विष्टाला ३३१२ विसमरना आप यह विष सुख तो सुख होत प्रनत अति ।-ब्रज० प्र०, कपूर लोंग चर काग मागे रारी, विसटा विगंध सात अधिक पृ० ११०॥ सियान के -मुंदर ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० १०४ । विष्टाला-संशा पु० [ स० विस्तार ? ] ब्यौरा । विवरण । बिसटी'-संश मो० [देश॰] वेगार । (हिं०) । उ०-नव डांड़ी दस मुसफ पावहि रेयति वसन न देही । विसटी-सशा सी० [म० व'स्त ] लंगोटी । चिट डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिष्टाला लेही।-वीर विसतरना'-क्रि० स० [सं० विस्तारण | विस्तार करना । बढाना । ०, पृ० २७३ । फैलाना । 3०-एक पल ठाढो ह्व के सा मुहे रही निहारि फेरि बिसच-संज्ञा पु० [ स० वि+सञ्चय ] १. संचय का अभाव । के लजौही, भौह सोचे विसतरि फै।-रघुनाथ (शब्द०)। वस्तुप्रो की संभाल न रखना। बेपरवाई। उ०-लघु मनुजहू को सच कियहु विसंच रंच न होय ।-रघुराज (शब्द०)। विसतरना२-क्रि० प्र० [१० दिस्तरण] विस्तृत होना अभिवृद्धि २. कार्य की हानि | वाधा । ३. अमगल । भय । डर । होना । वढना । उ०-विहुंसि गरे सो लागी मिली रघुनाथ उ०-रचक नहि विसच कोशिक संग जात लखन सहकारी। प्रभा अंगनि सो गुन रूप ऐसो विसरि गो।-रघुनाथ - रघुराज (शब्द०)। (शब्द०)। बिसंभरी-सशा पु० [ सं० विश्वम्भर ] दे॰ 'विश्वंभर' । बिससार-संज्ञा पु० [मं० विस्तार ] दे० 'विस्तार' । बिसंभर-वि० [सं० वि (उप०)+ हिं० सँभार] १. जो संभाल विसद-वि० [ मे० विशद ] ० 'विशद' । न सकें। जिसे ठीक और व्यवस्थित न रख सकें। उ.- घिसदता-ज्ञा पी० [सं० विशद + ता (प्रत्य॰)] स्वच्छता । तन विसभर मन बाउर लटा। उरझा प्रेम परी सिर जटा। पवित्रता। निर्मलता। उ०-सलित विसदता नसन चौ चरन —जायसी (शब्द०) २. वेखबर । गाफिल । प्रसावधान । परुनता रग । ज्यों बिकला ससि को पला लसति सुसध्या विसँभारी-वि० [ स० वि (उप०)+हिं० स भार ] जिसकी सुध संग।-स० सप्तक, पु० २४४ । बुध खो गई हो । जिसे तन बदन की खबर न हो । बेखबर । पिसन-सा पु० [ सं० व्यसन ] दे० 'व्यमन' । गाफिल । असावधान । उ०—परा सुप्रेम समुद्र पारा । विसनी'-वि० [सं० व्यसनिन् ] १. जिसे किसी बात का ध्यसन लहरहि लहर होई विसँभारा ।-जायसी (शब्द॰) । या शौक हो। २. जो पपने व्यवहार के लिये सदा बहिया बिसंमृत-वि० [सं० विसंसृत ] विसंसृत । स्खलित । च्युत । चीजें ही हूढ़ा करे । जिसे चीजें जल्दी पसंद न पाएँ । जो उ०-नगर मैं वगर वगर ह गयो। देवकी गर्भ विसंसृत व्यवहार की साधारण वस्तु सामने प्राने पर नाक भी भयो ।-नद० ०. पृ० २२४ । सिकोड़े। ३. जिसे सफाई, सजावट या बनाव सिंगार बहुत बिस@--सज्ञा पु० [सं० विप] १. दे० 'विष' । गरल । उ०-डरी पसंद हो। छैना । चिकनिया। शौकीन । ४. वेश्यागामी । हरी विझरी रहति, हरी प्रेम बिस पाय ।-प्रज० ग्रंक, रहीवाज । उ०-शानी मूढ़ प्रौ चेला चोर साह भर भूना । पृ०५६ । २. जल ।-अनेकाथ०, पृ० ५० । विस्वा विसनी भेड़ कसाई नाहि कोई घर सूना । -पला ० बानी, बिस-सज्ञा पुं० [सं०] कमल की नाल । मृणाल । भा० ३, पृ० २७ । (ख) रडियां विसनियो से रुपया लेकर विसकंठी-संज्ञा पुं० [सं० विसकरिछन् ] एक प्रकार का छोटा सारंगी ही में डाल देती हैं। -प्रेमघन॰, भा०, २, पृ० ३३० । वक या बगुला [को०] । ५. दुःखदायक | कष्टदायक । उ०-क्यों जियो कैसी करी विसकरमा पु-सञ्ज्ञा पुं० [सं० विश्वकर्मा ] दे० 'विश्वकर्मा' । बहुरयो बिसु सो विसनी यिसवासिनि फूनी । -केशव ग्रं०, बिसखपरा-सा पु० [सं० विप+खपर ] १. हाथ सवा हाथ लंबा भा० १, पृ०६६। गोह की जाति का एक विषेला सरीसृप जंतु । इसक काटा जीव बिसनी-संज्ञा स्त्री० [सं० पिसिनो, प्रा० घिसणी] १. कमलिनी । तुरत मर जाता है। इसकी जीभ रगीन होती है जिसे यह २. लता ।-भनेकार्थ०, पृ० ८८ । थोड़ी थोडी देर पर निकाला करता है। देखने में यह बड़ी बिसबास-संज्ञा पुं० [सं० विश्वास ] दे० 'विश्वास' । उ०- नज भारी छिपकली सा होता है। २. एक प्रकार की जंगली जीवन फेरि वमो व्रज में, बिसवास में यो विस घोरिए ना। बूटी जिसकी पत्तियां बनगोभी की सी परंतु कुछ अधिक हरी पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५६६ । और लवी होती हैं। यह पौषध मे काम प्राती है। इसे बिसमग-संशा पुं० [सं० विस्मय ] दे॰ 'विस्मय' । 'बिसखपरी' भी कहते हैं। ३. पुनर्नवा । पथरचठा। बिसमय-संज्ञा पु० [सं० विस्मय ] १. पाश्चयं । २. गर्व ३. गदहपूरना । विषाद । उ०—पेयसी समाद सुनि हरि बिसमय कए पाए घिसखापर, बिसखोपड़ा-संज्ञा पु० [सं० विप+खर्पर ] दे० ततहि बेरा ।-विद्यापति, पृ० ६५। 'विसखपरा' । उ०—त्रीछू बिसखापरवि चांपत चरन बीच बिसमरनाल-क्रि० स० [सं० विस्मरण ] विस्मृत करना । सुल लपटै फनीज गहि पटकै पछार को।-राम कवि (शब्द०)। जाना। उ०-सुत तिय धन की सुधि विसमरै ।-सूर विसटा-सञ्चा पु० [सं० विष्टा ] दे० 'विष्टा'। उ०—पान भी
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२७३
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