पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२९७

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चुनवाना पुरा खेड़ी। नियम के अनुसार बाने के गुतो को बैठाने की यही किया वुयाम-मश पुं० [अं० ? ] चीनी मिट्टी का बना हुप्रा एक प्रकार 'वनना' कहलाती है। का गोल योर मंचा बड़ा पात्र जो माधारणत: तेजाव पौर २. बहुत से सीधे मोर बेहे गुतों को मिलाकर उनको के ऊपर पचार यादि रसने के काम मेश्राता है । जार । और कुछ के नीचे से निकालकर अथवा उनमे गोट प्रादि बुरी-मा [म. यूरि ] स्त्री की योनि । मग । देकर कोई चीज तैयार करना । जैसे, गुलवंद गुनना । बुरफना-फि० ल. [ अनु.] किमी निमी हुई या महीन पोज को जाल बुनना। ३ बहुत से ताने प्रादि को महायता से उपत हाप से धीरे धीरे किसी दूसरी चीज पर छिड़कना । नुर- क्रिया से अथवा उससे मिलती जुलती किसी और क्रिया से भुराना ।30-सुंदर गुपग गर जो पुर की । चोया चदन कोई चीज तैयार करना । जैसे, मकड़ी का जाला बुनना। बंदन बुरी।-नं२० ग्रं२, पृ० २१३ । संयो० क्रि०-डालना ।—देना । वुरकना-सा पुं० बच्चों की यह दावात जिसमें वे पटिया धादि वुनवाना-क्रि० स० [हिं० चुनना] बुनने का काम कराना । पर लिखने के लिये गरिया गिट्टी पोलार रखते हैं। बुनाई -नज्ञा स्त्री० [हिं० बुनना + ई (प्रत्य॰)] १. बुनने की बोग्या। बोरिसा। क्रिया या भाव । बुनावट । २. बुनने की मजदूरी । घुरका-संस पुं० [अ० बरका] १. प्रायः चले के प्राकार का बुनावट-संशा रसो• [हिं० युनना+श्रावट (प्रत्य॰)] बुनने में सूतों मुसनमान स्त्रियों का एक प्रगर का पहनावा जो दूसरे सब के मिलावट का ढग । सूनो के सयोग का प्रकार । बस्स पहन गुरने के उपगत मिर पर से डाल लिया जाता बुनिया-संज्ञा सी० [हिं० द+इया ( प्रत्य०) ] ३० दिया। है और जिससे गिर मे पैर तक मब मंग दफे रहते हैं। इसमें बुनियाद-मज्ञा स्री० [फा०] १. जड़ मूल । नीव । २. का जो भाग प्रांगों के सामने पढ़ता है, उसमे जाली लगी असलियत । वास्तविकता । २. प्रारंभ । शुरूपात । रहती है जिसमे चलते समय नामने की चीजें दिखाई पड़े। क्रि० प्र०-ढालना-देना।-रखना। उ.-बुरका टारं सारि सुदा बागुद दिसरावै ।-पल, पृ० ४२॥ बुनियादी-वि० [फा० बुनियाद + ई (प्रत्य॰)] मूल या नीव संबंधी। यो०-दुरकापोश = जो वरका पोढ़े हुए हो। असली। मूलभूत । उ०---शुक्ल जी जीवन और साहित्य फे २. वह मिल्ली जिसमें जन्म के समय बचा लिपटा रहता है। भावो में बुनियादी पंतर नहीं मानते । -भाचार्य०, पृ० ५। बुबुकना-क्रि० प्र० [अनु० ] जोर जोर से रोना । वुवका फाइना । डाढ़ मारना । उ०-जहाँ तहाँ बुबुक बिलो के बुबकारी देत । पुरकाना-फि० म० हिं० दरकना का प्रे० रूप ] वरकने का -तुलसी ग्र०, पृ० १७१ । काम दूसरे से कराना । दूसरे यो बुरराने में प्रवृत्त करना। चुबुकारी-सज्ञा सी० [अनु० बुयुक+श्रारो (प्रत्य० ) ] साढ़ मार- बुरज, बुरिजल-सा [फा० धुर्ज ] १.:. 'दज'। उ.- कर रोने की क्रिया। बुकका फाडकर रोना। उo-जहाँ (क) पुरज. बुरज घर म परी । -ह. रासो, पृ० ७७ । तहाँ बुकि विलोकि युवारी देत, जरत निकेत घाव घाव २. राशि (यह शरीरस्य नानी गश) 30-नो से जोगणी लागि प्रागिरे।-तुलसी ग्रं॰, पृ० १७१। चालिबा सार्थ, बुरिज वहरि नाश्या नावं --गोरस०, पृ० १६२। क्रि० प्र०-देना।-मारना । बुरदू-मंश पुं० [सं० पो ] १. पार । बगल । २. मोर। बुबुधान- वि० [सं०] दे० 'वृधान' (को०)। तरफ । ३. जहाज का बगल वाला भाग। ४. जहाज का वह बुजुर-संज्ञा पुं० [स० ] जल । पानी को०] । भाग जो हवा या तूफान करा पर न पडता हो, बल्कि बुभुक्षा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] खाने की इच्छा । क्षुधा । भूख । पीछे की ओर हो । (लभः)। बुभुक्षित-वि० [सं० ] जिसे भूख नगी हो । भूखा । क्षुधित । २. बुरना@:-कि० प्र० [हिं०] बडना । बना। उ-बड़े सुसे किसी वस्तु की इच्छा करनेवाला [को॰] । सासु तुममोवाह मथा। प्रोठ बुरत सुरसरि सथा।- विद्यापति, पृ० ५११ । बुभुतु - वि० [ स०] १. सुखा । वु गुक्षित । २. सासारिक इच्छानो, वासनामों का इच्छुक । मुमुक्षु का विलोम [को०] । सं० विरूप] [ वि० ग्री० युरो] जो पच्छा या उचम न हो । खराव । निकृष्ट । मंदा । बुभुत्सा-संज्ञा सी० [स० ] जानने की इच्छा । जिज्ञासा । ज्ञान की चकांक्षा [को०] । वुरा २-संज्ञा पुं॰ हानि । बुराई । शत्रुता। पुरा बुभुत्सु-वि० [सं० ] जानने का इच्छुक । जिज्ञासु [को०] । मुहा०-युग करना = हानि करना। चुराई करना । मानना= द्वेष रखना। बैर रखना । सार साना। 30- बुभूषक-वि० [सं०] शुभ, कल्याण, शक्ति प्रादि का इच्छुक [को॰] । यह वाको वचन सुनत ही हरिदास के ऊपर राजा ने बोहोत बुभूषा--संज्ञा स्त्री० [सं०] [ वि० वुभूपक, बुभपु ] यश की इच्छा बुरी मान्यो ।-दो सौ वावन, भा० १, पृ० २४४ । पुरा रखना। जोग जगना या लगना = दिन माना। उ-जाणी खुरा'-१०