पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२८२

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बीछण बीजखाद बीछणा-संज्ञा सी० [सं० वृश्चिक ] दे० 'बिच्छी' । उ०-तन धारे समुदाय वा शब्द जिसको कोई व्यक्ति जो उसके सांकेतिक बोछण तणो, जग चुगलां री जीह ।-बाँकी० ग्रं॰, भा॰ २, भावों को न जानता हो, नही समझ सकता। ७. गणित का पृ०५१। एक भेद जिसमें अव्यक्त संख्या के सूचक संकेतों का व्यवहार वीछना@-क्रि० स० [सं० विचय वा विचयन या स० वीक्षण] १. होता है । दे० 'बीजगणित' । ८. अध्यक्त संख्यासूचक संकेत । चुनना | पसंद करके अलग करना । उ०-सानुज सानंद हिए ६. वह अव्यक्त ध्वनि वा शब्द जिसमें तंत्रानुसार किसी देवता छाँटना । आगे ( जनक लिए रचना रुचिर सब सादर दिखाइ को प्रसन्न करने की शक्ति मानी गई हो। कै । दिए दिव्य प्रासन सुपास सावकास अति पाछे पाछे वीछे विशेप-भिन्न भिन्न देवताओं का भिन्न भिन्न बीजमंत्र वीछे बिछौना विछ। इ के । -तुलसी (शब्द०)। होता है। १०. मंत्र का प्रधान भाग या भंग। बीछनारे-क्रि० स० [सं० बीक्षण] देखना । भली भांति देखना । एक एक वो अलग अलग देखना। उ०-बाहिर भीतर विशेप-तंत्रानुसार मत्र के तीन प्रधान अंग होते हैं-बीज, भीतर बाहिर ज्यों कोउ जाने त्यों ही फरि ईछौ। जैसो शक्ति और कीलक । ही मापुनी भाव है सुदर तैसो हि है दृग खोलि के बीछौ । ११. वह भावपूर्ण.. सांकेतिक अव्यक्त शब्द जिसमें बहुत से भाव -सुदर० म०, भा॰ २, पृ० ५७७ । सूक्ष्म रूप से सन्निवेशित हों और जिसका तात्पर्य दूसरे लोग, पीछील-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० वृश्चिक ] बिच्छू । उ०—ग्रह गृहीत जिन्हे साकेतिक अर्थों का ज्ञान न हो, न जान सकें। ऐसे पुनि बात वस तेहि पुनि वीछी मार । ताहि पियाई बारुनो शब्दों का प्रयोग रासायनिक तथा इसी प्रकार के मौर कार्यों कहहु कवन उपचार । —तुलसी (शब्द॰) । के लिये किया जाता है। १२. मज्जा (को०)। १३. नाटक में प्रारंभ में मूल कथा की ओर संकेत । उ०-यह रूपक राजा क्रि० प्र०-मारना। सूरजदेव की रानी नीलदेवी का अपने पति के प्राण के बदले मुहा०-बीछी चढ़ना = विच्छू के डंक का विष चढ़ना । उ०- में उक्त पतिप्राणहारक शत्रु का वध कर डालने के बीज पर नगर ब्यापि गइ वात सुतीछो । छुवत चढ़ी जनु सब तन लिया गया है। प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० ४२८ । बीछो। -तुलसी (शब्द॰) । धीज-संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत् ] दे० 'विजली' । उ०-छुट्यो पट्ट बोछुटना, बोछुड़नाg+-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'बिछुड़ना' । पीतंबरं कट्टि छुट्टी। मनों स्याम प्राकास ते बीज तुट्टी।- उ०—(क) नां बहु मरै न बोछुट न दुख व्यापै कोह।- पृ० रा०, ११३४ । (ख) अजहुँ शशी मुह बीज दिखावा । द दू०, पृ० ४६३ । (ख) पान बेल से बीछुडे परदेशा रस चौघ परयो कछु कहै न पावा।-जायसी (शब्द०)। देत ।-दरिया० बानी, पृ० २। बोजक-संज्ञा पुं० [सं०] १. सूची। फिहरिस्त । २. वह सूची बीजू.g+-संज्ञा पुं० [ मं० वृश्विक ] १. दे० 'विच्छू' । उ०-सीत जिसमें माल का व्योरा, दर और मूल्य आदि लिखा हो। असह विष चित चढ़ सुख न मढे परिजंक। विनु मोहन यह सूची बेचनेवाला माल के साथ खरीदनेवाले के पास अगहन हनै बी कैसो डंक ।-शृगार सत० (शब्द०)। भेजता है । ३. वह सूची जो किसी गड़े हुए धन की, उसके २. दे० 'विछुप्रा' (हथियार)। उ०-बीछू के घाय गिरे साथ रहती है । ४. असना का वृक्ष । ५. विजौरा नीबू । ६. अफजल्लहि ऊपर ही सवराज निहारयो ।-भूषण । बीज । ७. वे फल जिनमें बीज अधिक हों, जैसे, मंजीर (शब्द०)। (को०)। ८. जनम के समय बच्चे की वह अवस्था जघ उसका घोज-संज्ञा पुं० [सं०] १. फूलवाले वृक्षों का गर्भाड जिससे वृक्ष सिर दोनों भुजानों के बीच में होकर योनि के द्वार पर मा अकुरित होकर उत्पन्न होता है । बीया । सुख्म । दाना । जाय । ९. कबीरदास के पदों के तीन संग्रहों में से एक । विशेष-यह गर्भीड एक छिलके में बंद रहता है और इसमें बोजकर्ता--संज्ञा पुं० [सं० बीजकर्तृ ] शिव का एक नाम [को॰] । अत्यन्त रूप से भावी वृक्ष का भ्रूण रहता है । जब इस बीजकृत्-संज्ञा पुं॰ [सं०] वाजीकरण गर्भाड को उपयुक्त जलवायु और स्थान मिलता है तब वह पीजकोश-संज्ञा पुं॰ [सं०] १. पुष्र का वह अंश जहाँ वीज रहता भ्रूण जिसमे अकुर भव्यक्त रहता है, प्रवुद्ध होकर बढ़ता है। २. कमल के बीच का वह छत्ता जिसमें कमल के बीज और अंकुर रूप मे परिणत हो जाता है। यही अंकुर समय या कमलगट्टा रहता है [को०] । पाकर बढता है और बढ़कर वैसा ही पेड़ हो जाता है जैसे बीजक्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं०] चीजगणित के नियमानुसार गणित पेड़ के गर्भाड से वह स्वयं निकला था। के किसी प्रश्न की क्रिया। क्रि० प्र०-उगना -डालना।-बोना। बीजखाद-संज्ञा पु० [सं० पीज+हिं. खाद] वह रकम जो २. प्रधान कारण । मूल प्रकृति । ३. जड़ । मूल । ४. हेतुं । जमीदारों या महाजनों की ओर से किसानों को वीज और कारण । ५. शुक्र । वीर्य । ६. वह अव्यक्त साकेतिक वणं खाद प्रादि के लिये पेशगी दी जाती है।