पिरषभ ३५०५ चिरिया विरषभ-संज्ञा पुं॰ [सं० वृषभ ] दे॰ 'वृषभ' । मुहा०-बिरादरी से बाहर या खारिज होना = जाति से बहिस्कृत विरस - वि० [सं० विरस ] रसहीन । शुष्क । होना । जातिच्युत होना। विरस-संज्ञा पुं० अरसिकता । रसविमुखता । दिगाड़ । उ०-ऐसें विरान-वि० [हिं० वेगाना ] पराया। वेगाना। ३०-बहुत क जान ? रस माहि विग्स अनीति है।-घनानंद, पृ०७३ । फिरहिं गरव की माती खोजत पुरुष विरान !-जग० श०, विरसन-संज्ञा पुं० [२० रस (= विष)] जहर । विष १. (डि०) । पृ० ८५॥ विरसना@-क्रि० अ० [सं० विलसन] विलास फरना। भोगना । बिराना-वि० [फा० वेगानह ] [नि० सी० बिरानो] १. पराया । उ.-नीर घटे पुनि पूछ न कोई। चिरसि जो लीज हाथ जो अपने से अलग हो। उ०-मैं तुम्हारे घर से चली माई रस सोई । —जायसी (शब्द०)। तो विरानी हो गई।-मान०, मा० ५, पृ० १०२ । २. बिरह-संशा पुं० [सं० विरह ] विरह । वियोग । उ०-राम विरह दूसरे का । जो प्रपना न हो । उ०-प्ररुन प्रघर, दसननि पुति व्याकुल भरत सानुज सहित समाज । -मानस, २।२१२ । निरखत, विद्रुम सिखर लजाने । सूर स्याम प्राछो वपु काळे, बिरहा-संज्ञा पुं० [सं० विरह ] वियोग। उ०-दरिया गुर किरपा पटतर मेटि बिराने ।-सूर०, १०।१७५६ । करी, विरहा दिया पठाय । यह विरहा मेरे साध को, सोता बिराना-क्रि० प्र० [अनु० ] किसी को दिसाकर चिढ़ाने के लिया जगाय । -दरिया० बानी, पृ०६। लिये मुह को विलक्षण मुद्रा बनाना । विरावना । मुह चिढाना । दे० 'मुह' का मुहा० । उ०-दई सैन सब सखन विरहा-संज्ञा पुं० [ स० विरह ] एक प्रकार का गीत जो प्रायः को ले गोरस समुदाय । गए निकरि जब दूरि तब प्रापह घहीर लोग गाते हैं । इसका पतिम शब्द प्रायः बहुन खीच. भगे बिगय ।-घुनाथ (शब्द०)। कर कहा जाता है । जैसे,—बैद हकीम बुलापो कोई गोइयाँ कोई लेमो री खबरिया मोर। खिरकी से खिरकी यो बिराल-सा पु० [भा विडाल ] दे० 'विशाल' । फिरकी फिरति दुप्रो पिरकी उठल वड़ जोर ।-बलवीर गिरावना -फ्रि० स० [ म० चिरावण (= शब्द)] १. मुह (पाब्द०)। निढ़ाना । किसी के मुह से निकले हुए शब्द फो उसे चिढ़ाने मुहा०-झार बिरहा गाना = बढ़ बढ़कर ऐसी बातें कहना जो के लिये उसी प्रकार उच्चारण करना । २. किसी को दिसला- प्रायः कार्य रूप में परिणत न हो सकती हों। कर चिढाने हेतु मुह की कोई विलक्षण मुद्रा बनाना । बिरहाना-क्रि० अ० [हिं० बिरहा +ना (पत्य०) ] विरहयुक्त बिरास-संज्ञा पुं० [सं० विलास ] दे० 'विलास' । होना । विरहजन्य दुख से पीड़ित होना । बिरासी-संसा पुं० [सं० विलासिन् ] वह जो विलास करता हो। पिरही-शा पु० [सं० विरहिन् ] [स्त्री विरहिन, विरहिनी] वियोग विलासी । उ०--जो लगि कालिदि होहि विरासी। पुनि से पीड़ित पुरुष। वह पुरुष जो अपनी प्रेमिका के विरह से सुरसरि होइ समुद परासी।- जायसी (शब्द०)। दुःखित हो। विरिख-संज्ञा पुं० [सं० वृष ] दे० वृष'। उ०-विरिस मिरहुली-संशा जी० [ देश ०] १. कबीर साहित्य मे एक विशेष मंवरिया दहिने बोला ।-जायसी प्र०, पृ० ५६ । रचना जिसमें सर्प और उसके विष प्रादि की चर्चा हो । २. बिरिख -संज्ञा पु० [ म० वृक्ष, प्रा० विक्ख ] दे० 'वृक्ष' । २. घिरवा । जड़ी बूटी । ३. सर्पादि का विष दूर करनेवाला। बिरछ'-ज्ञा पुं० [सं० वृष ] दे॰ 'वृक्ष' । विषवैद्य । चिरिध-० [सं० वृद्ध ] दे० वृद्ध' । उ०-विरिघ होइ नहि बिराग-संज्ञा पुं० [सं० विराग] दे० 'विराग' । 'जोलहि जिमा ।-जायसी ० ( गुप्त), पृ० ४३ । विरागना-क्रि० प्र० [हिं० विराग+ना (प्रत्य॰)] विरक्त होना । विरियाँ'-संज्ञा स्त्री० [हिं० वेला ] समय । वक्त । बैला । उ०-- अनासक्त होना । उ०-बंधेउ सनेह विदेह बिराग विरागेउ पुनि पाउब यहि विरियो कालो ।-तुलसी (शब्द०)। तुलसी न०, पृ. ४६ । चिरियाँ २-संशा स्त्री० [सं० वार ] बार । दफा। पारी। 30- विराजना-फ्रि० स० [सं० पि+रञ्जन ] १. शोभित होना । शोभा (क) सूर की विरियां निठुर भए प्रभु मोते फछु न सरयो। देना । उ०-अलत वैसि हिंडोरनि पिय कर संग । उत्तम -सूर (शब्द०) । (ख) वीस विरियां चोर को तो कवर चीर बिराजल भूषन घंग।-सुदर० प्र०, भा० १, ३७९ । मिलि है साह ।-सूर । (शब्द०)। २. बैठना । मासीन होना । विराजना। विरिया-शा स्त्री० [हिं० थाली ] १. चांदी या सोने का बना विरादर-संश पुं० [फा०] १. भाई। भ्राता। २. सजातीय । छोटी कटोरी के माकार का एक गहना जो कान में भाई बंधु। जाता है। पच्छिमी जिलों में इसे 'ढार' कहते हैं। बिरादराना-वि० [फा० बिरादरान ] विरादर संबंधी । जातीय । 'कानों में मुमके रहे झून, मिरिया, गलनुमनी कर्णफूल । विरादरी-संश सी० [फा०] १. भाईचारा । बंधुत्व । २. जातीय न्या, पृ० ४०। २. चलें फे वेलन समाज । एक ही जाति के लोगों का समूह । की वह गोल टिकिया जो ७-३२
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।