पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८८

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बोरो, बीरी बीहर जानन को मन लावत धंधै ।- (शब्द॰) । ५. एक दंतमंजन । प्रवनीपति हारि रहे जिय में जब जाने । बीस बीसे व्रत भंग मिस्सी। दांत रंगने का मंजन। उ०-कोइ वीरा कोइ भयो सो कही अव केशव को धनु ताने ।-केशव (शब्द०)। लीन्हे वीरी।-जायसी ०, पृ० १२७ । (ख) बीस बीसे जानी महा मूरख विघाता है ।--पद्माकर बोरो, बीरौ -संज्ञा पु० [हिं० विरवा ] वृक्ष । पेड । उ०—(क) (शब्द०)। आपहु खोइ भोहि जो पावा । सो बीरी जनु लाइ जमावा । २. श्रेष्ठ । वड़ा । ३. अच्छा । उत्तप । श्रेष्ठ । उ०-नाथ अचान --(शब्द०)। (ख) सुनि रानी मन कीन्ह विचारा। उपजत उचकि के चढे तासु के सीस। ताकी जनु महिमा करी, वीस वीरी जी न उपारा ।-चित्रा०, पृ० ५२ । राजते वीस ।-देवस्वामी (शब्द०)। ची@- संज्ञा पु० [सं० वीर्य ] दे॰ 'वीर्य' । उ०-हमरी मान बीज बीस-संज्ञा स्त्री० १. वीस की संख्या। बीस की संख्या का द्योतक बल जितो। प्रभु तुम सम्यक जानहु तितौ। नद० ग्रं, चिह्न । बीस का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है -२० । पृ० २७४। बीस-सज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार का वृक्ष जो गोरखपुर और बील'-वि० [सं० विल ] पोला । अंदर से खाली । बरमा के जगलों तथा कोंकण देश में पाया जाता है। इसकी लकड़ी बहुत अच्छी होती है और प्रायः बदूक के कुंदे बनाने बील-संज्ञा पुं॰ वह भूमि जो नीची हो और जहां पानी भरा रहता के काम में आती है। हो। झील ताल इत्यादि की भूमि । बीस-संज्ञा पुं० [सं० विप] जहर । विष । बोल3-संज्ञा पुं० [सं० वित्व ] १. बेल । उ०-रहै उघारे मूड बीसना-क्रि० स० [ स० विशन वा वेशन ] शतरज या चौसर बार हूँ तापर नाही। तप्यो जेठ को घाम बील की पकरी पादि खेलने के लिये विसात बिछाना । खेल के लिये विसात छाही.-ग्रज. ग्रं॰, पृ० ७६ । २. एक पोषधि का नाम । फैलाना। बीलो-संज्ञा श्री० [हिं० बिल्ली ] दे० 'बिल्ली'। उ०-बोली नाचे मुस मिन्दगी खरहा ताल बजावै ।-संत० दरिया. बीसरना-क्रि० प्र०, क्रि० स० [सं० विस्मरण ] दे० 'बिसरना' । उ०-परन कुटी सो बीसरत नाही, नाहिन भावत सुदर पृ० १२६। घाम । -पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३०५ । बीवरी-वि० [सं० वीरघर ] वीरवर । श्रेष्ठ योद्धा। बीरों में घोसराना-क्रि० स० [हिं० बिसरना ] दे० 'बिसराना' उ०- श्रेष्ठ । उ०रयणागिर राठोड़ बल काढयो तै बीवरो। क्यू' बीसरायो गोरी पूरब देस । पाप तणउ तिहाँ नहीं -ट०, पृ० १७२ । प्रवेश |-वी० रासो, पृ० ३५ । धीवर -संज्ञा पुं० [अं॰] एक प्रकार का जंतु जो उत्तरीय अमेरिका बोसा-वि० [सं० विंशतिम, हिं० बीस+वा (प्रत्य॰)] जो गणना और एशिया के उत्तरी किनारे पर होता है । मे उन्नीस के बाद हो । बीस के स्थान पर पड़नेवाला । विशेष-यह पानी के किनारे मुड बांधकर रहता है। इसके बीसाल पु-वि० [सं० विशाल ] दे॰ 'विशाल' । उ०-भाल तीलक मुंह में बड़े, बड़े मजबूत और केटीले दांत होते हैं पौर बीसाल लोचन प्रानंद कद श्रीराम है।-रामानंद०, पृ० ५५ । ऊपर नीचे चार चार डाढ़ें होती हैं जो ऊपर की ओर बीसी'-संज्ञा सी० [हिं० बीस ] १. बीस चीजों का समूह । कोड़ी। चिपटी और कठोर होती हैं। इसके प्रत्येक पांव में पांच पांच २. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार साठ संवत्सरों के तीन विभागो उंगलियां होती है। पिछले पैरों की उगलियाँ जुडी रहती में से कोई विभाग। इनमें से पहली बीसी ब्रह्मबीसी, दूसरी हैं और दूसरी उगली का नाखून भी दोहरा रहता है। इसको विष्णुचीसी और तीसरी रुद्र वा शिववीसी कहलाती है। पूछ भारी, नीचे ऊपर से चपटी और छिलकों से ढंकी होती उ०-वीमी विश्वनाथ को विषाद वड़ो वारानसी बूझिए न है। इसकी नाक और कान की बनावट ऐसी होती है कि पानी ऐसी गति शंकर सहर की।—तुलसी (शब्द०)। ३. भूमि की में गोता लगाने से प्रापसे आप उनके छेद बंद हो जाते हैं। एक प्रकार की नाप जो एक एकड़ से कम होती है। उतनी इसका चमड़ा, जो समूर कहलाता है, कोमल होता है और भूमि जिसमें बीस नालियां हों। बड़े दामो को विकता है। इसका मांस स्वादिष्ट होता है बीसी-सज्ञा पुं० [सं० विशिख ] तौलने का कांटा । तुला । पर लोग इसका शिकार विशेषतः चमड़े के लिये ही बीसी-सज्ञा ती० [सं० हि० विस्वा ] प्रति बीघे दो विस्वे की उपज जो जमीदार को दी जाती है। बीवी-रंशा स्त्री॰ [फा०] दे० 'बीवी' । बीहंगम-संज्ञा पुं० [सं० विहङ्गम ] दे० 'विहंग' । २०-बीहंगम चीस-वि० [सं० विंशति, प्रा० वीशति, घीसा ] जो संख्या में दस चढि गयउ घकासा-द० सागर, पृ०६७। का दूना और उन्नीस से एक अधिक हो । बीह-वि० [सं० विंशति, प्रा० घीसा, बीह ] बीस | उ0- मुहा०-धीस बिस्वे = अधिक संभवतः । जैसे,-वीस विस्वे हम सांचहु मैं लबार भुज बीहा । जी न उपारउँ तव दस जोहा । सवेरे ही पहुँच जायेंगे । बीस बिसे= (१) दे० 'बीस विस्वे'। -तुलसी (शब्द०)। (२) पूर्णतः। पूरी तौर से। उ०—(क) सातहु द्वीपन के बीह@२-संञ्चा पुं० [सं० भी (= भय) ] भय । भीति । उ० करते हैं।