परिरी धारह वारण-संज्ञा पुं० [ स० वारण ] दे० 'वारण' । वारपधूटी@-मंशा पी० [ 7 बारवधूटी ] वेश्या । उ०-त्यों न बारताgf-पञ्चा बी० [सं० वार्ता ] दे० 'वार्ता' । कारै फरतार उधारक ज्यो चितवै वह वारवधूटी।-केगव चारतिय -पंज्ञा सी० [हिं० वार + तिया ] दे० 'वारस्त्री' । (शब्द०)। बारतुंडो -संज्ञा स्पी० [ स० वास्तु एडी ] पाल का पेड । पारवरदार-संग पु. [फा० ] यह जो सामान प्रादि टोने का काम फरता हो । योमा ढोनेवाला मजदूर । बारदाना-पंचा पुं० [फा० बारदानह ] १. व्यापार की पोत्रों के रखने का वरतन । जैसे, भाँडा, खुरजी, थैला, थेनी वारवरदारी-1] ग्री० [फा०] १. सामग्री प्रादि ढोने की क्रिया । प्रादि। २. फोच के साने पीने का सामान | रसद । ३. सामान ढोने का नाम । २. सामान ढोने की मजदूरी। अगड खंगड, लोहे, लाडो पादि दो फूटे सामान | ४. वह पारवार-संशा पुं० [फा०] १० 'वान्बरदार'। उ० ---एक प्यादे मस्तर जो बंधी हुई पगडी के नीचे रहता है । को सवारी और बारबार ठीक करने को भेज दिया ।- बारन-सज्ञा पु० [सं० वारण ] दे॰ 'वारण' 30 --प्रप बारन प्रेमपन०, भा० २, पृ० १५३ । कंठोरव दारुन दुपदल विदारन गुन अपारन को सकत चारविलासिनि-सा ... [२० वारविलासिनी] 'वार- बिचारि ।-नानंद. पृ० ४०६ । विलासिनी'। उ०-चारविगामिनि को चिसरेन विदेश गयौ पिय प्रानपियारो।-मति० ग्रं॰, पृ० २०७ । घारना'-क्रि० स० [ म० वारण ] निवारण करना । मना करना । रोकना । उ०—लिखि मो वात रासिन सो कही । यही ठीव वारवुद्धि-गदा मा वालचुदि सरकपन का ज्ञान । बाल्या- हो वारति रही।-जायमी (शब्द॰) । (ख) पोरी कैसी वस्था का बोध । उ०-यावृद्धि बानि के साथ हो बड़ी है बात चंद्रमा हू ते चुराइन, बसननि तानि के वपारि वारियतु वीर, कुननि के माय ही सकुन उर पाई है।-पेशव ग्र० है।-मति० ०, पृ० २६६ । मा०१, पृ० १७६ । पारना-क्रि० स० [हिं० वरना ] वालना । जलाना। प्रज्वलित पारमा -० [हिं० बारह ] : 'यारहवा'। उ०-वारमै करना । उ०—(क) साझ सकार दिया ले वारे । समम सूर सो करन रग। मनमी नमा६ तिन कर मंग।-पृ० छोड़ि सुमिरे लगवारे ।-कबीर (शब्द०)। (स) करि रा०,११७०१। शृगार सघन कुजन में नितिदिन करत बिहार । नीराजन बारमुखी- सवा मी० [सं० वारमुख्या ] वेश्या । उ० (फ) वार बहुविधि बारत हैं ललितादिक अनार -सूर (१०)। मुसी लई संग मानो वाही रंग रंगे जानो यह वात करी उर प्रति भीर की।-प्रियादास (ब्द०)। (स) वारमुखी मुनिवर वारना३-क्रि० स० [हिं० ] न्यौछावर करना। दे० 'वारना'। विलोकि के करत चली फस गाने ।-रघुराज (शब्द०)। उ०-सफल संपदा बाई तुम पर प्यारी चतुर सुनान । -भारतेंदु ग्र, भा० १, पृ० ६६६ । पारयाय- पुं० [फा०] १. नमस्कार । सलाम । उ०- वारयाय कर चाली सने ज साह ही।-नट., पृ० १६६ । बारना --संज्ञा पुं० [देश० एक प्रकार का वृक्ष जिम के फनों का गूदा हमारत की लेई में मिलाया जाता है। वि० दे० पारयाय-वि० पहुंचने वाला । प्रानेवाला । प्रागंतुक । विलासी'। घारयायो-मशा टी० [फा०] प्रवेश। पागमन । पहुँच (को०] । वारनारि-सज्ञा श्री० [सं० वारनारि ] वेगा। उ०-इति विधि वारली-वि० [हिं० बार( = पादर) + ली (प्रत्य॰)] बाहरी । वाहर सदागति वास बिगलिन गात, पिमिर की शोमा किषौं की।-बी० रासो, पृ० ५। वारनारि नागरी।-केशव प्र०, भा० १, पृ० १३८ । वारवा-शास्त्री० [दिश०] एक रागिनी जिसे कुछ लोग श्रीराग की घारनिश-सज्ञा स्त्री० [अं] फैना हुपा रोगन या चमकीला रंग पुत्रवधु मानते हैं। जैसे. बारनिशदार जूना, कुरसियों पर वारनिश करना । वारसा'-जज्ञा प्रो० [ में० द्वादश, प्रा० वारस ] दे॰ 'द्वादशो'। महा०-वारनिश करना = रोगन या चमकीला रंग चढ़ाना । उ०-नया ऊगा चांद वारस का लजीली चादनी लंबी।- बारवटाई-संज्ञा स्त्री॰ [फा० बार( = बोम) + हिं• बाँटना ] वह इत्यलम्, पृ० २१६। विभाग जो फसल को दाने के पहले किया जाय। बोझ वारस-वि० दे० 'बारह'। उ०-वारस मास जह! चौमासी । हित बॅटाई। किसान के पहूँ न साँसौ ।- घनानंद, पृ० २८७ । बारवधू-संसा सी० [सं० चारवधू ] वेश्या । उ॰—(क) नाम बारह १-वि० [सं० द्वादश, प्रा० यारस, अप० बारह ][वि० बारहवा ] अजामिल से खल तारन तारन वारन बारवयू को।- जो संख्या में दस और दा हो। उ०-जहँ बारह मास वसंत तुलसी (शब्द॰) । (ख) कहुँ गोदान करत कहुँ देखे फहूं फछु होय । परमारथ बूझ बिरला कोय ।-कवीर (शब्द॰) । सुनत पुरान । कहै नर्तत सव बारवधू औ कई गंधरब मुहा०-बारह पानी का बारह बरस का सूपर । बारह बच्चे- गुनगान । -सूर (शब्द०)। (ग) जनु प्रति नील प्रलकिया वाली सूपरी। बारह वाट = इधर उधर । उ.-वारहबाट वसी लाइ । मो मन वारवधुवा मीन वझाइ ।-रहीम वहत हैं, दरिया जगत पो भेष । तु बहता सँग मत बहै रहता (पन्द०)। साहव देख ।-दरिया० बानी, पु. ३२। बारह बात
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२२३
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