पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२५९

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विधि विनसाना विधि-संज्ञा पुं॰ [सं० विधि ] दे० 'विधि'। उ~-विधि कहि विपर असीसि विनति अउधारा । सुग्रा जीउ नहिं कर भौति घरउँ मन धीरा-मानस, १ । निनारा-जायसी (शब्द०)। विधि---संशा सो० प्रकार । भौति । तरह। उ०-एहि विधि पंथ विनतो-सचा त्री० [स० विनय या विज्ञप्ति ] प्रार्थना । निवेदन करत पछितावा !--मानस, २ । अर्ज । उ०-बिनती करत नरत हो लाज ।-(शब्द०)। विधिना-स्त्री० पुं० [हिं०] दे० "विधना'। उ०-विधिना सो बिनती विनती पत्र संज्ञा पु० [हिं० बिनती+पत्र ] प्रार्थनापत्र | आवेदन । यहै मिलि विछुरन नहिं होय !--ब्रज० ग्र०, पृ० ३४ । उ.- श्री गुसाई जी को बिनती पत्र लिखि के वा मनुष्य को विधुतुद-संज्ञा पुं० [हिं० दिधुन्तुद ] राहु । महाप्रसाद लियाइ के नारायन दास ने विदा कियो-दो सौ बावन, भा०१, पृ० १३२ । बिधु सना-क्रि० स० [स० विध्वंस +हिं० ना (प्रत्य॰)] दे० 'विधासना' । उ०-लक बिधुसी वानर थे काई सराहो विनन-तशा सा० [हिं० बिनना (= पुनना) ] १. विनने या राजा गठ अजमेर-बी० रासो, पृ० ३३ । चुनने की क्रिया या भाव । २. वह कूड़ा कर्कट दि जो किसी चीज मे से चुनकर निकाला जाय । चुनना । जैसे,- विधु 3-संज्ञा पु० स० विधु ] दे० विधु' । मन भर गेहूँ में से तीन सेर तो बिनन ही निकल गई। ३. विधुर--संज्ञा पु० [सं० दिधुर ] दे० "विधुर' । बुनने की क्रिया या भाव । बुनावट । बिधुली-संज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार का बांस जो हिमालय की विनना'-क्रि० स० [सं० वीक्षण ] १. छोटी छोटी वस्तुषों को एक तराई में पाया जाता | इसे नल बांस और देव बांस भी एक एक कर के उठाना । चुनना। २. छाँट छोटकर अलग कहते हैं। विशेष-दे० 'देवास। करना । इच्छानुसार संग्रह करना। विनंठना+--क्रि० प्र० [स० विनष्ट, प्रा० थिनट्ठ, बिनंठ ] विनष्ट बिनना-क्रि० स० [हिं० वींधना] डंक्वाले जीव का डंक मारना । होना । 30-पासि विनंठा वप्पड़ा, क्या करे बिचारी काटना। वोधना चोल ।-कवीर ग०, पृ० ३ । बिनना-क्रि० स० [सं० धयन ] दे॰ बुनना'। विनंती, विनंतुसंज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'विनती' 1 उ०—(क) बिननिहार-वि०, संज्ञा पुं० [हिं० यिनन+हार] वह जो विनता या तब यह ब्राह्मन विनंती कियो।-दो सौ वावन०, भा० २, चुनता हो। विनने या वुननेवाला । उ०--विननिहार के चिन्है पृ० ८५। (ख) असा संम्रयु को नहीं किसु यहि करउँ न कोई ताते जम जिव लूटा-संत० दरिया, पृ० १२५ । विनंतु :-प्राण०, पृ० २११ । विनय-संज्ञा स्त्री० [सं० विनय ] दे० 'विनय' । बिना'-अव्य [हिं० ] दे० 'बिना'। बिनयना-क्रि० अ० [सं० विनयन ] दे० 'बिनवना'। चिना२~-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक जाति । विंद । घिनरो-मज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] दे० 'परनी' । (वृक्ष ) । विनई +----सा पु० [हिं० विहान ] प्रातः काल । सवेरा । उ०- राजै, ले जाउ के चारि, विनई जा के दीजिए। -पोद्दार विनवट-संज्ञा स्त्री० [हिं० धनेठी, बनौट] चनौट । बनेठी चलाने की क्रिया या विद्या । अभि० ग्रं०, पृ० ६२१ ॥ चिनई-वि० [सं० विनयी ] १. विनती करनेवाला । २. नन । यौ०-विनवट पटा । उ०-कुछ विनवट पटे के हाथ सीखे हैं।-काया०, ० २६६ । विनउ@-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'विनय' । बिनउनी-संञ्चा स्त्री० [हिं० बिनना] बुनने की मजदूरी। उ०-काह विनवना-संज्ञा स्री० [हिं० चीनना ] दे० 'विनन' । बिनउनी देह परम हरि दालहिप्रा।-विद्यापति, पृ० १५४ । विनवना--क्रि० प्र० [सं० विनयन ] विनय करना। मिन्नत करना । प्रार्थना करना। उ०-अजहूँ कछु संसठ मन मोरे । विनठना-कि० . [ सं० विनष्ट ] दे० 'विनशना' । उ- करहु कृपा बिनवौ कर जोरे ।-मानस, १११०६ । (क) काया काची कारवी, काची केवल धातु । साबतु रख बिनवाना-क्रि० स० [हिं० बीनना ] विनने या बुनने का काम हित राम तनु नाहि त विनठी वात ।-कबीर पं०, पृ० २५१ । (ख) ते नर बिनठे मूलि जिनि घधै मैं ध्याया नही।-कवीर ग्रं०, पृ० २३ । विनशना@f-क्रि० प्र० [सं० विनाश नष्ट होना । वरवाद होना। विनत--संज्ञा स्त्री० [सं० चिनति] विनम्रता : विनती । उ०- विनशनारे-क्रि० स० विनाश करना । नष्ट करना । विनती सब पौगुन गुन होई । सेवक विनत तज नहिं कोई। बिनसना@t--क्रि० स० [सं० विनष्ट] विनष्ट होना । नाश होना । -चित्रा०, पृ० १५६ । धिनसना-क्रि० स० नष्ट करना । चौपट करना । विनतर-वि० [सं० विनत ] नन। झुका हुमा । घिनसाना-क्रि० स० [सं० विनाशना ] विनाश करना। बिगाड़ बिनतामा पुं० [देश॰] पिंडकी नाम की चिड़िया । डालना । नष्ट कर देना। विनति--संज्ञा स्त्री० [सं० विज्ञप्ति ? ] प्रार्थना । विनती । उ6- विनसाना-क्रि० प्र० विनष्ट होना । उ०-(क) कबई कि काजी कराना।