जहाज । (लग)। २. पानी मे डाला या फेका भकभकाना-क्रि० प्र० [अनु० ] भक भक शब्द करते हुप जलना। जाना। दे० 'भसाना'। भैंसरा--संज्ञा पु० [हिं०] दे० भैग्नी'। भकरॊधा-संज्ञा स्त्री० हि० भगरना अथवा भक्त ( = भात) ?+गंध] अँसाना-वि० पुं० [वंग० भासान ] पूजित देवमूर्ति का जल में अनाज के सड़ने की गंध । सड़े हुए भनाज की गंध । विसर्जन | भसान। भ-संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्र । २. ग्रह । ३. राशि | ४. शुक्रा- भकराँधा-० [हिं० भकध+श्रा (प्रत्य०) ] सड़ा हुआ अन्न | चार्य । ५. भ्रगर । शोरा। ६. भूधर । पहाड़ । ७. भ्रांति । भकसा-व० [हिं० भकसाना या भकटाना ] ( खाद्य पदार्थ ) जो ८. छदशास्त्रानुसार एक गण का नाम जिसके प्रादि का अधिक समय तक पड़ा रहने के कारण फसला हो गया हो वणं गुरु पोर शेष दो लघु ा होते हैं । भगण | और जिसमें से एक विशेष प्रकार की दुर्गध पाती हो। साहुप्रा। भइया-सा पु० [हिं० भाई ] दे० 'भैया' । 30-अरेरे पथिक भइया समाद लए जइह, जाहि देस बस मोर नाह। भकसाना-कि० अ० [हिं० कसाव ] किसी खाद्य पदार्थ का विद्यापति, पृ० १९८ । अधिक गुमय तक पहे रहने अथवा और किसी कारण से भइरव+-सज्ञा पु० [सं० भैरव ] दे० 'भैरव' । उ०—ोही माणू वदवूदार और कसैला हो जाना। भइरव चाग का फून, चोवा चंदन अंग कपूर ।--पी० रासो, भकाऊँ-संज्ञा पु० [ अनु० या हिं० बीघ ( = भेहिया)] वच्चों को पृ०२९। डराने के लिये एक कल्पित व्यक्ति । हौवा । भइया-सशा पु० [हिं० भाई + इया ( प्रत्य॰)] १. भाई । उ०- भकुआ-वि० [ देश० ] मूर्ख । मूढ़। ' हतबुद्धि । बुद्ध । मोर के माए दोऊ भइया । कीनों नाहिन कलेऊ दइया ।- बेवकूफ । उ०-अपने देश की बनी वस्तुमों को छोड़कर ७-४४ चमकना या भभकना।