पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२३६

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पावीस पासना शन्दै के कारण सव बावीसा-संज्ञा पुं० [सं० द्वाविंशति, प्रा० पानीस ] दे० 'वाईस' । रोम पाट को कियो। दायजो विदेहराज भातिनाति को घावीसा-वि० [प्रा०] ३० 'वाइसौं' उ०-प्रस्टम दीप बावीस कियो ।-केशव (शब्द०)। मा प्रकाशा-फबीर गा०, पृ० ६२३ । वास--संज्ञा M० [सं० वासना ] वासना । इच्छा। मालन। वावेला --संशा पुं० [फा० यावैलह, ] शोरगुल । कुहराम । उ०—तिय के मम दूगो नही मुस सोई विरेश निायो विधि बाशऊर-वि० [फा०] गुणी । शकरदार । उ० -फितनी बातमीज वास घरे। -सेवक स्याम ( वाश ऊर, हसीन लड़की थी।-काया०, पृ० ३३६ । वास-मशा सी० [सं० वाशिः] १. अग्नि । पाग। २. एक प्रकार का प्रस्त्र । उ-गिरिधरदास तीर तुपक तमंचा लिए सरें बाशिंदा-ज्ञा पुं० [ फा० वाशिंदह ] रहनेवाला । निवासी । बहु भांति वास धार बरसै प्रसह ।-गिरधर (शब्द०)। बाष्कल-शा पुं० [स० ] १. एक दैत्य का नाम । २. वीर। ३. तेज धारवाली छुरी, चा, केची इत्यादि छोटे छात्र योद्धा । ३. एक उपनिषद् का नाम । ४. एक ऋषि का जो रण मे तोपो में भरकर फेके जाते हैं। नाम। वास-संशा पु० [ देश० ] एक पर्वतीय वृक्ष जो बहुत ऊना होता पाप्प-संज्ञा पुं० [सं० वाष्प ] १. भाप । २. लोहा। ३. प्रथु । हैं। विपरसा। प्रासू । ४. एक प्रकार की जड़ी। ५. गौतम बुद्ध के एक विशेप-इस वृक्ष की लकड़ो रंग मे लाली लिए काली और शिष्य का नाम । इतनी मजवून होती है कि साधारण कुल्हाड़ियो से नहीं कट यौ०-पापकंठ = गदगद कंठ । जिसका गला अश्रु सकती। यह लकड़ी पलग के पाये घोर दूसरे सजावटी सामान भर पाया हो। वापकल = अश्रु प्राने के कारण अस्पष्ट बनाने के काम मे माती है। इसमे बहुत ही सुगंधित फून और मधुर (ध्वनि)। वाष्पपूर, वाष्पप्रकर = आँसू की लगते हैं और गोद निकलता है जो कह कामो म प्राता है। अधिकता या वेग । बाप्पमोक्ष, बाप्पमोचन = रुदन । रोना । पहाड़ों में यह वृक्ष ३००० फुट की ऊंचाई तक होता है। आँसू गिराना । वाष्पविप्लव = प्रथ पूरित । अघु से वासक-सज्ञा पुं॰ [ स. वासक ] वस्त्र । दे० 'वायक' । छलकता हुमा वाष्पस दिग्ध = दे० 'बाप्पकल'। बासकी-सच्चा सी० [ स.] यज्ञशाला । चापक-सज्ञा पु०॥ ] १. भाप । वाष्प । २. हिंगुपत्री। ३. बासकसज्जा-राणा सां० भ० बासकसज्जा] वह नायिका जो अपने एक शाक । माठ । मरसा [को०] । प्रिय या प्रियतम के पाने के समय कोलसामग्री सज्जित करे । वाष्पका-संज्ञा सी० [सं०] हिंगुपश्री [को०] । नायक के पाने के समय उससे मिलने की तैयारी करनेवाली बाष्पांवु-संशा पुं० [ स० बाप्पाम्बु ] प्रश्रु । प्रांसू (को०] । नायिका। बाप्पाकुल-वि० [सं०] प्रश्र से भरा हुमा था परिव्याप्त [को॰] । वासकसज्या-सरा सी० [ स० वासकसज्जा] दे० 'वास कमज्जा'। वाप्पाप्लुत-वि• [ स० [ दे० 'वाष्पाकुल' । चासठ'-वि० [सं० द्विषष्टि, प्रा० द्वासहि वासष्टि ] साठ भोर दो। इकतीस का दूना। वापिका-संज्ञा खी० [ स०] एफ शाक जिसे मराठी माठ कहते हैं । मरसा । दासठ-सज्ञा पुं० साठ और दो की संख्या या उसको सूचित करने- वाला पक जी इस प्रकार लिखा जाता है-६२ । वापी-संज्ञा सी० [सं०] हिंगुपत्री। बासठवा-वि० [सं० द्विपाष्ठितम, हि वासठ+at (प्रत्य०) जा बासंत- पुं० [ वासन्त ] दे० 'बसंत' । उ० - मनह पाइ वासत क्रम मे बासठ के स्थान पर हा। गिनती म बामठ के स्थान पालास फूले ।-५० रासो, पृ०८३ । पर पड़नेवाला। वासंतिक-वि० [स० वासन्तिक ] १. वसंत ऋतु सबंधी। २. वासदेव'- पुं० [सं० वाशिःदेव ] अग्नि । प्राग । (हि.)। वसत ऋतु में होनेवाला। वासदेव-शा पु० [सं० वासुदेव । दे० 'वासुदेव' । घासंती-पता सी० [स० बासन्ती ] १. मड़ सा। वास । २. घासन'-तशा पुं० [स. वासन] वरतन । माहा। 30-चन भाजन माधवी लता। विष भरा, सो मेरे किस काम । दरिया वारान सो भना, चास-संज्ञा पुं० [सं० वास ] १. रहने की क्रिया या भाव । जामे ममृत नाम ।-दरिया० पानी, पृ० ३। निवास । २. रहने का स्थान । निवासस्थान | ३. वू | गंध । वासन-मग पु० [सं० वसन ] वरुन । वस्त्र । परिधान । ३०- महक । उ०-फूली फूली केतकी भौरा लीजै वास ।-पलटू, यमुधा सब उज्वल म कियं । सित बासन जानि विधाय भा०१, पृ०५२। ४. एक छद का नाम। ५. वस्त्र। दियं।-ह. रासो, पृ० २१ । कपड़ा। पोशाक । उ.-(फ) जहाँ कोमल वल्परो वाम वासना-सं० [ म वासना ] १. इच्छा । बांदा । पाहा सोहैं । जिन्हें अस्पधी कल्पशाखो विमोहैं।-रणव (शब्द०)। 'वामना' । २. गंछ । महक । दू । ३०-पापु नंबर चाहि (ख) पाच घरी चौथे प्रहर पहिरति राते वास । करति फमल पापुहि रंग सुवास ! लेत प्रावही वामना पानगाव भंगरचना विविष भूपन भेष विलास ।-देव (शब्द०)। सब पास-रसनिधि (जन्द०)। घास-संशा पुं० [सं० वसन ] घोटा वस्त्र । उ०-दासि दास वास वासना-क्रि० स० [सं० पासन या पास ] मुगंधित करना।