पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६०

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उ०- बिनहोनी विपति सीकरन छीर सिंधु बिनसाय । -तुलसी (शब्द०)। (ख) बिनासोg--वि० [सं० विनाशिन् ] दे० विनायो । जग में घर को फूट बुरी । घर की फूटहि सों विनसाई विनाह-संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'विनाश' । सुबरन लंक पुरी। -हरिश्चन्द्र ( शब्द०)। बिनि-प्रव्य० [हिं०] १० 'बिना' । उ०-नख नाराचनि विनि बिनहोनी@-वि० [हिं० विना + होनी ] अनहोनी । कुंरि करिहो कहा प्रनाम ।-नद० ग्रं०, पृ०६७ । बिनहोनी हरि करि सके होनी देहि मिटाय । चरणदास करु बिनिया-सज्ञा स्त्री० [सं० विनय ] दे० 'विनय' । उ०-देवल दै भक्ति हो पापा देहु उठाय ।-भक्ति प०, पृ० १७१ । विनिया सु सुनि कालिदी सुखदाय ।-५० रासो, पृ० १२३ । बिनाणी, बिनाँनी@-संज्ञा पुं० [स० विज्ञानी, प्रा० विएणाणी ] दे० विनु-अव्य० [हिं० ] दे० 'बिना' । उ०—तन विनु परस नयन विनु 'विज्ञानी' । उ०—(क ) गगनि सिबर महि सवद प्रकास्या देखा। ग्रहै नान विन वास असेखा । —मानस, ११११ । तह बूझ बिनाणी ।-गोरख०, पृ० २ । (ख) मानव पशु पंषो विनूठा-वि० [हिं० अनूठा ] अनूठा। अनोखा । पाश्चयंप्रद । किए करतार, बिनानी ।-सुदर ग्र०, भा० १, पृ० २०६ । विलक्षण। बिना'-प्रव्य० [सं० विना ] छोड़कर । वगैर । जैसे,—(क) आपके विन+-संज्ञा सी० [सं० विनय ] दे० 'विनय'। उ०-हाथ बिना तो यहाँ कोई काम ही न होगा । (ख) अब वे बिना जोड़कर पंच परमेश्वर से बिन है।-ला०, पृ० २६ । किताब लिए नही मानेगे । बिनैका-सज्ञा पुं० [स० विनायक ] पकवान बनाते समय का वह बिना-संज्ञा स्त्री० [अ०] १. नीवं । जड़ । बुनियाद । २. वजह । पकवान जो पहले घान मे से निकालकर गणेश के निमित्त सबब । कारण [को०] । अलग रख देते हैं। यह भाग पकवान बनानेवाले को बिनाइक-संज्ञा पुं० [सं० विनायक ] १० 'विनायक' । उ०-सिगरे मिलता है। नरनाइक असुर विनाइक राकसपति हिय हारि गए।- विनोद-सज्ञा पुं॰ [ सं० विनोद ] खेल कूद । क्रीड़ा । दे० 'विनोद' । केशव प्र०, भा० १, पृ० १७१ । विनाई-मञ्चा स्त्री० [हिं० पिनना या बीनना ] १. बीनने या चुनने बिनौल --पंज्ञा पुं० [म० विनय ] दे० 'विनय'। उ.-बिनो करहिं जेते गढपती । फा जिउ कीन्ह कवनि मति मती। की क्रिया या भाव । २. बीनने या चुनने की मजदूरी । ३. -जायसी नं (गुप्त), पृ० ६०८ । वुनने की क्रिया या भाव । बुनावट । ४. बुनने की मजदूरी । बिनौरिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनौला ] एक प्रकार की घास जो बिनाणा-पंज्ञा पु० [सं० विज्ञान, प्रा. विणाण ] दे० 'विज्ञान' । खरीफ के खेतो मे पैदा होती है। इसमे छोटे पीले फूल उ-जिहि जिहि जाण बिनाण है तिहि घटि प्रावरणा निकलते हैं । यह प्रायः चारे के काम मे पाती है। घणा-कवीर ग्रं॰, पृ० ५१ । बिनौला-पञ्चा पुं० [देश॰] कपास का बोज जो पशुप्रो के लिये बिनाणी-वि० [सं० विज्ञानिन् प्रा० विणाणि ] दे० 'विज्ञानी'। पुष्टिकारक होता है । इससे एक प्रकार का वेल भी निकलता उ०-विष का अमृत करि लिया, पावक का पाणी। बांका है । बनौर । कुकटी। सूधा कर लिया, सो साधु बिनाणी। दादु० बानी, पृ० ३१० । बिनाती-संवा स्त्री० [हिं० ] दे० 'बिनती'। उ०-पइ गोसाई चिन्हनी-संञ्चा स्त्री० [हिं० विंधना ] जुलाहों की वह लकड़ी या छड़ जो ताने में लगा रहता है और जो तागे से लपेटन में सउ एक बिनाती। मारग कठिन जाब केहि भांती।- बंधा रहता है। जायसी (शब्द॰) । बिनाना-क्रि० स० [हिं०] दे० 'वुनवाना' । विपंचकी-मशा स्त्री॰ [ स० विपञ्चिका ] वीणा । दे॰ 'विपंची'। उ०-बुलंत वाणि कोकिला, विपंची सुरं मिला ।-ह. बिनानी-वि० [सं० विज्ञानी ] अज्ञानी । अनजान । उ०—(क) रोवन लागे कृष्ण विनानी । जसुमति प्राइ गई ले पानी।- रासो, पृ०२५ । सूर (शब्द॰) । (ख) पाहन शिला निरखि हरि डारयो ऊपर विपच्छ'--संज्ञा पुं॰ [ सं० विपक्ष ] शत्रु । वैरी । दुसमन । खेलत श्याम बिनानी ।—सूर (शब्द०)। (ग) भवन काज को विपच्छ'-वि० अप्रसन्न । नाराज । प्रतिकूल । विमुख विरुद्ध । गई नंदरानी। मांगन छाडे श्याम बिनानी ।—सूर (शब्द०)। उ०-विध न धन पाइए सायर जुरे न नीर । परे उपास बिनानी-संज्ञा पुं० [सं० विज्ञान | विज्ञानी । उ०-वहाँ पवन फुबेर घर जो विपच्छ रघुबीर । —तुलसी ग्र, पृ० १२ । न चालइ पानी । तहाँ प्रापई एक बिनानी ।-दाद (शब्द०)। विपक्षी -संश पु० [सं० विपाछन् ] वह जो विपक्ष का हो। विरोधी । शत्रु | दुशमन । बिनानी-संशा स्त्री० [सं० विज्ञान] विशेष । विचार | गौर । तक वितरूं। उ०-चिते रहे तब नंद पुवति मुख मन मन करत विपणी-संज्ञा स्त्री० [स० विपणि ] बाजार । हाट । बिनानी।-सूर (शब्द०) । विपत-संशश क्षी० [हिं०] दे० 'विपत्ति' । उ०-इसी विपत में रात पिनावट-संशा सी० [हिं० विनना ] दे॰ 'बुनावट'। कटी।-भारतेंदु न, भा० १, पृ० ३० । बिनासना-क्रि० सं० [सं० पिनष्ठ ] विनष्ठ करना । संहार करना । विपता-संज्ञा स्त्री॰ [ देशी ] दे० 'विपत्ति' । विपवि-संशा सी० [हिं०] दे० 'विपचि' । उ०-घन गरज जब । बरबाद करना।