पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३१८

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1 धरजरी वरोक हो फिर भूखा नांगा ।—जायसी (शब्द०)। २. विलंब । सदा सब माना। दुख चिता कोई जरम न जाना ।—जायसी देर । उ०—बेर न कीजे वेग चलि, बलि जाउँरी वाल । ग्रं० (गुप्त), पृ० १४६ । ब्रज० प्र०, पृ०६। वेरिया-प्रज्ञा स्त्री॰ [ म० वेला ( = समय) ] वेला । समय । यौ-वेर वखत = समय कुसमय। मोके वैमोके । जरूरत के वेरिजा-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] क्सिी जिले की कुल जमा। उ०-३त्त समय । उ०-प्रपने हाथ मे वेर घखत के लिये पूरा स्टोक को तेरिज वेरिज बुधि की ध्यान निरखि ठहराई ।-धरनी. रखना जरूरी है। -मैला०, पृ० २३० । वानी, पृ०४॥ बेरजरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० वेर + मढ़ी ] झड़वेरी । जगली बेर । वेरियाँ -सज्ञा सा [हिं० वेर ] समय । वक्त । काल । वेला । उ०-बेरजरी सु बीलया बूटी । बरू बहेर धाबची जूटी।- उ०—पिय प्रावन की भई वेरिया दरवजवा ठाढ़ी रहूँ। सूदन ( शब्द०)। -गीत (शब्द०)। वेरजा-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'विरोजा' । वेरिया'-संशा सी० [हिं० वेर + इया (प्रत्य॰)] बार । दफा । बेरवाई - संज्ञा पुं॰ [ देश० या वलय ] वलाई मे पहनने का सोने या उ०-वेरिया एक इडा सो खैचे । पिंगला दूजी बार जु एचे । चांदी का कड़ा। -अष्टांग०, पृ० ७४ । बेरवा-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'क्योरा' । वेरिया-वि० [फा० वेरिया श्र] प्रार्डवरविहीन । निश्छल । बेरस-वि० [फा० वे + हिं० रस ] १. जिसमें रस का प्रभाव पाखंडहीन [को०] । हो। रस रहित । २. जिसमे अच्छा स्वाद न हो। बुरे स्वाद वेरी'-शा स्री० [सं० घदरी हिं• वेर (= फल) ] एक प्रकार की वाला । २. जिसमें प्रानंद न हो । बेमजा। लता जो हिमालय मे होती है। इससे रेशों से रस्सियां वेरसा२--संज्ञा पुं० रस का प्रभाव । विरसता । ( क्व० )। और मछली फंसाने के जाल बनते हैं। इसे 'मुरकूल' भी कहते हैं । २. दे. 'वेर' । ३. एक में मिली हुई सरसों और तीसी। वेरसना-क्रि० स० [सं० विलसन ] भोगना । विलसना । उ०- ४. खत्रियों की एक शाखा । वेरसह नव लख लच्छि पिधारी। राज छांडि जनि होहु भिखारी |--जायसी० ० (गुप्त), पृ० २०७ । बेरी-मंज्ञा स्त्री॰ [हिं० वेड़ी ] दे० 'बेड़ी'। उ०—(क) हथ्थ हथ्थ करि प्रेम की पाइन वेरी लोन । गल. तोष वा पान की वेरह- -सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'वेढ़ई। छुटयो कहत है कोन :-पृ० रा०, ६६१४०६ (ख) हरि ने वेरहही --सज्ञा स्री० [वेर+हिं० हदी ] घुटने के नीचे की हड्डी फुटुब जाल में गेरी। गुरु ने काटी ममता बेरी।-सहजो०, में का उभार। वानी, पृ०४। वेरहम--वि० [फा० बेरहम ] जिसके हृदय में दया न हो । निर्दय । बेरो-संज्ञा श्री० [हिं० घार (=दफा) १. दे० 'बेर' । २. उतना निठुर । दयाशून्य । अनाज जितना एक बार चक्की में डाला जाता है। अनाज बेरहमी---संज्ञा स्त्री॰ [फा० वेरहमी ] वेरहम होने का भाव । की मुट्ठी जो चक्की में डाली जाती है । निर्दयता । दयाशून्यता । निष्ठुरता । वेरीछत-सज्ञा पुं॰ [देश॰] पक शब्द जो महावत लोग हाथी को वेरा-संज्ञा पुं० [सं० वेला ] १. समय । वक्त । वेला । २. देर । किसी काम से मना करने के लिये कहते हैं । विलंब । उ०-गोहिं घट जीव घटत नहिं वेरा |—जायसी वेरुआ-संज्ञा पुं० दिश०] बांस का वह टुकड़ा जो नाव खीचने की प्र०, पृ० ११० । ३. तड़का । भोर । प्रातःकाल । गून में भागे की प्रोर बंधा रहता है और जिसे कंधे पर वेरा-संज्ञा पुं॰ [देश०] एक में मिला हुमा जौ और चना । वेरी। रखकर मल्लाह चलते हैं। वेरा-सा पुं० [सं० वेड़ा ] दे० 'बेटा' । उ०-भवसागर वेरा वेरुई --संवा सी० [ ? ] वेश्या । रंडी। परो, जल मांझ मझारे हो। संतन दीन दयाल ही करि वेरुकी-संज्ञा स्त्री॰ [रशः] एक रोग जिसमें बैलों की जीभ पर काले पार निकारे हो ।-संतबानी०, पृ० १२६ । काले छाले हो जाते हैं और उसे बहुत कष्ट देते है। मेरा-संटा पु० [अं० वेश्ररर (= वाहक)] वह चपरासी, विशेषतः वेरुख-वि० [फा० वेरुख ] १. जो समय पड़ने पर ग्ख (मुह) साहब लोगों का वह चपरासी जिसका काम चिट्ठो पत्रो या फेर ले । वेमुरव्वत । २. नाराज । क्रुद्ध । रुष्ट । समाचार प्रादि पहुंचाना और ले पाना मादि होता है। क्रि० प्र०—पड़ना ।—होना । बेरादरी-संज्ञा पुं॰ [फा० पिरादरो ] दे० 'विरादरी' । वेरूखी-संशा जी० [फा० बेरुखी ] बेरुख होने का भाव । अवसर वेरानो-वि० [हिं० बिराना ] पराया। अन्य का। उ०-वेरानी पड़ने पर मुंह फेर लेना । वेमुरव्वती । सब तमाशा यह जो देखें। कबीर म०, पृ० ३७६ । क्रि० प्र०—करना ।-दिसाना । बेरामा-वि० [फा० +थाराम ] दे० 'बीमार'। वेरूपा-वि० [सं० विरूप ] भद्दी शक्लवाला । कुरूप | पदशक्ल । वेरामी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० वेराम+ ई (प्रत्य॰)] दे॰ 'बीमारी' । वेरोक-क्रि० वि० [फा० वै+हिं० रोक ] बिना किसी प्रकार की बेरासा-संज्ञा पुं० [सं० विलास ] दे० 'विलास' । उ०-भोग वेरास रुकावट के । वेखटके । निवित । 1