पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२६

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फड़काना ३२६५ फणमणि मालिक। सुनते ही रूक्मिणी जी की छाती से दूध को धार बह निकली फड़वाना-फि० स० [हिं० फाड़ना का प्रेरणार्थक ] किसी अन्य से और बाई बाँह फड़कने लगी। लल्लू (शब्द०)। फाड़ने का काम कराना। विशेष-लोगों को विश्वास है कि भिन्न भिन्न अपों के फड़कने फहिंगा-संवा भ्ली० [सं० फढिनर ] १. फतिगा। फनिगा। २. का शुभ या अशुभ परिणाम होता है। झीगुर [को०] । ३. हिलना डोलना । गति होना। फड़िका-संज्ञा पु० [सं० फलक, हिं० फरका ] दे० 'फरका' । मुहा०-बोटी फड़कना = अत्यंत चंचलता होना। उ०- पापण ही टाटी फड़िका प्रापण ही बंध । प्रापण ही ४. तड़फड़ाना। घबड़ाना। स्थिर न रहना । चंचल होना। मृतक आपण ही कंघ।-गोरख०, पृ० १३६ । क्रिया के लिये उद्यत होना । ५. पक्षियों का पर हिलना । फड़िया-संज्ञा पुं० [हिं० फड (= दुकान)+इया (प्रत्य॰)] १. फड़काना-क्रि० स० [हिं० फड़कना का प्रे० रूप ] १. दूसरे को वह वनिया जो फुटकर अन्न बेचता हो। २. वह पुरुष जो फड़कने में प्रवृत्त करना। २. उमंग दिलाना । उत्सुक बनाना। जूना खेलाने का व्यापार करता हो। जुए के फड़ का ३. हिलाना । विचलित करना । मुहा०-फडका देना = मन में उमंग ला देना । तवियत फड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फड़ ] एक गज चौडी, एक गज ऊंची मौर फड़क जाना । उ०-मगर बाह रे मौलवी, ऐसा गर्मागर्म तीस गज लंबी पत्थरों या ईटों आदि की ढेरी । फिकरा चुस्त किया कि फड़का दिया। इस सूझ बूझ के कुरबान ।-सैर कु०, पृ० २६ । फड़ आई-संज्ञा पुं० [हिं० ] [ स्त्री० फड़ ई ] दे॰ 'फावड़ा' । फड़ ई-संज्ञा स्त्री० [हिं० फड़ वा भाड़ ] लाई । फरवी । फड़कापेलन-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का बैल जिसका एक सींग तो सीधा कार को होता है और दूसरा नीचे को झुका फड़ ई-संज्ञा स्त्री० [हिं० फड श्रा या फड हा ] १. छोटा होता है। फावड़ा । २. एक प्रकार का लकड़ी का कड़छा जिससे नील का माठ मथा जाता है फड़नवीस-संज्ञा पुं॰ [फा० फ़र्दनवीस ] मराठों के राजत्वकाल फा फडुहा-संशा पुं० [हिं०] [स्त्री० फड ही ] फावड़ा । एक राजपद। विशेष-पहले यह पद केवल उन्हीं लोगों का माना जाता था फड़ हो'-संज्ञा स्त्री० [हिं० फड़ या भाद ] लाई । फरवी। जो राजसभा में रहकर साधारण लेखकों का काम करते थे। फड़ हीर-संशा स्त्री० [हिं० फड् हा ] * , 'फड़ ई' । पर पीछे यह पद उन लोगों का माना जाने लगा जो दीवानी फड़ोलना -क्रि० स० [सं० स्फुरण ] किसी चीज को उलटना । या माल विभाग के प्रधान कर्मचारी होते थे। ये लोग लगान इधर उधर या ऊपर नीचे करना। वसूल करनेवालों का हिसाब जाँचा पौर लिया करते थे। फण -संज्ञा पुं॰ [सं०] [ बी० फणा ] १. साँप का सिर उस समय बड़े बड़े इनाम या बागीरें देने की व्यवस्था भी ये ही लोग जब वह अपनी गर्दन के दोनों पोर की नलियों में वायु पर किया करते थे कर उसे फैलाकर छत्राकार बना लेता है। फन । उ०- फड़ना-क्रि० स० [सं० फण्ड (- पेडू । पेट ) ] फाड़ बांधना । फण न घढ़ावत नागहू जो छेड्यो नहि होइ। --शकुंतला, काछना। पहनना । ७०-फड़ि कचोठा हर इसर बोलावेट, पृ० १२६ । मगन जना सवे कोटि कोटि पावे।-विद्यापति, पृ० ५१५ । पर्या०-फणा । फटा | फट । स्फट । दर्वी । भोग । स्फुट । फड़ फड़-संज्ञा स्त्री० [ अनुध्व.] 'फड़ फड' की प्रावाज होना । विशेष-इस शब्द के अंत में घर, कर, घृत्, वत् शब्द लगाफर कागज या चिड़ियों के पंखों के बार बार उड़ने या हिलने वनाया हुमा समस्त पद साँप का घोषक वनता है। से उत्पन्न ध्वनि या आवाज। उ०-फड़ फड़ करने लगे जाग २. रस्सी का फंदा। मुद्धी। फोप्रारी। ३. नाव में ऊपर के पेड़ों पर पक्षी। साकेत, पृ० ४०३ । तखते की वह जगह जो सामने मुंह के पास होती है। नाव का ऊपरी प्रगला याग। फड़फड़ाना'-क्रि० स० [ मनु०] १. फड़फड़ शब्द उत्पन्न करना । हिलाना । जैसे, पर फड़फड़ाना। २. दे० 'फटफटाना'। फणकर-संज्ञा पुं० [सं०] साप । फड़फड़ाना-कि० ५० १. फड़ फड शब्द होना । २. घबराना । फणधर-संशा पुं० [सं०] १. साप । २. शिव [को०] । ३. तड़फड़ाना। ४. उत्सुक हाना । फणभर-संशा पुं० [सं० ] साँप । फणभृत्-संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प । सांप। २. नौ की संख्या । फड़बाज-संज्ञा पुं० [हिं० फड़+फा० बाज़ (प्रत्य॰)] वह जिसके ३. पाठ की संख्या (को०] । यहाँ जुए का फड बिछता हो। अपने यहां लोगों को जूमा खेलानेवाला व्यक्ति। फणमंडल-मंशा सं० [सं० फणमण्डल ] साप का गोलाकार फण । फड़बाजी-संशा सी० [हिं० फड़बाज+ई (प्रत्य॰)] १. फड़वाज कुंडलित फरण [को०। फणमणि-संज्ञा पु० [सं०] सांप के फण पर फी मरिण । का भाव । २, अपने यहां दूसरों को जूमा खेलाने की क्रिया । 1 ७-२